उत्तम कृषि का विकल्प: क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर Publish Date : 24/11/2024
उत्तम कृषि का विकल्प: क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर
प्रोफेसर आर. एस. सेगर
विश्व भर में बदलती जलवायु एवं बढ़ती आबादी और उससे जुड़ी खाद्य आपूर्ति, निस्संदेह चिंता के विषय हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार भविष्य में दुनिया की आबादी को खाना खिलाने के लिए कुल कृषि उत्पादन में 60 प्रतिशत की वृद्वि करने की आवश्यकता होगी। बदलते जलवायु परिवेश में प्रति हैक्टर उपज को बढ़ाना एक कठिन चुनौती है। जलवायु में बदलाव सदैव से ही वैश्विक और स्थानीय स्तर पर विकासशील देशों को ज्यादा प्रभावित करता रहा है। तापमान में वृद्वि कार्बन डाइऑक्साड की बढ़ी हुई मात्रा, असमय वर्षा, बाढ़, सूखा एवं ग्रीन हाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन कृषि पर बुरा असर डाल रहे हैं।
भारत के उत्तर एवं पूर्वी भागों में फैले सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में धान-गेहूं एक प्रमुख फसलचक्र है। धान की पानी की मांग मुख्य रूप से मानसूनी वर्षा से ही पूरी होती है। मानसून के देरी से सक्रिय होने और उससे जुड़ी अन्य अनियमितताओं के कारण वर्तमान में सिंचाई के लिए भू-जल पर निर्भरता बढ़ती जा रही है, जिससे उत्पादन के लिए खर्च भी बढ़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों से फसल अवशेषों को जला देने से ग्रीन हाउस गैसों, धान की खेती के दौरान मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड एवं पशुधन क्षेत्रों से मीथेन जैसी गैसों के उत्सर्जन में लगातार वृद्वि हो रही है। इन्हीं कारणों से जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों से निबटने के लिए क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर को बढ़ावा दिया जा रहा है।
क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर (सीएसए) शब्द का प्रयोग वर्ष 2010 में एफएओ के खाद्य सुरक्षा, कृषि और जलवायु परिवर्तन के लिए आयोजित हेग सम्मेलन में किया गया था। इसका उद्देश्य भविष्य में जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के लिए खाद्य सुरक्षा पर सबका ध्यान केंद्रित करना था। सरल शब्दों में कहा जाए तो ‘सीएसए’ सतत विकास के तीन आयामों को एकीकृत करके (आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण संबंधित) संयुक्त रूप से खाद्य सुरक्षा एवं जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करने का एक सरलतम दृष्टिकोण है। यह मुख्य रूप से निम्न तीन परिणामों की प्राप्ति का लक्ष्य रखता हैः
कृषि उत्पादकता में वृद्वि (स्थाई खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना), जलवायु के अनुरूप लचीलेपन में वृद्वि (कृषि अनुकूलन क्षमता में सुधार करना), कम उत्सर्जन (ग्रीन हाउसगैसों के उत्सर्जन को जहां तक संभव हो कम करना), जलवायु स्मार्ट कृषि में अनुकूलन, शमन और अन्य प्रथाओं का समावेश है जो जलवायु परिवर्तन समस्या का प्रतिरोध और फल जल्द ही अनुकूलन प्राप्त करके विभिन्न जलवायु संबंधी कठिनाइयों का प्रत्युत्तर देने के लिए प्रबंधन क्षमता को बढ़ता है। सीएसए के अंतर्गत आने वाली सभी तकनीकियां इस प्रकार हैं-
ऊर्जा स्मार्ट तकनीकियां: यह तकनीक खेत में बिजाई, सिंचाई से लेकर कटाई तक बिजली एवं ईंधन के रूप में होने वाली खपत और उस पर होने वाले खर्च को कम करने पर बल देती है। उदाहरण-जीरो टिलेज से बुआई करना, फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन, न्यूनतम टिलेज का प्रयोग एवं धान की श्री विधि से अथवा सीधी बुआई करना।
पोषक स्मार्ट तकनीकियां: इसके अंतर्गत लीफ कलर, ग्रीन सीकर का प्रयोग कर खाद और उर्वरक का उपयोग करना, फसलचक्र में दलहनी फसलों को समाहित करना, हरी खाद फसलों का प्रयोग (जैसे लोबिया, ढैंचा, ग्वार) तथा प्रक्षेत्र विशेष पादप पोषक प्रबंधन (एसएसएनएम) का प्रयोग जैसी तकनीकों पर बल दिया जाता है। इसका उद्देश्य है मिट्टी में कार्बन के स्तर में वृद्वि कर भूमि के स्वास्थ्य में भी सुधार करना है।
तनाव सहिष्णु फसलों और फसल विविधीकरण का चयन इस तकनीक के अंतर्गत ऐसी फसलों और प्रभेदों का चयन किया जाता है, जो कि मौसम में हो रहे बदलावों के कारण उत्पन्न जैविक और अजैविक तनावों को सहन करने में सक्षम हों। यहां तनाव सहिष्णु प्रभेदों का चयन प्रक्षेत्र विशिष्ट हो सकता है। फसल विविधीकरण प्रणाली केवल एक या दो फसलों पर निर्भरता को कम कर विपरीत जलवायु परिस्थितियों में कृषकों के लिए अच्छी उपज को बनाये रखने के साथ-साथ आर्थिक नुकसान को भी कम करने में मदद करती है।
बदलते हुए जलवायु परिप्रेक्ष्य में खाद्य सुरक्षा को हासिल करने और गरीब किसानों की आजीविका में वृद्वि करने के लिए, कृषि के परंपरागत तरीकों से आगे निकलने की आज जरूरत है। खेती के ऐसे विकल्पों की जो, नई तकनीकों का एक ऐसा सम्मिश्रण हों, जिनसे ग्रीन हाउसगैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सके।
इस प्रकार वैश्विक तापमान में हो रही वृद्वि के साथ-साथ पानी की कमी से कृषि में हो रहे दुष्परिणामों को भी नियंत्रित किया जा सके। ऐसे में सीएसए एक ऐसा विकल्प है, जिसके माध्यम से नई-नई तकनीकों को अपनाकर हम न केवल ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा में कमी ला सकते हैं अपितु भूमि के स्वास्थ्य में भी सुधार कर सकते हैं।
क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर को बढ़ावा देने के लिए, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत नेशनल अडॉप्टेशन फण्ड फॉर क्लाइमेट चेंज (एनएएफसीसी) योजना के तहत ‘स्केलिंग अप क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर थ्रू मेनस्ट्रीमिंग क्लाइमेट स्मार्ट विलेजेस इन बिहार’के नाम से बिहार राज्य में एक परियोजना चलाई जा रही है जिसमें भाकृअनुप का पूर्वी अनुसंधान परिसर, पटना भी एक मुख्य भूमिका निभा रहा है। इसके लिए वित्तीय सहायता राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा दी जा रही है।
इस परियोजना में समय पर कृषक क्षेत्र भ्रमण, एक्सपोजर विजिट तथा प्रशिक्षण के माध्यम से किसानों को जागरूक करने के साथ उन्हें जलवायु परिवर्तन की स्थिति से निपटने के लिए सक्षम बनाया जा रहा है।
स्मार्ट मौसम तकनीकियां
इसके अंतर्गत किसानों को मौसम का पूर्वानुमान और उसके अनुरूप कृषि कार्य करने पर बल दिया जाता है। अगले 5 दिनों का जिला स्तरीय मौसम पूर्वानुमान और उससे जुड़ी कृषि सलाह पूरे देश भर में भारत मौसम विभाग (आईएमडी) की परियोजना ‘ग्रामीण कृषि मौसम सेवा’ के माध्यम से सप्ताह में दो बार (मंगलवार और शुक्रवार), ब्लॉक स्तरीय मौसम की जानकारी आईएमडी की वेबसाइट https: imadgimet.gov.in/ पर एवं क्षेत्रों की विशेष जानकारी मोबाइल ऐप ‘मेघदूत’के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।
किसान किसी भी फसल अथवा पशुधन बीमा योजना का लाभ उठाकर मौसम में असमय बदलावों से होने वाले नुकसान की भरपाई कर सकते हैं, उदाहरण- प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना।
स्मार्ट जल तकनीकियां: इन तकनीकों में पानी की उपलब्धता नही होने पर भी फसल उपज को बनाए रखने पर जोर दिया जाता है, उदाहरण- धान की सीधी बुआई, धान में वैकल्पिक जल प्रबंधन, जीरो टिलेज, वर्षा जल का संग्रहण इत्यादि। लेजर लैंड लेवलर तकनीक का प्रयोग कर भूमि समतलीकरण करने से 25 प्रतिशत तक सिंचाई के जल की हानि को नियंत्रित, 35 प्रतिशत तक मानव संसाधन की आवश्यकता को कम और 20 प्रतिशत तक फसल की उपज को बढ़ाया जा सकता है।
अल्टरनेट वेटिंग एंड ड्रॉईंग सिंचाई पद्वित के प्रयोग से बिना किसी उपज हानि के 30 प्रतिशत तक सिंचाई के जल के उपयोग तथा 48 प्रतिशत तक मीथेन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। फरोइरीगेटेड रेज्ड बेड तकनीक से 25 प्रतिशत तक कम बीज एवं पोषक तत्वों तथा 30-40 प्रतिशत तक कम पानी की आवश्यकता पड़ती है। यह तकनीक पौधों में झुकाव (लॉजिंग) को कम करने में भी समर्थ है। बचे हुए फसल अवशेषों को मल्चिंग के रूप में प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ खेत में उचित मात्रा में नमी बनाये रखने में भी मदद मिलती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।