महिला अधिकार बनाम पुरूष अधिकार      Publish Date : 22/10/2024

                      महिला अधिकार बनाम पुरूष अधिकार

                                                                                                                                                         प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

‘‘महिला अधिकारों की पैरवी करने का यह अर्थ कतई नही है कि पुरूषों के अधिकारों की पूर्णतया अनदेखी ही कर दी जाए।’’

बात वर्ष 2012 में जब एक डॉक्यूमेंट्री ‘‘मेर्टर्स ऑफ मैरिज’’ बननी शुरू हुई, तो उस समय धारा 498ए का दुरूप्योग अपने चरम पर था। उस समय किसी भी वकील या पुलिस अधिकारी से बात करो तो सभी ऑफ कैमरा कहते थे कि उक्त कानून महिलाओं के हाथों में दिया गया वह हथियार बन चुका है जिसके माध्यम से एक स्त्री अपने पति और उसके परिवार को बरबाद करने के लिए खुलकर इसका दुरूपायोग कर रही है।

इस सब में आश्चर्य की बात तो यह थी कि एक ओर जहाँ सुप्रीम कोर्ट तक इस कानून के दुरूप्योग को कानूनी आतंकवाद का नाम दे चुका था, वहीं कोई भी नारीवादी सोच रखने वाला व्यक्ति यह मानने को तैयार ही नही था कोई स्त्री इस कानून का दुरूप्योग भी कर सकती है। इसी के परिणामस्वरूप वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा एक गाइडलाइन जारी कर 498ए में तुरंत गिफ्तारी पर रोक लगा दी गई।

                                                            

इसके बाद पारिवारिक विवादों में छेड़खानी, दुष्कर्म और अप्राकृतिक सेक्स जैसे अन्य आरोपों का भी प्रयोग खुलकर किया जाने लगा। जेठ, देवर, श्वसुर, मामा, चाचा और ननद आदि पति के रिश्तेदारों पर आरोप लगाकर उन्हें भी जेल भेजा जाने लगा और इसकी ऐवज में भारी रकम वसूल की जाने लगी। किसी भी कोर्ट परिसर में स्थित मध्यस्थता केंद्र में जाकर देखा जाए तो वहां आपको आसानी से इन मुकदमों के दौरान होने वाली सौदेबाजी देखने को मिल जाएगी।

इन मुकदमों में जितनी अधिक संगीन धाराएं लगाई गई होंगी उसी के अनुरूप उतनी ही अधिक रकम की मांग की जाती है। अधिकतर महिलाओं के पति  और उसका परिवार अदालतों के धक्के खा कर बजाए जेल में सड़ने के इन महिलाओं की इस अनुचित मांग को मान लेने के लिए विवश हो जाता है।

किसी आम आदमी को 15 से 20 लाख रूपये की पूंजी को जमा करने में एक लम्बा समय लग जाता है और ऐसे अनेक मामले हैं जहाँ केवल कुछ दिनों और महीनों चली शादी में भी महिला लाखों रूपये इन झूठें मुकदमों के एवज में लेकर चली जाती हैं। महिलाओं के लिए बहुत से ऐसे कानून हैं, जिनके तहत वह अपने पति और उसके परिवार के विरूद्व अपनी शिकायतें दर्ज करा सकती हैं।

ऐसी स्थितियों को देखते हुए मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसे में वैवाहिक दुष्कर्म कानून को लाने की आवश्यकता रह जाती है? हाल ही में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिए गए अपने बयान में कहा कि ऐसा नही किया जाना चाहिए। उधर महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय एवं राष्ट्रीय महिला आयोग आदि संस्थाओं के द्वारा भी इस कानून का विरोध किया गया।

अब सवाल यह है कि क्या भारत की आम महिलाएं अपने पति को दुष्कर्मी कहने के अधिकार की मांग कर रही हैं अथवा फिर यह कुछ थोड़े से नारीवादियों की ही मांग है? इस विषय के ऊपर मैने कुछ नारीवादियों की दलीलें भी सुनी हैं। उनका तो यही कहना है कि वैवाहिक दुष्कर्म कानून का अस्तित्व में नही होना राइट टू इक्वलिटी अर्थात समता के अधिकार के विरूद्व है।

वहीं महिलाएं कभी भी यह नही कहती है कि धारा 498ए या घरेलू हिंसा के कानून के अंतर्गत किसी पीड़ित पुरूष नही देखा जाना भी राइट टू इक्वलिटी के विरूद्व ही है। यदि इसी बात को इस प्रकार से कहा जाए कि क्यों न इस वैवाहिक दुष्कर्म कानून को जेंडर न्यूट्रल कर दिया जाए तो इससे नारीवादी सोच रखने वाले लोग भड़क उठते हैं और कहते हैं कि यदि ऐसा हो गया तो पुरूष इस कानून का दुरूप्योग करेंगे। इस स्थिति से साफ है कि नारीवादियों की सोच यही है कि इस प्रकार के कानून केवल महिलाओं के लिए ही हो फिर चाहे वह इनका दुरूप्योग ही क्यों न करें।

21वी सदी में इस प्रकार की सोच नारीवाद के सिद्वाँतों के बिलकुल विपरीत हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो कहा जा सकता है कि वर्तमान का नारीवाद महिलाओं को सशक्त बनाने के स्थान पर पुरूषों को सताने में अधिक रूचि दिखा रहा है।

यह देखा जाना भी आवश्यक है कि वैवाहिक दुष्कर्म कनून बनाने से पहले ही न्यायालयों में किस प्रकार के आदेश पारित हो चुके हैं। पिछले वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक मुकदमा खारिज किया था जिसमें पत्नी ने पति के परिवार के पुरूष रिश्तेदारों पर दुष्कर्म का झूठा मुकदमा दायर किया था।

इस पर दिल्ली उच्च न्यायलय ने टिप्पणी की कि घरेलू विवादों में इस प्रकार के झूठे आरोपों को लगाने की प्रवृत्ति को रोकना होगा। ऐसे ही एक अन्य मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने शादी के एक दिन बाद ही पत्नी के द्वारा पति पर लगाए गए दुष्कर्म के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि कानून के दुरूप्योग का यह एक सटीक उदाहरण है। हालांकि बहुत से मामले ऐसे भी है जिनमें महिलाओं के द्वारा अपनी बेटी के पति पर बेटी के यौन उत्पीड़न का झूठा मुकदमा केवल इसलिए ही दायर कराया गया जिससे कि बेटी की कस्टड़ी उन्हें ही मिल जाए।

एक संस्था ‘‘एकम न्याय फाउंडेशन’’ के द्वारा वर्ष 2023 में 825 ऐसे मामलों का पर्दाफास किया था जिनमें या तो पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति की हत्या कर दी अथवा पुरूष ने पत्नी अथवा प्रेमिका की प्रताड़ना के आगे विवश होकर आत्महत्या कर ली थी।

ऐसे में जब हम प्रायः झूठे मुकदमों में फंसे पुरूषों के द्वारा आत्महत्या करने के मामलों को देख रहें है, तो उस समय इस वैवाहिक दुष्कर्म कानून आता है तो ऐसी महिलाएं जो कि व्याभिचारिणी या झगड़ालू प्रवृत्ति की हैं, ऐसी महिलाएं ही इस कानून का दुरूप्योग करेंगी।

ऐसे किसी भी कानून के संदर्भ में कुछ अहम सवाल इस प्रकार हो सकते हैं- यदि कोई महिला कहे कि उसके पति ने दो वर्ष पूर्व उसके साथ दुष्कर्म किया था, तो फिर उसका पति यह कैसे साबित कर पाएगा कि उसने ऐसा कुछ नही किया था?

अगर महिला कोई झूठा मुकदमा दायर करने के बाद उस मुकदमें को वापिस लेने की एवज में लाखों या करोड़ो रूपये की मांग करे तो क्या हमारे न्यायालय ऐसे मुकदमों को सेटलमेंट के नाम पर समाप्त करेंगे। जैसा कि 498ए के मामलों का इतिहास रहा है? यदि हाँ तो क्या यह वसूली करने का एक और माध्यम नही बन जाएगा? यदि कोई महिला किसी पुरूष पर कोई झूठा मुकदमा दायर करती है तो क्या इसके लिए उस महिला को सजा मिलने का कोई प्रावधान है? चूँकि धारा 498ए में दायर किए गए झूठे मामलों में तो शयद ही कभी किसी महिला को सजा मिल पाई हो।

                                              

हमारे देश में पति अथवा पत्नी के द्वारा बिना किसी कारण के चलते शारीरिक सम्बन्ध स्थापित नही करना क्रूरता और तलाक का आधार भी माना जाता है। यदि किसी केस में किसी महिला का पति इसी आधार पर तलाक की मांग करता है और पत्नी पति के विरूद्व वैवाहिक दुष्कर्म का आरोप लगा देती है तो फिर ऐसे मामले में कोर्ट किसकी मानेगा?

ऐसे में क्या महिला का कथन ही किसी पुरूष को जेल भेजने के लिए पर्याप्त होगा? शादी केवल महिलाओं के अधिकारों का ही तानाबाना नही होता है, जैसा कि नारीवादी लोग सिद्व करना चाहते हैं। महिला के अधिकारों के लिए संघर्ष करने का अर्थ यह नही है कि इसमें पुरूषों को प्राप्त अधिकारो का पूरी तरह से गला ही घोट दिया जाए। क्योंकि मान-सम्मान केवल एक स्त्री का ही नही होता बल्कि यह पुरूष का भी होता है।

हमारा मानना है कि पतियों के द्वारा पत्नियों के मानसिक, शारीरिक और यौन शोषण किए जाने पर उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए, लेकिन इस तथ्य की भी अनदेखी नही की जानी चाहिए कि अधिकतर महिलाएं इन कानूनों का दुरूप्योग कर रही हैं इस कृत्य के लिए उन्हे किसी प्रकार की कोई सजा नही मिल पाती है।

स्ुप्रीम कोर्ट को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि ऐसा कानून जो कि इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में लगभग प्रत्येक शादी को प्रभावित करने वाला हो, वह केवल एक ही पक्ष के हिसाब से बनाने के स्थान पर कोई ऐसा रास्ता निकाला जाना चाहिए जिससे किसी भी पक्ष के अधिकारों का हनन संभव न होने पाए।   

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।