जीवों के प्रति सद्भाव एवं सहानुभूति के भाव का महत्व

              जीवों के प्रति सद्भाव एवं सहानुभूति के भाव का महत्व

एक बार स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, जिस प्राणी के अंदर दूसरों के प्रति सहानुभूति नहीं, फिर चाहे वह सबसे बड़ा विद्वान ही क्यों न हो, कुछ भी नहीं बन सकता। सहानुभूति वह भाव है जो मानवता और कोमलता की पहचान कराता है। ऐसा भाव हमें हमारे तुच्छ स्वार्थों से दूर करता है। सहानुभूति करने वाला व्यक्ति अपनी निजता में अनेक आत्माओं का रूप बन जाता है। जब सहानुभूति के भाव होते हैं तो हम दूसरे की दृष्टि से देखते हैं, दूसरों के हृदय द्वारा अनुभूति प्राप्त करते हैं। हम जब सहानुभूति के महत्व को ठीक तरह से समझ लेते हैं तब ही हम दूसरों के मनोभाव को यथार्थ रूप से समझ सकते हैं और अपना कुछ त्याग करके सच्ची सहानुभूति दे सकते हैं। कोरी सहानुभूति, सहानुभूति नहीं हो सकती। किसी अभावग्रस्त आदि के प्रति सहानुभूति के भाव हमारे हृदय को विशाल बनाने के साथ आत्मिक शक्ति को परिपुष्ट करके मानवता के बीज बोती है। सहानुभूति के अभाव से अभिमान जन्म लेता है और सहानुभूति हमें निजी स्वार्थों और आत्म केंद्रित जीवन से ऊपर उठाती है। सहानुभूति वह पारसमणि है जो हमारे जीवन को स्वर्ग जैसा सुख और आनंद दे सकती है। ऋग्वेद में मानव की सेवा को ईश्वर की सेवा कहा गया है। साधुवाद,

                                                                

स्वामी विवेकानन्दः उक्तवान् आसीत यस्य व्यक्तिस्य परेषां प्रति सहानुभूतिः नास्ति, सः महान् विद्वान् अपि सः किमपि भवितुम् न शक्नोति। सहानुभूतिः मानवतां कोमलतां च परिचययति भावः। एतादृशी भावना अस्मान् अस्माकं क्षुद्ररुचिभ्यः दूरं नयति। सहानुभूतियुक्तो जायते आत्मनः एकान्ते मूर्तरूपः। यदा सहानुभूतिभावनाः भवन्ति तदा वयं परस्य दृष्ट्या पश्यामः, अन्येषां हृदयेन च अनुभवामः। यदा वयं सहानुभूतेः महत्त्वं सम्यक् अवगच्छामः तदा एव वयं परेषां भावानाम् यथार्थतया अवगन्तुं शक्नुमः। वयं स्वस्य किमपि त्यागं कृत्वा यथार्थं सहानुभूतिम् दातुं शक्नुमः। केवलं सहानुभूतिः सहानुभूतिः न भवितुम् अर्हति। आवश्यकतावशात् इत्यादिषु सहानुभूतिभावना अस्माकं हृदयं बृहत्तरं करोति, अस्माकं आध्यात्मिकशक्तिं सुदृढं च करोति, मानवतायाः बीजानि च रोपयति। सहानुभूतेः अभावेन गौरवस्य जन्म भवति तथा च सहानुभूतिः अस्मान् व्यक्तिगतरुचिभ्यः आत्मकेन्द्रितजीवनात् च उपरि उत्थापयति। सहानुभूतिः एव तत् बहुमूल्यं रत्नं यत् अस्माकं जीवनं स्वर्गवत् सुखं आनन्दं च दातुं शक्नोति। ऋग्वेदे मनुष्याणां सेवा ईश्वरसेवा इति उच्यते ।  धन्यवाद!

                                                             

Once Swami Vivekananda had said, a person who does not have sympathy for others, can never become anything, no matter how great a scholar he is. Sympathy is a feeling that makes us recognize humanity and tenderness. Such a feeling takes us away from our petty selfishness. A person who sympathizes becomes the form of many souls in his privacy. When there are feelings of sympathy, we see from the point of view of others, get experience through the heart of others. When we understand the importance of sympathy properly, only then we can understand the feelings of others in a real way. We can give true sympathy by sacrificing something of our own. Mere sympathy cannot be sympathy. Feelings of sympathy towards someone in need, etc., make our heart big and enrich our spiritual power and sow the seeds of humanity. Pride is born from the lack of sympathy and sympathy raises us above personal interests and self-centered life.  Sympathy is the philosopher's stone that can give our life heavenly happiness and joy. In the Rigveda, service to mankind is called service to God. Thanks to you.