राष्ट्रीय जीवन की रक्षा

                                 राष्ट्रीय जीवन की रक्षा

                                                                                                                                                                             प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

भारतीय दर्शन की विशेषता यह है कि विश्व को एक परिवार के रूप में मानता है, जिसमें विभिन्न जातियाँ अपनी-अपनी जीवन-पद्धति के अनुसार जीवन व्यतीत करती हैं। परम्परागत व्यवस्था के अनुसार समाज अपने निवास स्थान के राष्ट्र के साथ एक बंधन विकसित करता है। परस्पर पूरक भावनाओं द्वारा निर्मित इस बंधन से देश एक राष्ट्र में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए हमारा विचार है कि प्रत्येक राष्ट्र की अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं और हम उन्हें बनाए रखना आवश्यक समझते हैं। यह विश्व की प्रगति के लिए भी आवश्यक है। उन्हें एक ही ढाँचे में ढालने का प्रयास करना उचित नहीं होगा।

विश्व की विविधता विश्व की प्रगति के लिए अनुकूल है। यह आध्यात्मिक अनंतता प्राप्त करने की दिशा में एक कदम होगा। यह लगभग आवश्यक है कि सभी राष्ट्र अपनी-अपनी विशेषताओं के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का नेतृत्व करें।

यदि यह विचार न हो और तुच्छ विचार मैत्री बंधन पर हावी हो जाएँ, तो पारस्परिक संघर्ष पैदा होता है। यह आज की व्यवस्था है। ऐसी शक्तियाँ हैं जो संस्कृतियों के बीच भिन्नता को समाप्त करने और अपनी जीवन-पद्धति थोपकर उन पर प्रभुत्व जमाने की महत्वाकांक्षा रखती हैं।  अपने निहित स्वार्थों को निर्विरोध पूरा करने के लिए ये शक्तियां चाहती हैं कि दुनिया का कोई भी देश स्वतंत्र न रहे। इसके परिणामस्वरूप संघर्षों का उदय होता है। संघर्षों के इस माहौल में, हर देश अपनी जीवन शैली और संस्कृति को बनाए रखने और उसकी रक्षा करने के लिए संघर्ष करेगा। यह भी प्रयास किया जाता है कि अन्य शक्तियां उनकी पहचान का संज्ञान लें। ऐसा होने पर अन्य संस्कृतियों को नष्ट करने वाली शक्तियों को दूर रखा जा सकता है। हर परिपक्व राष्ट्र वैश्विक कल्याण के विचार को पोषित कर रहा है और इसे अपनी प्रतिबद्धता मानता है। हमें भी अपने ऊपर डाली गई जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। इसके अलावा हमें दुनिया में वर्तमान संघर्षपूर्ण स्थितियों की पृष्ठभूमि में अपने राष्ट्रीय जीवन की रक्षा करनी होगी।

चरित्र निर्माण

वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है। चारों ओर उलटफेर का बोलबाला है। चरित्र निर्माण की समस्या से हर कोई चिंतित दिखाई देता है। यह प्रक्रिया ऊपर से शुरू होकर नीचे तक पहुँचती है। लेकिन वास्तव में तस्वीर कुछ और ही है। शिक्षा से संपन्न वर्ग को अपने ऊपर डाली गई जिम्मेदारी की कोई परवाह नहीं है। उच्च पद के व्यक्ति चरित्र निर्माण के लिए अपना दिमाग नहीं लगाते हैं, ताकि बेदाग चरित्र का निर्माण हो सके। अगर यही स्थिति रही तो समाज का उत्थान कैसे हो सकता है? राष्ट्र की प्रगति कैसे हो सकती है? राष्ट्र का कल्याण कैसे हो सकता है? सभी का कल्याण कैसे हो सकता है? शांतिपूर्ण और समृद्ध जीवन कैसे हो सकता है?

कामुकता और शारीरिक भावनाएँ बहुत तेज़ी से फैल रही हैं। ऐसे में छात्रों में चरित्र निर्माण की समस्या विशेष महत्व रखती है। लेकिन कोई भी इसकी परवाह नहीं करता। अगर हम ध्यान से देखें तो पाते हैं कि आजादी के 75 वर्षों बाद हमारी शिक्षा प्रणाली में उचित मूल्यों को शामिल करने के लिए कुछ विशेष प्रयास किए गए हैं। अन्यथा एजेंडे में कहीं भी राष्ट्रवाद की भावना नहीं दिखती, उन्हें राष्ट्र की स्थिति का कोई अनुभव नहीं है।  वे राष्ट्रीय नेताओं की जीवनियाँ नहीं पढ़ते, वे महापुरुषों और उनके दर्शन के बारे में अनभिज्ञ हैं।

यदि आप उनसे हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में पूछें तो उन्हें इसके बारे में कुछ भी पता नहीं है, वे वहाँ से कोई रोमांचक घटना नहीं सुना सकते। शिवाजी के इतिहास के वृत्तांत में पवनखिंड के युद्ध को ही लें। यह भक्ति और देशभक्ति से भरा एक मनमोहक प्रसंग है। जब मैं छात्रों के एक समूह को यह बता रहा था, तो मुझे कोई उत्साह, गर्व या रोमांच की अभिव्यक्ति नहीं दिखी। यह स्पष्ट था कि उन्हें इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। उनमें से एक को इसके बारे में जानने की जिज्ञासा थी। जब मैंने पवनखिंड का एक प्रसंग सुनाया तो वह चकित होकर बोला कि हमारे इतिहास में भी ऐसे रोमांचक युद्ध हुए हैं! वह ग्रीस में थर्माेपाइल के युद्ध के बारे में जानता था, लेकिन पवनखिंड के बारे में कुछ नहीं जानता था।

यह जानकर दुख हुआ कि उन्हें हमारे अपने इतिहास की महान और गौरवपूर्ण घटनाओं के बारे में जानकारी का घोर अभाव था। ये युवक राष्ट्रीय भवन की आधारशिला कैसे सिद्ध होंगे?

स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन

किसी भी राष्ट्र की मजबूत नींव मजबूत शरीर वाले छात्रों पर निर्भर करती है। किसी भी राष्ट्र की भव्य संरचना मजबूत शरीर वाले युवाओं के मजबूत स्तंभों पर खड़ी होगी। इसलिए युवाओं की अच्छी शारीरिक स्थिति का मुद्दा एजेंडे में प्रमुख स्थान पर होना चाहिए। उन्हें भारी जिम्मेदारियों को उठाने की स्थिति में होना चाहिए। उन्हें बेदाग दिमाग और तेज बुद्धि से भी संपन्न होना चाहिए। इन सभी क्षमताओं को व्यवस्थित रूप से विकसित किया जाना चाहिए। एक तीक्ष्ण बुद्धि, विविध ज्ञान, मजबूत और स्वस्थ शरीर और संवेदनशीलता हमारी भावी पीढ़ी के आदर्श हैं। उन्हें सर्वांगीण ज्ञान और जानकारी होनी चाहिए और उन्हें राष्ट्रीय विरासत पर गर्व होना चाहिए।

युवाओं से एक सवाल पूछने पर कि “आप अपने शरीर निर्माण के लिए क्या प्रयास कर रहे हैं?” शायद ही कभी इस सवाल का सकारात्मक तरीके से जवाब दिया जाता है। मैं समझता हूं कि क्या कमजोर शरीर के साथ मैं उस उद्देश्य में अपना योगदान दे पाऊंगा, जिसके लिए मैं प्रतिबद्ध हूं? मैं सोचता हूं कि अगर हम अपने शरीर को मजबूत नहीं बना सकते, तो हम देश के लिए कैसे प्रयास कर सकते हैं? अगर शरीर सीधा खड़ा नहीं हो सकता, अगर हममें कुछ कदम चलने की भी ताकत नहीं है, तो शरीर काम करने से मना कर देगा। ऐसी स्थिति में हम देश के लिए कैसे काम कर सकते हैं? वास्तव में हमारा शरीर हमारे भौतिक और आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का साधन है।

चरित्र निर्माण की नींव - देशभक्ति

शारीरिक तंदुरुस्ती के साथ-साथ चरित्र का भी विकास होना चाहिए। निःस्वार्थता, सादा जीवन, उच्च विचार, त्याग, परिश्रम जैसे गुणों को अपने अंदर विकसित करना चाहिए। अच्छा नैतिक चरित्र आपको देशभक्ति के गहन चिंतन से शक्ति प्रदान करता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को जीवन के स्वीकृत तरीके से विचलित नहीं होने देती। हृदय की गहराई में मातृभूमि के प्रति प्रेम हमेशा सद्गुणों को प्राप्त करने में सहायक होगा। चिंतन की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।

मातृभूमि के प्रति समर्पण एक मजबूत नैतिक चरित्र में प्रकट होता है। विभिन्न माध्यमों और कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी मातृभूमि के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और दूसरों के साथ साझा करना चाहिए। पाठ्यक्रम के दौरान हमे अपने राष्ट्रीय आदर्शों के महान कार्यों से अवगत कराया जाना चाहिए । यह हमें अच्छे नैतिक चरित्र के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा और साधन प्रदान करता है।

मेरा मानना है कि विद्यालय नैतिक चरित्र के विकास पर जोर दें। बच्चों के सामने आदर्श प्रस्तुत करना आवश्यक होगा। हमें इस ओर ध्यान देना होगा। समाज में भ्रष्टाचार की बीमारी व्याप्त है। बड़े-बड़े लोग भी स्वच्छ जीवन से कोसों दूर नजर आते हैं। सामाजिक जीवन में नैतिक पतन छाया हुआ है। इसका दायरा इतना बड़ा है कि इसका जिक्र भी नही किया जा सकता। यह स्पष्ट है कि विभिन्न विज्ञापनों के द्वारा मनुष्य में कामुक भावनाएं जगाने और नैतिकता के मार्ग से भटकाने का प्रयास किया जाता है।

भ्रष्टाचार और लालच का सामना

भ्रष्टाचार बहुत तेजी से फैल रहा है और हर जगह व्याप्त है। यह एक अलग तरह का भयंकर आक्रमण, अत्याचार है। गोली या अन्य हथियारों से तो बचा जा सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार की बुराई रिश्वत, उच्च पद आदि के रूप में अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल करती है। भ्रष्टाचार के इन जालों का मुकाबला करना एक कठिन काम है। इसलिए हमें लालच से खुद को बचाना होगा। हमें भ्रष्टाचार के जाल में फंसाने के इन प्रयासों को पहचानना होगा।

हमें इसके शिकार होने से इनकार करने का साहस हासिल करना होगा। किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में उठाए जाने वाले संदेहों को देखते हुए, इससे अप्रभावित रहने के लिए मानसिक शक्ति विकसित करना उचित है।

 किसी व्यक्ति को भ्रष्ट करने के लिए पद और प्रसिद्धि के प्रस्तावों का कितनी कुशलता से इस्तेमाल किया जाता है यह हम देखते हैं। लेकिन इस समस्या के मूल में देखें तो अपना समाज ही है जो केवल आर्थिक उन्नति को ही सम्मान प्रदान करता है चाहे वह उन्नति भ्रष्टाचार जैसे अनैतिक मार्ग से ही आई हो। सरकारें तंत्र तो बना सकती हैं लेकिन उस तंत्र में बैठा व्यक्ति जिस परिवार और समाज द्वारा निर्मित किया गया है उसके लिए भ्रष्टाचार पाप नहीं लगता । अतः हमे समाज को ऐसा बनाना होगा जो भ्रष्टाचार को पाप समझे और इसके लिए हमे ही प्रयास प्रारम्भ करना होगा।

राष्ट्र सेवा का संकल्प

व्यक्ति को लुभाने के अनेक तरीके हैं। हमे आशा करनी चाहिए है कि उच्च पदस्थ व्यक्ति चापलूसी की प्रशंसा और प्रशंसा के बहकावे में नहीं आएंगे। वे इस तरह के अभ्यास के उद्देश्यों को जानेंगे और इस जाल में नहीं फंसेंगे। उन्हें अपनी सोच पर दृढ़ रहना चाहिए।

लालच और प्रलोभन देने वाले लोग दुनिया में हर जगह पाए जाते हैं। लेकिन आपकी दृष्टि धुंधली है और आप अपने आस-पास के चापलूसों के प्रभाव के कारण स्पष्ट रूप से समझने में विफल रहते हैं। स्वाभाविक रूप से आप वास्तविकता से दूर हो जाते हैं। इसलिए युवाओं को लुभाने के साधनों और उन्हें नकारने के साधनों की पहचान करने के लिए प्रशिक्षित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। व्यक्ति का अच्छा नैतिक चरित्र ही उसे भ्रष्ट हुए बिना सही रास्ते पर रख सकता है।

प्रत्येक छात्र में मातृभूमि की सेवा करने की इच्छा होनी चाहिए। उसे ज्ञान के स्रोत को मजबूत करने में योगदान देना होगा। उसे विकास के नए रास्तों का संज्ञान लेना होगा और उनसे परिचित होकर आगे बढ़ना होगा।  इसलिए यह आवश्यक है कि यह विद्यालय भगवान कृष्ण की शिक्षाओं का पालन करे। आज का अवसर एक नए आवासीय विद्यालय के शिलान्यास का है। हमे प्रयास करना होगा कि विद्यालय धर्म, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति समर्पण के महान मूल्यों को विकसित करने में सक्रिय रहते हुए सभी दिशाओं में प्रगति करें।

शैक्षिक प्रणाली में सुधार

हमारे विद्यार्थियों को हमारे अपने इतिहास की महान घटनाओं से परिचित नहीं कराया जाता। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यह युवा पीढ़ी विकृत और अश्लील साहित्य पढ़ने में रुचि दिखाती है, क्योंकि वे किसी महान आदर्श से प्रेरित नहीं होते।

सही पाठ्य पुस्तकें कबाड़खाने में डाल दी जाती हैं, दूसरी ओर गाइड और कुंजियों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। कोचिंग कक्षाएं परीक्षा में सफलता का शॉर्टकट पेश करती हैं। इस गलत प्रथा ने युवा पीढ़ी में समझने की क्षमता और संसाधनों की पूर्णता के विकास को रोक दिया है। वास्तव में प्रत्येक शिक्षक को यह विचार करना चाहिए कि जब उसके विद्यार्थी कोचिंग कक्षाओं की मदद लेते हैं तो यह उसकी बुद्धि और क्षमता का अपमान है। इसके विपरीत कई शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों पर अपनी ट्यूटोरियल कक्षाओं में शामिल होने का दबाव डालते हैं। इससे नैतिक पतन के बीज बोए जाते हैं। वे परीक्षाओं में सफल होने के लिए आसानी से संदिग्ध तरीकों को अपना लेते हैं। यह नैतिक चरित्र के अभाव में होता है।

इसकी शुरुआत प्राथमिक शिक्षा से ही करनी होगी। सुसंस्कृत मस्तिष्क विकसित करने के लिए बच्चों को राष्ट्रीय व्यक्तित्वों के महान जीवन से परिचित कराना चाहिए। उन्हें प्राचीन ऋषियों के वंशज होने पर गर्व करना सिखाना चाहिए। यह सिखाया जाना चाहिए कि सभी को हिंदू की तरह व्यवहार करना चाहिए और दिखना चाहिए। दुनिया को हमें हिंदू के रूप में पहचानना चाहिए। वास्तव में जब हमारे पास आत्म-सम्मान होगा, तो दूसरे हमारा सम्मान करेंगे। आप दुनिया से सम्मान के पात्र होंगे। हमें अपनी जीवन शैली को प्रकट करना चाहिए और किसी भी गुणहीन व्यक्ति की कार्बन कॉपी नहीं बनना चाहिए।

वर्ष 1872 में एडिनबर्ग रिव्यू ने एक लेख प्रकाशित किया जिसमें कहा गया था कि हिंदू राष्ट्र सबसे प्राचीन राष्ट्र था और यह ज्ञान, करुणा और पवित्रता के गुणों के साथ सबसे महान था। लेकिन हम झूठे प्रचार के संपर्क में आकर इस महान विरासत से विस्मृत हो गए हैं। मिट्टी में मजबूत जड़ों के बिना जाति उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद नहीं कर सकती।

विद्यालय का माहौल बदलें

एक स्कूल की गैलरी में बहुत से चित्र लगे थे। लेकिन हमारे इतिहास या महाकाव्यों के किसी भी नायक का एक भी चित्र नहीं था। हेडमास्टर से पूछने पर कि “इन चित्रों से बच्चों के सजने-संवरने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हल्दीघाटी और पानीपत की लड़ाई के चित्र क्यों नहीं हैं?” उनका उत्तर था, “हमें अपनी दृष्टि को केवल अपने देश की सीमाओं तक सीमित नहीं रखना चाहिए।” इसी तरह की सोच के तहत पंडित नेहरू ने कहा था कि “हमारी खिड़कियां खुली होनी चाहिए ताकि दुनिया भर से हवा आ सके।” तब श्री गुरु जी का जवाब था कि आज जो हो रहा है, वह खिड़कियां खोलने के बजाय दीवारें गिराना है और अंततः छत हमारे सिर पर गिर जाएगी। अंतर्राष्ट्रीयता और झूठे आदर्शों के विकृत विचार युवा पीढ़ी के दिमाग पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं।

जब तक आपके पास एक ठोस राष्ट्रीय आधार नहीं होगा, अंतर्राष्ट्रीयता पर निर्भरता खतरों को जन्म देगी। मानव जाति का सर्वाेच्च भला हमारे राष्ट्रीय गौरव और विरासत में प्रकट होता है। मानवीय मूल्य उसी से समृद्ध होंगे।

एक पोस्टर में लिखा था, “सीखते हुए कमाओ” हमारा दृष्टिकोण बिल्कुल अलग है। हम कहते हैं, “कमाते हुए सीखो”। हम मानते हैं कि व्यक्ति को जीवन भर सीखते रहना चाहिए। यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने सामने जीवन का कौन-सा लक्ष्य रखते हैं। पश्चिमी देश अब भौतिकवाद से परे अध्यात्म की ओर झुके हुए दिखाई दे रहे हैं। दुर्भाग्य से हम भौतिकवादी तरीकों की वेदी पर अध्यात्म की बलि चढ़ा रहे हैं। हमें कुछ बुनियादी बातों को स्वीकार करना होगा। हमें अपना अंतिम लक्ष्य उस आत्मा की प्राप्ति के रूप में स्वीकार करना चाहिए जो सजीव और निर्जीव जगत में सर्वव्यापी है। कई तरीके हैं लेकिन सामान्य नियम से हम बच सकते हैं कि इच्छाओं पर उचित नियंत्रण करके अरुचिकर भोगों से बचने का प्रयास किया जाना चाहिए।

योग अनुशासन के कई नियम निर्धारित करता है। व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि छात्र यम और नियम (जीवन के नियम और विनियम) के विभिन्न तरीकों को सीख सकें। वर्तमान शिक्षा प्रणाली केवल अल्प जानकारी प्रदान करती है और केवल आजीविका कमाना सिखाती है।

संस्कृत भाषा, सीखने में आसान

संस्कृत शिक्षा प्रदान करने की प्रणाली में कई कमियाँ हैं। स्नातक स्तर पर छात्रों को संस्कृत में बातचीत करने में सक्षम बनाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए जाते हैं। बेशक अंग्रेजी के मामले में ऐसे प्रयास किए जाते हैं। यहां तक कि संस्कृत में पीएचडी के लिए थीसिस भी अंग्रेजी में लिखे गए। ये विद्वान मुश्किल से संस्कृत में दस वाक्यों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।

एक गाइड ने बताया कि अगर थीसिस अंग्रेजी में नहीं है तो उसकी प्रस्तुति पर विचार नहीं करेंगे। उनसे पूछा गया कि, “क्या किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई अंग्रेजी पर थीसिस स्वीकार की जाएगी?” उन्होंने कहा कि वे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आगे बताया कि “लैटिन में डॉक्टरेट की पढ़ाई करने के इच्छुक किसी भी छात्र को, जो इंग्लैंड की मूल भाषा है, न केवल लिखने, पढ़ने में सक्षम होना चाहिए, बल्कि उसे बातचीत का ज्ञान और कविताएँ लिखने की क्षमता भी होनी चाहिए”।

मुंबई के माध्यमिक विद्यालयों में विज्ञान या संस्कृत में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाता था। क्या यह संस्कृत के अध्ययन को बढ़ावा देने का एक तरीका हो सकता है? यह स्पष्ट है कि छात्र विज्ञान का विकल्प चुनेंगे। लैटिन से अधिक उन्नत कई यूरोपीय भाषाएँ हैं, लेकिन लैटिन की उपेक्षा नहीं की गई है। 2021 मे द गार्डियन में समाचार प्रकाशित हुआ की राज्य के माध्यमिक विद्यालयों में लैटिन पढ़ाई जाएगी। हम राष्ट्रीय एकता में संस्कृत के महत्व को नहीं पहचानते। हम भारतीय भाषाओं के विकास के लिए उचित रूप से प्रतिबद्ध नहीं हैं। यह हमारी मूर्खता है। स्वतंत्रता से पहले, राव बहादुर केलकर मध्य प्रदेश में शिक्षा मंत्री थे। कार्यभार संभालते ही उन्होंने निर्देश दिया कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी और मराठी होना चाहिए।

लोक शिक्षण के एक अंग्रेज निदेशक इस पर काफी नाराज हुए और उन्होंने प्रस्ताव का विरोध किया। लेकिन श्री केलकर अपने फैसले पर अडिग रहे। उन्होंने अंग्रेज अधिकारी को स्पष्ट रूप से बताया कि “आप मेरे अधीनस्थ अधिकारी हैं। आपको मेरा आदेश मानना होगा”। कुछ अन्य अधिकारियों ने विचार व्यक्त किया कि हिंदी और मराठी में पाठ्य पुस्तकों का निर्माण आसान नहीं था। लेकिन श्री केलकर अपने फैसले पर अडिग रहे। उन्होंने सभी बाधाओं को दूर किया और तदनुसार एक नई नीति लागू करने का आदेश दिया। छात्रों ने उत्साहपूर्वक हिंदी और मराठी माध्यम में अपनी शिक्षा शुरू की। तदनुसार पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित की गईं। नई शिक्षा नीति एक बड़ी सफलता थी।

शिक्षा के प्रति हिन्दू दृष्टिकोण

आधुनिक शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य व्यक्ति के भीतर छिपे गुणों का विकास करना है। कुछ हद तक यह नीति कारगर भी रही है। आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों ने कला और विज्ञान के क्षेत्र में अनेक उपलब्धियाँ हासिल की हैं। लेकिन हमारे देश में विद्यार्थियों के मस्तिष्क में केवल जानकारी ही भरी जाती है। शिक्षा का उद्देश्य यह नहीं है। शिक्षा का हिन्दू दृष्टिकोण हमें और आगे ले जाता है। यह केवल छिपे हुए गुणों के विकास तक सीमित नहीं है। हमारे लिए जीवन जुनून और वासना का एक पुलिंदा नहीं है। हमारे भीतर शाश्वत सत्य का एक तत्व है। उसका प्रकटीकरण और बोध ही शिक्षा का उद्देश्य है।

महान ऋषियों ने इसकी सिद्धि के लिए उचित दिशा-निर्देश निर्धारित किए हैं। उन्होंने शिक्षकों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी डाली है। शिक्षक को अपने विद्यार्थियों को यम और नियम के दस सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करना होता है। बाइबिल की दस आज्ञाएँ भी पाँच यम और पाँच नियम के समान ही हैं। यदि इन्हें प्रारंभिक स्कूली शिक्षा में शामिल किया जाए तो इससे एक स्वस्थ वातावरण बनेगा और अंततः अन्य लोग भी इसका अनुसरण करेंगे।

बच्चों को ये आज्ञाएँ सुस्वादु तरीके से सिखाई जानी चाहिए। स्कूल के दिनों में एक अध्यापक ने बहुत ही स्पष्ट तरीके से पुराणों की कहानियाँ सुनाई जिसका विद्यार्थियों के मन पर बहुत अच्छा प्रभाव रहा वे दृष्टांत थे और उनमें नीतियाँ थीं। ऐसी शिक्षा से उज्ज्वल परम्पराएँ और उच्च नैतिक चरित्र का निर्माण होता है और व्यक्ति अद्वितीय ऊँचाइयों पर पहुँचता है। अंग्रेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। फ्रांस में परमाणु ऊर्जा पर एक सम्मेलन में, विभिन्न देशों के कई प्रतिनिधियों ने अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए संबोधित किया, लेकिन केवल छह प्रतिनिधियों को अंग्रेजी का ज्ञान था, इनमें से इंग्लैंड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और भारत से एक-एक और अमेरिका से दो थे।

दिल्ली में एक सम्मेलन हुआ। पंद्रह सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उनमें से कितनों को अंग्रेजी का ज्ञान था? बहुत कम। विश्व के अनेक देश ऐसे हैं जहां पढ़े लिखे लोगों को भी अंग्रेजी नही आती है।यदि क्षेत्रीय भाषा के साथ-साथ हिंदी भी पढ़ाई जाए तो लाभ होगा। सभी भाषाओं में तकनीकी शब्दावली एक जैसी होनी चाहिए। इससे तकनीकी विषयों की पढ़ाई में सुविधा होगी।

अच्छी बात यह है की नई शिक्षा नीति में इस दिशा में प्रयास प्रारंभ हो गया है, अब कुछ विश्विद्यालयों में इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई भी मातृ भाषा में प्रारंभ होना एक अच्छे परिवर्तन की शुरुआत है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।