असुरक्षित जीवन जीने की मजबूरी

                                असुरक्षित जीवन जीने की मजबूरी

                                                                                                                                                                  डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 वर्षा रानी

“वर्तमान दौर में भारतीय असुरक्षित जीवन जीने और हादसों के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं।“

इसी के कारण तो अब आए दिन देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई बड़ी दुर्घटना होती ही रहती हैं। लेकिन इन घटनाओं से न तो जनता जागरुक होते दिखाई देती है और न ही सरकार द्वारा सुरक्षित जीवन मुहैया कराने के लिए कोई ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। हालिया घटनाओं को देखकर लग रहा है जैसे मनुष्य के जीवन का कोई मोल ही नहीं है यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का जोर नहीं चलता परन्तु मनुष्य द्वारा निर्मित घटनाओं को तो सख्त कानून और नियमों के द्वारा रोका जा सकता है।

                                                           

लेकिन शायद सरकारें इस बात को लेकर निश्चित है कि मौत तो एक अटल सत्य है। इसलिए आम जन के सुरक्षित जीवन जीने के अधिकार को लेकर कोई गम्भीरता नहीं दिखाई जाती है। वैसे तो जीवन जीने की स्वतंत्रता, भारतीय संविधान देता है और सुरक्षित जीवन जीने योग्य वातावरण निर्मित करना सरकार को जिम्मेदारी है। फिर चाहें वह केंद्र की सरकार हो या राज्य की सरकार, लेकिन वास्तविकता इसके बहुत इतर है। लापरवाही की आग, लगातार लोगों को अपने आगोश में ले रही है और जिम्मेदार लोग हैं, जो तमाशबीन ही बने हुए हैं।

गत दिनों गुजरात के राजकोट गेम जोन में भीषण आग लगने से 12 बच्चों समेत 28 लोगों की जान गई। बताया जा रहा है कि छुट्टी का दिन होने के कारण इस गेम जोन में भारी भीड़ मौजूद भी जारी वेल्डिंग की एक चिंगारी की वजह से यह हादसा हुआ। वहां मौजूद ज्यादातर सामग्रियां ज्वलनशील थीं, बावजूद इसके यहां आगजनी सम्बंधित अनापत्ति प्रमाणपत्र तक नहीं लिया गया था। इस हादसे का दर्द अभी कम हुआ भी नहीं था कि पूर्वी दिल्ली के विवेक बिहार बेबी डे केयर हॉस्पिटल में आग लगने से 7 नवजात बच्चों की मौत हो गई। जबकि 7 से ज्यादा मासूम बच्चे इस आग में बुरी तरह झुलस गए।

                                                             

विडंबना देखिए कि जिन अस्पतालों में मरीज अपना इलाज करने और सेहतमंद होने के लिए के लिए आते हैं, वहां अगर इंसानों की मौत होने लगे, तो भला इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है? दिल्ली फायर सर्विस के अधिकारी की मानें तो साल 2020 में दिल्ली के 30 अस्पतालों में आग लगने की घटनाएं हुई। जबकि साल 2023 में 36 अस्पतालों में आगजनी हुई। चालू वर्ष 2024 की बात करें तो अब तक करीब 11 हॉस्पिटल्स में आगजनी की घटनाएं सामने आ चुकी है और लगतार होने वाली आगजनी की घटनाओं के बावजूद सरकार काफी उदासीन ही नजर आ रही है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों की मानें तो साल 2020 में देश में हर दिन 35 लोगों ने आग से जुड़े हादसों में अपनी जान गंवाई है। एक के बाद एक हुई त्रासदियों ने चाहे वह एंटरटेनमेंट पार्क हो या फिर कोई अस्पताल। ऐसे हादसों की एक बड़ी वजह लापरवाही और खामियां ही होती है। इन सबके बावजूद शासन प्रशासन हादसों के बाद कार्रवाई करने की बात तो जरूर करते है, लेकिन हकीकत में स्थिति ता वही ढाक के तीन पात वाली कहावत को चरितार्थ करती है। एंटरटेनमेंट पार्क में, शॉर्ट-सर्किट को आग लगने का कारण माना गया, जबकि अस्पताल कथित तौर पर अवैध लाइसेंस के बिना चल रहा था।

भारत में अक्सर खराब कंस्ट्रक्शन, वर्क स्पेस, सेफ्टी मानकों के लिए खराब रिकॉर्ड और सुरक्षा नियमों के पालन में कमी के कारण आग लगने की घटनाएं, सामने आती ही रहती हैं। इस तरह की लापरवाही कितनी बड़ी है इसका अंदाजा आप हालिया हादसे में सामने आई कई नियमों के उल्लंघन से ही लगा सकते हैं। अस्पताल का नो आब्जेक्शन सर्टिफिकेट यानी एनओसी 31 मार्च को ही समाप्त हो गया था और तो और नर्सिंग होम को सिर्फ 5 बेड की परमिशन थी जबकि एक साथ 25-30 बच्चों को भर्ती किया जा रहा था।

                                                                             

कभी रिहायशी इलाके में बारूद फैक्ट्री में आग तो कभी बहुमंजिला इमारतें धूं धूं कर जल उठती है। मॉल, सिनेमाहॉल, पार्क या फिर अस्पताल जहां भी देखो आग का तांडव शुरू हो जाता है। लापरवाह अफसर कभी रूपयों की गर्मी देखकर पिघल जाते हैं तो कभी किसी रसूखदार नेता के दबाव के चलते अवैध निर्माण को परमिशन दे देते हैं। फिर ऐसे हादसों में आम आदमी मरता है, घायल होता है या फिर अपाहिज होकर जीवन जीने को मजबूर हो जाता है। जबकि अधिकारी वर्ग पुख्ता कार्रवाई करने की बजाए दोषियों को बचाने की कवायद में जुट जाता हैं।

गैर इरादतन हत्या के आरोपों में गिरफ्तार दोषी चंद मिनट में ही अपने घर पहुंच जाते हैं। सरकारें झूठी संवेदनाएं व्यक्त करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं और कुछ सुरक्षित नहीं बचता तो जीवन जीने की संवैधानिक स्वतंत्रता और अपनों का जीवन।

लेखकः प्रोफेसर राकेश सिंह सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।