बेहद घातक है पशुओं को दुहने के लिए लगाया जाने वाला इंजेक्शन

          बेहद घातक है पशुओं को दुहने के लिए लगाया जाने वाला इंजेक्शन

चाहे कोई पशु हो या फिर मानव सभी में दूध उतरने की प्रक्रिया उसके नाड़ी तंत्र की उत्तेजना पर आधारित एक प्रक्रिया होती है। पशुओं में जब बच्चे अपनी मां के थनों को चूसते हैं, रंभाते हैं, उनके थन को ग्वाला सहलाता है अथवा उसे दूहने वाली बाल्टी की खनक सुनाई देती है तो पशु दूध का स्रवण करता है। वास्तव में, पशु के थनों में विद्यमान तंत्रिकाएं उनके मस्तिष्क में स्थित हाइयोथैलस को स्क्रीन प्रदान करता है और इसके प्रभाव से ही पिटयूटरी ग्रंथि से ऑक्सीटोसीन का स्राव होकर वह उसके रक्त में मिश्रित हो जाता है। परिणामस्वरूप अयन में स्थित दुग्धकुप की मांसपेशियां सिकुड़ने लगती हैं और अयन पर दबाव में वृद्वि होने से पशु के थनें में दूध उतर आता है। उक्त हार्मोन इस पूरी प्रक्रिया के दौरान केवल 5-7 मिनट तक ही जारी रखता है और इसके बाद पुनः अपनी पुरानी अवस्था में वापिस लौट आता है। वर्तमान समय में इसके एक विकल्प के रूप में ही बाजारू इंजेक्शन का भरपूर उपयोग किया जा रहा है।

                                                                                        

हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के महानगरों में 40 से 60 प्रतिशत पशुओं का दूध यह इंजेक्शन लगाकर ही निकाला जाता है। कहने का अर्थ यह है कि औसतन प्रत्येक दूसरे पशु का दूध बिना उसके बच्चे के ही इंजेक्शन लगाकर निकाला जाता है। हालांकि इंजेक्शन लगाने से दोहन की समस्या तो हल हो जाती है परन्तु इस इंजेक्शन के कुप्रभावों को नजरन्दाज कतई नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका प्रयोग दैनिक उपयोग के लिए नहीं किया जा सकता, बल्कि महज चिकित्सीय कार्यों या विषम परिस्थितियों के लिये ही यह मान्य होता है। रपन्तु वर्तमान समय में प्रत्येक पशुपालक इन हार्मोन युक्त इंजेक्शन के प्रति आकृष्ट हो रहे हैं, जबकि उन्हें इससे होने वाले हानि-लाभ का थोड़ा भी ख्याल नहीं है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक नियमित इंजेक्शन लगाकर दूध निकालने से दूध में पशु के रक्त और अस्थियों के घटक स्रावित होते है। ऐसे दूध के सेवन करने से गर्भवती माताओं के गर्भ में पल रहे बच्चे पर भी बहुत घातक प्रभाव पड़ता है। जन्म लेने वाली संतान विकृति तक का शिकार भी हो सकती है और गर्भवती महिलाओं को गर्भपात भी हो सकता है। साथ ही शिशुओं के वृद्धि एवं विकास पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों की आशंका भी व्यक्त की जाती रही है।

                                                                            

दरअसल, दूध उतारने वाले इस प्रकार के इंजेक्शन अपने कई बाजारू नामों से ३० पैसे से लेकर २ रुपये तक में अधिकांश मेडिकल स्टोर्स पर सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। जिसका उत्पादन तमाम कम्पनियों के द्वारा किया जाता है और आक्सीटोसिन के नाम से आम लोगों को बड़ी सरलता से उपलब्ध हो जाता है। साधारणतया प्रत्येक एमयूल (शीशी) में एक से दो मिलीलीटर दवा मौजूद होती है । जबकि प्रत्येक एमयूल पर केवल चिकित्सीय उपयोग हेतु चेतावनी भी छपी होती है। परन्तु इन इंजेक्शनों के खुलेआम उपयोग अथवा बिक्री पर कोई प्रतिबन्ध न होने से पशुपालक आसानी से लाकर इसका प्रयोग करते है। दिनों दिन इसका प्रचलन तेजी के साथ शहरी एवं ग्रामीण पशुपालकों में अपने पैर पसार रहा है।

                                                                         

भारतीय पशुचिकित्सा अनुसंधान संस्थान (बरेली), राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (करनाल) एवं लखनऊ के केन्द्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान तथा भारतीय अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के. मत के अनुसार हार्माेन युक्त ऐसे तमाम इंजेक्शनों के रोक लगायी जानी चाहिए अन्यथा इससे कवल मानव का स्वास्थ्य ही नहीं अपितु पशु स्वास्थ्य भी प्रभावित होगा। इंजेक्शन लगाने से सम्बन्धित पशु का शत-प्रतिशत दूध उसकी दुग्ध कोशिकाओं से बाहर आ जाता है। ऐसे में पशुपालकों की यह धारणा कि बिन बछड़े का तथा बिना या खली और दानें के ही पशु कम खर्च में पूरा दूध देता है तो फिर वह दूध उतारने के लिये अन्य किसी विधि का प्रयोग ही क्यों करें ? बरबस तीस पैसे के इंजेक्शन के प्रति आकर्षित होर उसका चयन कर लेते हैं।

ब्हुधा इस प्रकार की मानसिकता से ग्रस्त पशु पालक अच्छे एवं जवान पशु बाहर से खरीद लेते हैं और एक ही ब्यांत में अपनी आधे से अधिक पूँजी को निकालने के लिए आतुर रहते हैं।

बार-बार इंजेक्शन लगाने से पशु को उसकी आदत हो जाती है। पोषणहीनता या पोषण के सम्बन्ध में पोषण वैज्ञानिकों का कहना है कि इंजेक्शन परिणामस्वरूप पशु जर्जर हो जाता है।  प्रत्येक दुधारू पशु अपने शरीर के कुल सार का पाँच से पन्द्रह गुना सूखा पदार्थ पैदा करता है, जो उसके खान पान के माध्यम से उपलब्ध होता है। अधिकाधिक दूध की लालच पशु पालक उन्हें काफी जर्जर बना देते हैं जब उन्हें दाना डालने के लिये देशी पशुओं को ढलने लायक बनाया जाता है। नवीन जानकारी यह इंजेक्शन के प्रभावों के तहत यह ज्ञात हुआ है कि पहाड़ी क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ इंजेक्शन का प्रयोग किया जा रहा है वहां पशुओं से निकलने (प्रोप्स) की समस्याएँ अधिक घटित हो रही है। वैज्ञानिकों की धारणा है कि प्राकृतिक ढंग से स्त्रावित होने वाले हामान की पूरी प्रक्रिया इंजेक्शनों के प्रयोग से चरमरा उठती है और मादा के प्रजनन तंत्र में तेजी के साथ खिंचाव पैदा होने से उसका जेर बाहर निकल आता है।

चूंकि पशुओं में दूध उतरना एक अति संवेदनशील प्रक्रिया है। वस्तुतः दर्जनो कारक दुग्धस्राव तथा दूध के भौतिक एवं रासायनिक गुणों को प्रभावित करते हैं जै कि पशु की जाति, नस्ल, व्यक्तित्व, आयु ब्यांत, बीमारी, भूख-प्यास, शरीर का आकार, दतापक्रम और पोषाहार आदि। परन्तु ऐसा देखा गया है कि कुछ कारक अधिक प्रभावी एवं संवेदनशील होते हैं।

उदाहरण के लिए पशुओं के दूध में गन्ध आने लगती है और साल सिन्धी गाय के दूध में पिगमेन्ट अधिक होता है।

अहम सवाल यह है कि क्या इंजेक्शन लगाकर दूध दुहने की स्थिति में पशु का स्वास्थ्य और दूध की गुणवत्ता प्रभावित नही होती है। राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान करनाल के पशु शरीर क्रिया वैज्ञानिक डा० आर. एस. सुदरी के अनुसार आक्सीटोसीन एक इण्टरनेशनल यूनिक से कम मात्रा में इंजेक्शन लगाना चिकित्सकीय उद्देश्य से सुरक्षित है। अधिक मात्रा में एवं अधिक दिनों तक लगातार प्रयोग करने से पशु की शारीरिक प्रक्रिया में असंतुलन पैदा करने लगता है।

                                                                          

दूध दुहने के लिए इंजेक्शनों का ब्यांत में आधे से अधिक पूंजी निकालने के लिए आतुर रहते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार बाहर से खरीद कर लाते हैं और एक ही इंजेक्शन लगाने से १०-१२ प्रतिशत दूध उन्हें अतिरिक्त मिल जाता है अर्थात ३० पैसे के खर्च से १५-२५ रुपये का प्रतिदिन मुनाफा होता है। दूध भी बिन बछड़े का पूरा उत्तर जाता है और परेशानी भी नहीं होती है। इसका मतलब यह है कि उन्हें यह गम नही रहता है कि अगले ब्यांत में पशु दूध देगा या नहीं या पशु कमजोर हो चाहिए या वह पशु उन्हें एक व्यति में दे चुका होता है। अगले ब्यांत में वे उसे बेचकर दूसरा दूध दे रहा पशु लाते हैं और रहा है या जर्जर, पशुपालको को कोई चिन्ता नहीं रहती है क्योंकि जो कुछ उन्हें यही प्रक्रिया जारी रखते हैं। लेकिन इसका परिणाम या तो वह मवेशी भुगतता है या विवश होकर कसाईखाने कटने के लिए जाना पड़ता है।

कुछ विशेषज्ञों के द्वारा यह अनुमान लगाया जा रहा है कि इन इंजेक्शन का प्रयोग करना पशुओं के लिए एक अभिशाप सिद्ध हो सकता है। पशुओं के एक विशाल जत्थे पर इसका प्रयोग यदि बढ़ता रहा तो देशी दुपारू पशु तेजी से अनोत्पादक होगा। ऐसी दुःखद स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। इस परिस्थिति में भारतीय पशुधन को पुरातनकाल से पाले जा रहे विशिष्टतम और अनुकूलतम वस्ता के कारण जाने गुण सम्पन्न देशी पशु यदि भिन्न-भिन्न पहचाने जाते रहे हैं तो उनकी ये विशेषताएं स्थानों पर अपने कार्य क्षमता, उपयोगिता सदैव के लिये गुम हो जायेंगी। विदेशी नस्ल के संकर प्रजाति के पशुओं के कूल्हे नही होते और उन्हें देशी माहौल में कारक दुग्धस्त्राव तथा दूध के भौतिक एवं रासायनिक गुणों को प्रभावित करते हैं जैसे- पशु की जाति, नस्ल, व्यक्तित्व, आयु, ब्यांत, बीमारी, भूख-प्यास, शरीर का आकार, तापक्रम और पोषाहार आदि। किन्तु देखा गया है कि कुछ कारक अधिक प्रभावी एवं संवदनशील होते हैं। उदाहरणतः सायंकाल के दूहे दूध में घी का प्रतिशत अधिक होता है। उत्तेजना एवं भय के कारण पशु के रक्त में कुछ हार्माेन अधिक बढ़ते हैं जो दूध की उपज और उसके अन्य गुणों को प्रभावित करते हैं। पतझड़ के अंत में ब्याने वाली गायों के दूध की मात्रा में वसा के प्रतिशत में गिरावट आ जाती है। 10-20 प्रतिशत वृद्धि हो जाती है। मछली का तेल खिलाने से पशु के दूध पतला प्राप्त होता है। तारपीन या कपूर सोयाबीन खिलाने से मक्खन मुलायम और मधुर होता है।