हमें संजोए रखने हैं हमारे जल संस्कार Publish Date : 07/05/2024
हमें संजोए रखने हैं हमारे जल संस्कार
डॉ0 आर. एस. सेंगर
बंगलुरू देश का एक मेट्रो सिटी है। इसलिए यहाँ उत्पन्न जल संकट का प्रचार ज्यादा हो रहा ह। वैसा ही संकट देश के 90 प्रमुख शहरों में भी गहरा गया है, या कुछ समय बाद विकराल रूप में नजर आएगा। इन शहरों में दिल्ली ही नहीं पहाड़ी पर बसा शहर शिमला भी शामिल है। बात बेंगलुरु से शुरू हुई थी, इसलिए वहां उत्पन्न जल संकट की वजह पहले बताऊंगा। यह कोई नई पैदा हुई समस्या नहीं है। आजादी के बाद से ही जल संरचनाओं पर अतिक्रमण हुआ है। बड़े लोगों ने पानी का शोषण किया है। पिछले 25 सालों में हमने जल संरचनाओं के महत्व को कभी भी नहीं समझा।
हम सिर्फ यही जानते हैं कि अगर शहर में पानी कम हुआ तो दूसरे शहर से ले आएंगे। बेंगलुरु में पानी को लेकर भी यही कि कावेरी का पानी लाकर शहर की प्यास बुझा लेंगे। मेट्रो सिटी में 370 झीलें थीं, उनकी कभी सुध नहीं ली गई और न उन्हें बचाने का प्रयास हुआ। जनसंख्या बढ़ी, जीवनशैली बदली एक मटका पानी की जगह 10 मटका पानी खर्च किया जाने लगा। फिर 20 मटका पानी लगने लगा और यह बढ़ता ही गया। पानी की ज्यादा खपत करने वाले लोगों को विकसित कहा जाने लगा।
हालांकि आम आदमी को अभी यह नजर नही आ रही है इसमें अभी दो-तीन साल और लग जाएंगे। इसे इस तरह से समझझना होगा कि भारत में 80% पानी भू-जल से आता है। देश का 62% भूजल पहले ही अधिक निकाला जा चुका है। नीति आयोग भी यही बात कहता है पानी का हमारा उपभोग करने का तरीका गलत है। चाहे पीने के पानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आरओ में बोतलबंद पानी हो या फिर शौचालय का डिजाइन सभी दोषपूर्ण हैं। शौचालय में एक बटन से 15 लीटर पानी खर्च होता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय पानी इस्तेमाल करना या उसका संरक्षण नहीं जानते थे। भारतीय विद्या में इसका प्रमुखता से वर्णन था लेकिन विकास की परिभाषा में इसे भुला दिया गया।
भारत की प्राचीन जीवन शैली में मानव और प्रकृति, दोनों के पोषण का विचार रहता था। मूल आदिवासी किसी भी व्यक्ति को तालाब के पास पेशाब (यूरिन) करने नहीं देता था यानी उसे इस बात की समझ थी कि तालाब के पानी को शुद्ध कैसे रखा जाए। यह समझ आम भारतीय को भी थी कि पीने के पानी और शौचालय के बीच अपेक्षित दूरी होनी चाहिए भले ही उसे यह नहीं पता हो कि पेशाब से नाइट्रोजन निकलती है, लेकिन वह यह अवश्य जानता था कि इससे पानी दूषित हो सकता है। आधुनिक शिक्षा की जो व्यवस्था है, उसमें पानी, पेड और पर्यावरण सबको टुकड़ों में बांटकर देखा जाता है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इन सबको एक साथ ही संरक्षित करने की व्याख्या है।
वर्तमान में घर-घर जल पहुंचाने वाली योजना की खूब चर्चा की जा रही है। इस योजन से घरों में पानी पहुंचेगा या नहीं यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इस योजना से प्लास्टिक के पाइप का उद्योग खूब फलफूल रहा है। इस योजना के तहत बस्तियों में प्लास्टिक के पाइपों का जाल बिछाया जाना है। जल संरक्षण में बच्चों की बात इसलिए की जाती है क्योंकि बड़ी उम्र के व्यक्ति तो जल के शोषक हैं और उनकी बजाय बच्चों को जागरूक बनाना अपेक्षाकृत आसान है।
जल संरक्षण को प्राथमिक शिक्षा से ही पाठयक्रम में शामिल किए जाने की जरूरत है। बदलाव इसी से आएगा जल संकट का समाधान कहीं बाहर से लाया जाने वाला फार्मूला या तकनीकी नहीं है। यह हमें दूसरे बड़े देशों से अच्छा पता है। हमारे यहां का एक आम ग्रामीण भी जल संरक्षण की तकनीक को जानता है।
भारत की स्थिति दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन से भयावह होगी। यह अभी जनसामान्य को नहीं दिखाई दे रही है। इसमें दो-तीन साल और लग जाएंगे। इसे इस तरह से समझना होगा कि भारत में 80 प्रतिशत पानी भू- जल से आता है। देश का 62 प्रतिशत भूजल पहले ही अधिक निकाला जा चुका है। नीति आयोग भी यही बात कहता है। पानी का हमारा उपभोग करने का तरीका गलत है। चाहे पीने के पानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आरओ हों, बोतलबंद पानी हो या फिर शौचालय का डिजाइन आदि लगाकर देखें तो आज बेंगलुरु में प्रति व्यक्ति पानी की खपत जरूरत से ज्यादा है। भारत ने जीवन के पैमाने विकास के नाम पर तेजी से बदलने शुरू कर दिए इसकी वजह ने कई संकट पैदा हुए।
अगर एक पंक्ति में कहा जाए तो हमने अपने जल संस्कार भुला दिए। आजादी के बाद पानी के उपयोग की जो आचार संहिता बननी थी, उसकी ओर तो ध्यान ही नहीं दिया गया। हम जानते हैं कि विकास का प्राण पानी है लेकिन पानी का ज्यादा भोग, उपयोग, दुरुपयोग करने वाले को बड़ा आदमी मानने की सोच ठीक नहीं है। यह गलती राज्य से हुई है पानी की आचार संहिता भी उसे ही बनानी थी। पानी के उपयोग की जो विधि बनाई जानी थी, वह भी नहीं समझाई गई बल्कि इसके स्थान पर पानी से पैसा बनाने, पानी को दूषित करने, पानी का व्यापार करने, पानी को वोतल में बंद करके बेचने को बढ़ावा दिया जाता रहा। लेकिन आखिर इस सब से हमें फायदा क्या हुआ?
आज भारत के लगभग 100 शहर भयानक जल संकट की चपेट में हैं। भारत की स्थिति दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन से भयावह होगी। यह अभी जनसामान्य को नही दिखाई दे रही है क्योंकि इस स्थिति को समाने आने में अभी कुछ समय और लगेगा।
वर्ष 2019 में मोदी 2.0 सरकार की शुरुआत में उन्होंने जल संकट को लेकर एक एकीकृत मंत्रालय का गठन कर दिया था। जहां पहले 13 मंत्रालय मिलकर जल के विषय को देखते थे, आज केवल जलशक्ति मंत्रालय के अधीन ही ये सभी कार्य हो रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी का प्रयास जल को जनांदोलन में बदलने का रहा है। भारत सरकार ने पिछले 10 वर्षों में जल क्षेत्र में सबसे अधिक निवेश किया है। ऐसा करने वाला भारत दुनिया का पहला देश है। भारत करीब 250 अमेरिकी बिलियन डॉलर का निवेश पानी के विभिन्न स्पेक्ट्रम सिंचाई से नदियों का शुद्धीकरण हो, पेय जल हो या भूगर्भ जल का पुनर्भरण हो में कर रहा है।
जल संरक्षण की जिम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं है, बल्कि इसमें जनभागीदारी भी बेहद जरूरी है। विगत 10 वर्षों में जल को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने बहुत सराहनीय कार्य किए हैं, और त्वरित गति से परियोजनाओं को आगे लेकर गए हैं। उससे न केवल जनजागरूकता बढ़ रही है, बल्कि जल स्रोतों का भी संरक्षण हो रहा है, लेकिन इन प्रयासों को और अधिक गति प्रदान करने की आवश्यकता है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।