धरती को बचाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन को रोकना होगा Publish Date : 27/04/2024
धरती को बचाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन को रोकना होगा
डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 कृषाणु एवं गरिमा शर्मा
विगत कुछ वर्षों से हम देख रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम वर्ष भर नित नए-नए रूप में प्रकट होते रहते हैं। मानव की प्रकृति के प्रतिकूल गतिविधियां हमारे ग्रह धरती का तापमान लगातार बढ़ा रही है। महासागर हो या पहाड़, नदियां हो या खेतों की जमीन सब जगह प्रकृति कर रही है अनेक देशों में पहाड़ी क्षेत्र के जलाशय सुख रहे हैं और वन क्षेत्र सुकून रहे हैं इसी कारण आए दिन जब जंगली जानवर अपनी प्यास बुझाने बाहर शहरों की तरफ आते हैं तो खलबली मच जाती है और मानव के साथ उनका संघर्ष होता है। जंगलों की घटती नमी के कम होने और अत्यधिक तापमान के कारण जंगलों में आग लगने के मामले भी लगातार बढ़ रहे हैं। बरसाती नदियां सूख रही हैं तो बड़ी नदियां में पानी की मात्रा लगातार घट रही है। खेती वाली जमीन में कार्बन तत्व लगातार घट रहा है इससे फसलों के उत्पादन पर भी असर पड़ रहा है।
एक ही देश में अलग-अलग हिस्से सुख और बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ने के क्रम में बढ़ती आबादी और उसका उपभोक्तावाद भी शामिल है। अधिक आबादी की खाद्य एवं पोषण की ज़रूरतों को पूरी करने के लिए तथा अधिक से अधिक उपभोग करने की प्रवृत्ति के चलते प्रकृति के संसाधनों का अधिक दोहन हो रहा है। उपभोक्तावाद के चलते ही कार्बन डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसेज अधिक मात्रा में वातावरण में पहुंच रही है। उपभोग की वस्तुओं के निर्माण से लेकर दैनिक जरूरतों में पानी की खपत लगातार बढ़ रही है जबकि उसका संरक्षण उसके अनुपात में नहीं किया जा रहा है, जो कि एक बहुत बड़ी चिंता का विषय है।
विश्व के कई देशों में जगह-जगह कचरे के पहाड़ बना रहे हैं। दुनिया में प्रतिवर्ष लाखों टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसका वर्ष 2050 तक कई गुना बढ़ाने का अनुमान है। भारत में भी अच्छा खासा प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, जो विगत 5 वर्षों में दुगना हुआ है। इसमें करीब 90 प्रतिशत कूड़े का ढेर नदी और नालों में जाता है। प्लास्टिक कचरे से पृथ्वी की जैव विविधता बुरी तरह प्रभावित होती है। इस कचरे के छोटे-छोटे कण धीरे-धीरे पानी में खुल जाते हैं और इसका मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। प्लास्टिक का कचरा अब धरती के लिए एक बहुत बड़ा संकट बन गया है, लेकिन इसका उपयोग कम करने की कोई ठोस पहल नहीं की जा रही है। प्लास्टिक के कचरे से महासागर अटे पड़े हैं। इसके साथ ही यह विभिन्न प्रकार से भी धरती की सेहत के लिए खतरा बन रहा है। इसी कारण इस वर्ष पृथ्वी दिवस की थीम धरती बनाम प्लास्टिक है। क्योंकि प्लास्टिक से बहुत नुकसान हो रहा है इसलिए उससे छुटकारा पाने के लिए हमें ठोस कदम उठाने ही होंगे। यदि प्लास्टिक का उत्पादन नहीं घटा तो तापमान और ज्यादा बढ़ सकता है। दरअसल धरती पर प्लास्टिक के उत्पादन से कार्बन उत्सर्जन की दर तीन गुना अधिक होने का खतरा बढ़ गया है।
विभिन्न वैज्ञानिक अध्ययनों में दावा किया गया है कि अगले तीन दशक में लगभग 17,000 कोयला संयंत्र बराबर 6.7 8 जिंदा कार्बन उत्सर्जित होता है। ऐसे में अगर प्लास्टिक के उत्पादन की दर में कमी नहीं की गई तो तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने की सीमा प्रभावित होगी। यह अध्ययन अमेरिका की लॉरेंस नेशनल लैबोरेट्री ने किया है।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 में प्लास्टिक उत्पादन से लगभग 2.5 जिंगा टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न हुआ, जो दुनिया के ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 5.3ः रहा। हर साल दुनिया में 43 करोड़ मेट्रिक टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है। इसमें से 79 प्रतिशत प्लास्टिक लैंडफिल या प्रकृति में जमा हो जाता है। 99 प्रतिशत से अधिक प्लास्टिक जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न होता है। तेल उत्पादन का लगभग 4 से 8 प्रतिशत प्लास्टिक बनाने के लिए ही उपयोग किया जाता है। ऐसे में यह आंकड़़ा वर्ष 2050 तक 20ः तक बढ़ाने की उम्मीद है। अगर पेरिस समझौते के लक्ष्य को बचाना है, तो प्लास्टिक उत्पादन में 12 से 17 प्रतिशत तक की कमी करनी ही होगी। प्लास्टिक प्रदूषण से 88 फ़ीसदी समुद्री जीव प्रभावित होते हैं और इससे पारिस्थितिकी तंत्र भी नष्ट होता है। इससे होने वाला प्रदूषण इंसानों के स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक साबित होता है। लोगों में फेफड़े और रक्त कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। चिंताजनक तो यह है कि मनुष्य के शरीर में हानिकारक प्लास्टिक के कण भी पाए गए हैं। वर्ष 2021 के बाद से दुनिया में प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादन में 7.11 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत भी प्लास्टिक अवशिष्ट सूचकांक में सुधार करते हुए 95वें स्थान पर पहुंच गया है जबकि इससे पहले वह चौथे स्थान पर था। भारत में प्रतिवर्ष करीब 34 लाख टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, इसलिए प्लास्टिक उत्पादन को घटाकर हम बढ़ाते हुए इस तापमान को काफी हद तक रोक सकने में सफल हो सकते हैं।
अब स्थिति यह है कि प्लास्टिक के कारण पृथ्वी की संपूर्ण जैव विविधता ही खतरे में पड़ गई है। मानव गतिविधियों के कारण पृथ्वी तपने लगी है। इसकी ऐसी हालत किसी के भी हित में नहीं है इसके अलावा कोई दूसरी पृथ्वी भी नहीं है। अतः अभी भी समय है कि हम लोगों को जलवायु को सुधारने और उपभोक्तावाद पर लगाम लगाने की। अगर हम अब भी नहीं चेते तो संकट इतना गंभीर हो सकता है कि उससे निपटना मुश्किल हो जाएगा। धरती को बचाने के उपाय अमल में लाने में पहले ही काफी देर हो चुकी है। सरकारों के साथ समाज को भी यह समझना होगा कि आधुनिक जीवन शैली में बदलाव लाए बिना बात बनने वाली नहीं है। अतः हमें भौतिकवादी जीवन छोड़ना होगा खाने पीने की चीजों की बर्बादी रोकनी होगी और बिजली तथा पानी का किफायती उपयोग करना सीखना होगा। हमें यूज एंड थ्रो जैसी संस्कृति का परित्याग करना होगा। यह संभव नहीं की कुछ लोग तो अपनी जीवन शैली को बदलें और शेष लोग यह मानकर चलते रहे कि उन्हें ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है। यह सोच भी सही नहीं कि जलवायु परिवर्तन रोकने की जिम्मेदारी पर्यावरण संगठनों और सरकारों की है। सरकारी और पर्यावरण संगठन तभी कुछ हासिल कर पाएंगे जब आम आदमी भी उनका पूरी तरह से सहयोग करने के लिए तत्पर होंगे। यह तत्परता सभी को दिखानी होगी, उन्हें कुछ अधिक जो लग्जरी कारों, विमान आदि का उपयोग अधिक करते हैं।
धरती की रक्षा में उसके संसाधनों का अत्यधिक उपभोग करने वालों की जिम्मेदारी अधिक बनती है। क्योंकि हमें अपने देश के गरीबों के जीवन स्तर में भी सुधार लाना है तो इसके लिए हम सभी लोगों को मिलकर रिड्यूस रीसाइकलिंग और रियुज वाले फार्मूले को अपनाना होगा, तभी हम पर्यावरण और धरती को बचाने में सफल हो सकेंगे।
जब वर्ष 1970 में पहली बार 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस का आयोजन किया गया था तब 2 करोड अमेरिकी लोगों ने इसमें भाग लिया थ।ा उसे कार्यक्रम में हर एक समाज, वर्ग और क्षेत्र के लोगों ने हिस्सा लिया था। इस तरह का आंदोलन आधुनिक वक्त का सबसे बड़ा पर्यावरण आंदोलन बन गया था। इस वर्ष का पृथ्वी दिवस पर्यावरण के आगे प्लास्टिक के उत्पन्न खतरे पर केंद्रित है। एकल उपयोग वाले प्लास्टिक को समाप्त करने और उसका विकल्प खोजने का आवाहन किया गया है, ताकि उन्हें चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जा सके। पृथ्वी पर जैसे-जैसे आबादी बढ़ती जा रही है उसी के अनुरूप ही यहां प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की गति भी बढ़ती जा रही है। इस बढ़ते असंतुलन के कारण वह दिन भी अब बहुत दूर नहीं जब पृथ्वी रहने लायक नहीं बचेगी। इसलिए जरूरी है कि सभी लोग जाग जाएं अपनी-अपनी जिम्मेदारियां को समझें और पृथ्वी के प्रति अपने कर्तव्य निभाए।ं
महात्मा गांधी ने भारतीयों को आधुनिक तकनीक के प्रति दशको पहले आगाह किया था। गांधी जी का मानना था कि पृथ्वी, वायु, जल और भूमि हमारे पूर्वजों की संपत्ति नहीं है, बल्कि यह हमारे बच्चों और आने वाली पीढ़ियो की अमानत है। हमें अपनी भावी पीढ़ी को वैसा ही साफ सुथरा पर्यावरण सौंपना होगा जैसा कि हमें हमारे पूर्वजों से मिला था। गांधी जी का यह भी मानना था कि पृथ्वी के पास लोगों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए तो पर्याप्त पर्यावरण संसाधन है लेकिन पृथ्वी के लोग ही इस पूर्ति लायक नहीं है।
हमारी पारंपरिक मानता है कि पृथ्वी एक मां की तरह है जो मनुष्य, वनस्पति, जीव, जंतु समेत समस्त प्राणियों को अपनी गोद में फलती और फूलती है तो दूसरी तरफ मनुष्य अपने क्षणिक फायदे और भौतिक सुख भोगने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन करते जा रहा है। इसलिए आज हमें कुछ अच्छा करने का संकल्प लेना चाहिए और पृथ्वी की रक्षा के लिए हमें छोटे-छोटे प्रयास करने की जरूरत है। जैसे हम ज्यादा से ज्यादा पेड़ पौधे लगाएं, औद्योगीकरण को कम करने में अपना सहयोग दें, चीजों के बार-बार उपयोग की आदत डालें, और वाहनों के इस्तेमाल को सीमित कर सकते हैं एवं ऊर्जा संरक्षण सहित कई ऐसे प्रयास हम सब कर सकते हैं, जिनसे हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह सके और उसमें संतुलन लाया जा सके। दुनिया के तमाम विकासशील देशों को मिलकर विकसित देशों पर दबाव बनाना चाहिए कि वह गरीब देश की कीमत पर अब अपने लिए सहूलियतें नहीं जुटा सकते। जब तक विकसित और अमीर देश पर अंकुश नहीं लगेगा पृथ्वी के लिए बहुत उम्मीद नहीं पाली जा सकती है।
कुदरती संसाधनों का दोहन मजबूरी
पिछले कुछ वर्षों से हर एक साल पृथ्वी दिवस पर एक ही बात सुनने को मिलती है कि प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है और इसके कारण पर्यावरण में असंतुलन पैदा हो रहा है। बढ़ती औद्योगिक गतिविधियों के कारण कार्बन उत्सर्जन बढ़़ गया है जिससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पैदा हो गई है। अस्तु ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्री तूफानों की बारंबारता बढ़ गई है, सागर का जलस्तर ऊपर उठ रहा ह,ै जिसके कारण कई तटीय इलाकों के अस्तित्व का खतरा बढ़ा रहा है। विकसित देश खुद तो बड़े पैमाने पर ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं और गरीब देश पर तमाम तरह की पाबंदियां ठोकने की कोशिश कर रहे है। इन सारे विकल्प के कारण कुछ बड़े सवाल हैं कि यदि यह विकसित देश अपना उत्पादन नहीं बढ़ते तो कितने सारे लोग भूख से मरते कितने सारे बदन कपड़ों के बगैर जीने को विवश होते और कितनी बड़ी मानव आबादी के सिर पर हर मौसम को जीने लायक छत होती। अपने देश को ही हम देख सकते हैं ऐसे लोगों की कमी नहीं जो आपको पूछते हुए मिल जाएंगे कि पंजाब एवं हरियाणा के खेत बंजर हो चुके हैं।
अधिक उर्वरकों के इस्तेमाल ने कई बीमारियों को जन्म दिया है और हजारों लोगों की जिंदगी पर बनाई है। मगर जरा सोचिए आबादी के बाद हमारी सरकार को 32 करोड़ आबादी का पेट भरने के लिए किस तरह अमेरिका और यूरोप के आगे हाथ फैलाना पड़ता था और वह देश हमें घटिया अनाजों की आपूर्ति कराते थे। वह तो धन्यवाद दीजिए वर्गीज कुरियन और एमएस स्वामीनाथन जैसे विलक्षण कृषि वैज्ञानिकों का जिन्होनें इसे आगे बढ़ाया और भारत में श्वेत, हरित क्रांति को संभव बनाया।
आज हम 80 करोड़ से अधिक लोगों को हर माह मुफ्त में अनाज मुहैया करा रहे हैं तो यह प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण ही मुमकिन हो पा रहा है। अगर आसमान बनाकर सोचें तो यह मानना पड़ता है कि ऊपर वाले ने ऐसे कई ग्रह बनाए हैं जिन पर इंसानों की पहुंच नहीं है। मनुष्य चांद पर बस्तियां बसा पता है या नहीं यह तो भविष्य की बात है मगर सोचिए कि यदि हमारी पिछली पीढ़ियां यूं ही रोती रहती कि नहीं इस पृथ्वी के वायुमंडल की सेहत प्रभावित होगा तो क्या आज हमारे कदम चांद पर पड़े होते। धरती के कई कोणों का तो अभी हम पूरी तरह से उद्घाटन भी नहीं कर पाए हैं, इसलिए इसकी क्षमता को कमतर रखने के बजाय हमें इसकी दुर्गम जगह तक पहुंचाने और उनको जानने समझने की कोशिश करनी चाहिए। धरती का दोहन हमारी जरूरत और मजबूरी भी दोनों ही रहा है, लेकिन अब जितना धरती का विकास के नाम पर दोहन किया गया उससे अधिक हम लोगों को पृथ्वी दिवस के अवसर पर संरक्षण के बारे में सोचना होगा।
अब इससे काम नहीं चलने वाला कि हम 22 अप्रैल को ही पृथ्वी दिवस को मनाई और पर्यावरण के संकल्पों को याद दिलाने भर तक ही सीमित रहे। इस दिन दुनिया भर के स्कूल, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, दफ्तरों में बड़े और भावपूर्ण कार्यक्रम भी आयोजित होते हैं पर इनमें बदलाव की ऊर्जा कम होती है और पर मनाने की औपचारिकता ज्यादा होती है। कुछ जगह तो वह कंपनियां ही ऐसे कार्यक्रमों को प्रायोजित करती हैं जिन पर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का सबसे अधिकार प्राप्त होता है। इसलिए हम सभी को पर्यावरण के नाम पर जन आंदोलन खड़ा करके इसके संरक्षण की बात करनी होगी और अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर अपना सहयोग देना होगा। तभी हम पृथ्वी के नाम पर बस एक खास दिन को मनाने की औपचारिकता से बच सकेंगे।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।