हमें जल संस्कार बनाए रखने होंगे Publish Date : 16/04/2024
हमें जल संस्कार बनाए रखने होंगे
डॉ0 आर. एस. सेंगर
हमारे देश का शहर बैंगलुरू एक मेट्रो सिटी है। इसलिए यहां जल संकट का प्रचार ज्यादा हो रहा है। जबकि ठीक वैसा ही संकट देश के 90 प्रमुख शहरों में भी गहराता जा रहा है, या यूं कहें कि कुछ समय के बाद यह अपने विकराल रूप में नजर आएगा। इन शहरों में दिल्ली ही नहीं बल्कि पहाड़ी पर बसा शहर शिमला भी शामिल है। बात बेंगलुरु से शुरू हुई है, इसलिए वहां उत्पन्न जल संकट के कारणों की बात विस्तार से करेंगे। यदि देखा जाए तो यह कोई नई पैदा हुई समस्या नहीं है।
आजादी के बाद से ही जल संरचनाओं पर जो अतिक्रमण हुआ है। बड़े लोगों ने पानी का लगातार शोषण किया है। पिछले 25 सालों में हमने अपनी जल संरचनाओं के महत्व को कभी भी समझा ही नही है।
इस सम्बन्ध में हम केवल यही जानते हैं कि अगर शहर में पानी कम हुआ तो दूसरे शहर से पानी ले आएंगे। बेंगलुरु में पानी को लेकर भी यही कि कावेरी का पानी लाकर शहर की प्यास बुझाएंगे। मेट्रो सिटी में 370 झीलें थीं, जिनकी कभी सुध नहीं ली गई और न उन्हें बचाने के लिए कोई गम्भीर प्रयास किया गया। जनसंख्या बढ़ी, जीवनशैली बदली और एक मटका पानी की जगह 10 मटका पानी खर्च किया जाने लगा। फिर 20 मटका पानी लगने लगा और यह बढ़ता ही चला गया।
पानी की ज्यादा खपत करने वाले लोगों को ही विकसित कहा जाने लगा। वर्तमान में बेंगलुरु में प्रति व्यक्ति पानी की खपत जरूरत से ज्यादा है। भारत ने जीवन के पैमाने विकास के नाम पर तेजी से बदलने शुरू कर दिए। इसकी वजह ने कई संकट पैदा हुए। यदि इस बात को एक ही पंक्ति में कहा जाए तो कह सकते हैं कि हमने अपने जल संस्कार भुला दिए हैं।
आजादी के बाद हमें पानी के उपयोग की जो आचार संहिता बनानी चाहिए थी, उसकी तरफ कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। यह एक सनातन सत्य है कि विकास का प्राण पानी ही है, लेकिन पानी का ज्यादा भोग, उपयोग, दुरुपयोग करने वाले को बड़ा आदमी मानने की सोच सिरे से ही गलतं थी। यह गलती राज्य से हुई है, क्योंकि पानी की आचार संहिता भी राज्य को ही बनानी थी। पानी के उपयोग की जो विधि बनाई जानी थी, हम वह भी नहीं बना पाए अपितु इसके स्थान पर पानी से पैसा बनाने, पानी को दूषित करने, पानी का व्यापार करने, पानी को वोतल में बंद करके बेचने की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता रहा। लेकिन आखिर इससे हमें फायदा क्या हुआ?
इस समय भारत के लगभग 100 शहर भयानक जल संकट की चपेट में हैं। भारत की स्थिति दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर से भी अधिक भयावह होगी। यह स्थिति अभी भारत के जनसामान्य को नहीं
दिखाई दे रही है। इस सब को समझने में अभी दो-तीन साल और लग जाएंगे। हमें इसे इस तरह से समझझना होगा कि भारत में 80 प्रतिशत पानी भू-जल से आता है। देश का 62 प्रतिशत भूजल पहले ही अधिक निकाला जा चुका है। नीति आयोग भी यही बात कहता है पानी का हमारा उपभोग करने का तरीका गलत है।
चाहे पीने के पानी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले आरओ हों, बोतलबंद पानी हो या फिर शौचालय का डिजाइन आदि सभी दोषपूर्ण हैं। शौचालय में एक बटन से 15 लीटर पानी खर्च होता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय पानी इस्तेमाल करना या उसका संरक्षण पहले से ही नहीं जानते थे। कई भारतीय विद्याओं में इसका प्रमुखता से वर्णन किया गया था, लेकिन विकास की परिभाषा के आगे हमने इसे भुला दिया।
भारत की प्राचीन जीवन शैली में मानव और प्रकृति, दोनों के पोषण का विचार कायम रहता था। मूल आदिवासी समूह के किसी भी व्यक्ति को तालाब के पास पेशाब (यूरिन) करने नहीं दिया जाता था, यानी उन्हें भी इस बात की समझ थी कि तालाब के पानी को शुद्ध कैसे रखा जाए। हालांकि यह समझ एक आम भारतीय नागरिक को भी थी कि पीने के पानी और शौचालय के बीच अपेक्षित दूरी होनी ही चाहिए। फिर चाहे भले ही उसे यह नहीं पता हो कि पेशाब से नाइट्रोजन निकलती है, लेकिन वह यह अवश्य जानता था कि इससे पानी दूषित हो सकता है।
आधुनिक शिक्षा की जो व्यवस्था है, उसमें पानी, पेड और पर्यावरण सबको टुकड़ों में बांटकर देखा जाता है। प्राचीन भारतीय दर्शन में इन सबको एक साथ ही संरक्षित करने की व्याख्या की गई है।
आज घर-घर जल पहुंचाने वाली योजना की बहुत चर्चा की जा रही है। इससे घरों में पानी पहुंचेगा या नहीं यह तो पता नही लेकिन इससे प्लास्टिक के पाइप का उद्योग खूब फलफूल रहा है। इस योजना के तहत बस्तियों में प्लास्टिक के पाइपांे का जाल बिछा दिया गया है, बड़ी-बड़ी टकियां बना दी गई है लेकिन इसमें भी जल संरक्षण की कोई सोच शमिल नहीं है।
भारत जहां पहले की पीढ़ियों को जल संरक्षण की गहरी समझा हुआ करती थी आज वहां 99 प्रतिशत पानी का शोषण हो रहा है। यह जो दूसरे शहर से पानी लाकर जल संकट का समाधान खोजने वाला विचार है यह किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है। नदियों के पानी पर सिर्फ इस वजह से बड़े शहरों का अधिकार नहीं है कि यहाँ प्रभावशाली लोग रहते हैं या उन शहरों में ज्यादा कारोबार है।
नदियों पर छोटे कस्बों का भी उतना ही अधिकार है, जितना कि बड़े शहरों का। जब भी मुझ से जल संकट से उबरने का तरीका पूछा जाता तो इसमें मेरी सलाह हमेशा यही होती है कि बच्चों को उनके बचपपन से ही जल संरक्षण के तरीकें सिखाए जाने चाहिए। बच्चों की बात मै इसलिए करता हूँ क्योंकि बड़ी उम्र के व्यक्ति अक्सर जल के शोषक ही होते हैं। अतः उनके बजाय बच्चों को जागरूक बनाना अपेक्षाकृत अधिक आसान है। जल संरक्षण को प्राथमिक शिक्षा से ही पाठयक्रम में शामिल किए जाने की जरूरत है और बदलाव भी इसी से आएगा।
जल संकट का समाधान कहीं बाहर से लाया जाने वाला फार्मूला या तकनीकी नहीं है। यह हमें दूसरे बड़े देशों से अच्छा पता है। हमारे यहां एक आम ग्रामीण भी इससे परिचित है। तालाब और पानी को बचाने वाले अन्य उपाय भी हमारे यहाँ जनसामान्य जानता है। हमें बस इसकी प्रत्येक गाँव, पंचायत, कस्बे, तहसील और जिले आदि में चलानी होगी। सभी कहते इहैं कि जल ही जीवन है और जल सभी को चाहिए।
परन्तु अब केवल यह कहने मात्र से काम नही चलने वाला है अपितु हमें अपने इस जीवन को बचाने के लिए गम्भीरतम प्रयास भी करने होंगे। कुछ ऐसे ही प्रयास जैसे कि किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति का जीवन बचाने के लिए किए जाते हैं। हमारे यहां जल की पूरी की पूरी व्यवस्था ही बीमार है और यह कोई साधारण बीमारी नही होकर एक गम्भीर बीमारी है। अतः अपने जल की इस व्यवस्थागत बीमारी को दूर करने के लिए जितना शीघ्र प्रयास किए जाएंगे यह हमारे लिए उतना ही अधिक उत्तम रहेगा।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।