आलू के झुलसा रोग का प्रबन्धन      Publish Date : 03/02/2025

                      आलू के झुलसा रोग का प्रबन्धन

                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, डॉ0 कृशानू एवं गरिमा शर्मा

आलू एक बहुत ही महत्वपूर्ण सब्जी की फसल है। आलू को सब्जियों का राजा भी कहा जाता है, क्योंकि आलू में बहुत से पोषक तत्व और विटामिन्स पाए जाते हैं। आलू की फसल को भारत के विभिन्न राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और पंजाब आदि में बड़े पैमाने पर उगाया जाता है।

आलू की फसल में बहुत से रोग लगते है जिनमें झुलसा, भूरा विगलन, काला मस्सा और स्कैब आदि प्रमुख हैं। आलू का झुलसा रोग, जो कि फंफूद के माध्यम से होने वाला एक भयंकर रोग है, जिससे पूरी की पूरी फसल ही बर्बाद हो जाती है। इस रोग के चलते आलू के किसान बहुत अधिक परेशान रहते हैं।   

                                                        

आलू में लगने वाला झुलसा रोग मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है, पहला आलू का अगेती झुलसा और दूसरा पछेती झुलसा। यह दोनों प्रकार के रोग अलग-अलग फंफूद के कारण होते हैं और इनका प्रकोप होने का समय भी अलग-अलग ही होता है।

आलू का अगेती झुलसा रोग

                                                              

इस रोग का प्रकोप खेत में मुख्य रूप से दिसंबर माह में दिखाई देता है। यह रोग डयूटेरेमाइसिटीज वर्ग के कवक ऑल्टर्नरिया सोलेनाई के कारण होता है और इस रोग के कारण लगभग 40 से 70 प्रतिशत तक आलू की फसल बर्बाद हो सकती है।

रोग के प्रमुख लक्षण

  • इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था आलू के पौधों की निचली पत्तियों पर पीले अथवा हल्के भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे दिखाई देते हैं।
  • यह धब्बे गोल, अंड़ाकार या छल्ले युक्त दिखाई देते हैं।
  • धीरे-धीरे यह धब्बे आकार में बढ़ने लगते हैं और पूरी पत्ती पर फैल जाते हैं।
  • अनुकूल मौसम में यह धब्बे पूरी पत्तियों पर ही फैलने लगते हैं और बाद में पूरी पत्ती पर ही फैल जाते हैं।
  • इस प्रकार के धब्बे आलू के कन्द पर भी दिखाई देते हैं, जिससे कन्दों की गुणवत्ता खराब हो जाती है।
  • रोग की उग्र अवस्था के होने पर इस रोग के लक्षण पर्णवृन्त और तने पर भी दिखाई देने लगते हैं।

अगेती झुलसा रोग का उपचार

  • कटाई के तुरंत बाद मृत वृंतों का जलाकर नष्ट कर देना चाहिए।
  • आलू की बुवाई में रोगरोधी प्रजाति जैसे कुफरी जीवन और कुफरी सिन्दूरी आदि का प्रयोग करना चाहिए।
  • बीजोपचार के लिए एगेलाल के 0.1 प्रतिशत घोल में बीज कंद को 30 मिनट तक डुबोने के बाद बुवाई करें।

फसल में रोग के हल्के लक्षण दिखाई देने पर जैविक ट्राइकोडर्मा विरिडी की 500 ग्राम मात्रा अथवा स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस की 250 ग्राम मात्रा को 100 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर प्रति एकड़ की दर से उपयोग करना चाहिए।

रोग का उपचार रासायनिक विधि से करने के लिए एजोक्सिस्ट्रोबिन 11 प्रतिशत + टेबुकोनाजोल 18.3 प्रतिशत SC की 300 ग्राम मात्रा या मेटालैक्सिल 4 प्रतिशत + मैन्कोजेब 64 प्रतिशत WP की 600 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ की दर से 12 से 15 दिन के अंतराल पर 3 छिड़काव करना चाहिए।

आलू का पछेती झुलसा रोग

                                                  

आलू के इस रोग और इसके रोग जनक का पता सबसे पहले जर्मन वैज्ञानिक एण्टोन डीबेरी ने लगाया था। आलू के इस रोग का जन्म मैक्सिको में हुआ, जो जंगली आलू में पाया गया था। लगभग 1830 से 1840 के बीच यह रोग यूरोप में एक महामारी के तौर पर पहुँचा था और 1845 में यूरोप में आलू की सारी समाप्त हो गई थी। आयरलैण्ड द्वीप में आलू की सम्पूर्ण फसल के नष्ट हो जाने के कारण वहां अकाल पड़ गया और रोग ग्रस्त आलू का सेवन करने से मनुष्य भी बीमार होने लगे थे।

भारत में यह रोग यूरोप से आयात किए गए आलू की बीज के माध्यम से वर्ष 1870 में आया। यह अगेती झुलसा से अधिक खतरनाक होता है।

आलू के पछेती झुलसा रोग के लक्षण

  • इस रोग से अक्रोत आलू की पत्तियां किनारे या शिखर से झुलसनी शुरू हो जाती हैं और धीरे-धीरे पूरी पत्ती ही प्रभावित हो जाती है।
  • पत्तियों के निचले हिस्सों पर सफेद रंग की फफंूदी दिखाई देने लगती है और रोग के फैलने से पूरा पौधा काला पड़कर झुलस जाता है।
  • इस रोग में आलू में कंद नही बनते और यदि बनते भी हैं तो बहुत छोटे बनते हैं। इसके साथ ही आलू की भण्ड़ारण क्षमता भी कम हो जाती है।
  • रोग के बढ़ने में वातावरण का विशेष प्रभाव होता है। ऐसे में यदि आसमान में 3 से 5 दिन तक बादल छाए रहें, धूप न निकले और हल्की-हल्की बूंदाबांदी भी हो तो यह निश्चित है कि यह रोग अब एक महामारी का रूप ग्रहण करने वाला है।

पछेती झुलसा रोग का उपचार

  • रोग प्रतिरोधी प्रजातियां जैसे कुफरी अलंकार और कुफरी ज्योति आदि का ही उपयोग करना चाहिए।
  • रोग के उपचार के लिए खेत में जैविक स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस की 250 ग्राम मात्रा को 100 कि.ग्रा. गोबर की खाद में मिलाकर प्रति एकड़ की दर से उपयोग करना चाहिए।
  • रोग का उपचार रासायनिक विधि से करने के लिए मेटालैक्सिल 4 प्रतिशत, मैन्कोजेब 64 प्रतिशत डब्ल्यूपी की 600 ग्राम मात्रा को 200 लीटर पानी में घोलकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना चाहिए।
  • बीजोपचार करने के लिए मेटालैक्सिल 4 प्रतिशत, मैन्कोजेब 64 प्रतिशत, 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से तैयार घोल में बीज कंद को 30 मिनट के लिए डुबोकर बुआई करनी चाहिए।
  • आमतौर पर आलू की मेड़ को 9 इंच ऊँचा बनाना चाहिए। इसके दो लाभ प्राप्त होते हैं, एक तो बालू के कंद अच्छे तरीके से बढ़ते हैं और इसके साथ इस रोग के लगने की सम्भावना भी कम हो जाती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।