आलू की फसल में मुख्य पोषक तत्वों का महत्व      Publish Date : 14/01/2025

                  आलू की फसल में मुख्य पोषक तत्वों का महत्व

                                                                                                                                   प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 वर्षा रानी

आलू की फसल को उचित बढ़ोत्तरी और अच्छी पैदावार के लिए कुल 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। इन पोषक तत्वों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम द्वितीयक एवं लोहा, जस्ता, ताँबा, निकिल, मैग्नीज तथा मॉलीब्डेनम सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं। गेहूँ और धान की अपेक्षा आलू, प्रति इकाई समय एवं क्षेत्रफल की दृष्टि से अधिक शुष्क पदार्थ उत्पन्न करने की क्षमता से युक्त होता है। इस प्रकार से आलू को अन्य फसलों की तुलना में अधिक पोषक तत्वों की आवश्यकता भी अधिक ही होती है।

                                                           

आलू को यह सभी पोषक तत्व प्राकृतिक रूप से मिट्टी के माध्यम से प्राप्त होते हैं, परन्तु मृदा उचित मात्रा में जीवांश उपलब्ध नही होने के कारण रासायनिक उर्वरकों का उचित मात्रा में प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है।

भारत में आलू की फसल, उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में सबसे अधिक उगायी जाने वाली फसल है। सघन फसल उत्पादन पद्वति के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश की मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी होना एक आम बात है। इसके साथ ही राज्य में जैविक खादों का प्रयोग बहुत कम किया जाता है, जिसके चलते यहां की मृदा में जैविक कार्बन की मात्रा सामान्य स्तर से भी काफी कम दर्ज की जाती रही है।

इन सभी पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति के लिए खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता होती है, जिसके कारण फसल की पैदावार उचित मात्रा में प्राप्त होती है।

आलू में जैविक खाद का महत्व

                                                           

आलू की फसल में रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करने के साथ ही जैविक खादों का उपयोग करने से आलू की पैदावार में अच्छी बढ़ोत्तरी होती है। इसके साथ ही आलू के कंदों की गुणवत्ता में भी आशातीत सुधार होता है। जैविक खाद न केवल भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाती है, बल्कि उसकी भौतिक संरचना को सुधारने में भी सहयोग करती है।

इसके अलावा जैविक खाद नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश आदि उर्वरकों की दक्षता भी बढ़ाती हैं। इस प्रकार से कार्बनिक खाद की पर्याप्त मात्रा के होने पर रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में कमी की जा सकती है।

मृदा की सेहत के लिए वैसे भी रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग कम से कम ही करना उचित रहता है। कार्बनिक खादों में गोबर की खाद के अतिरिक्त वर्मीकम्पोस्ट, पोल्ट्री की खाद और नीम की खली आदि का उपयोग अधिक करने से आलू की उपज एवं उसके कंदों की गुणवत्ता में अच्छी वृद्वि होती है। जैविक खाद से तैयार आलू की फसल का बाजार में भी अधिक मूल्य प्राप्त होता है।

आलू की फसल में नाइट्रोजन का महत्व

आलू की फसल में नाइट्रोजन का प्रयोग आलू के कन्दों की संख्या और उनके आकार में उचित वृद्वि करने के उद्देश्य किया जाता है। पौधों की उचित बढ़वार औश्र पत्तियों की संख्या तथा उनका आकार निर्धारित करने में नाइट्रोजन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। नाइट्रोजन की कमी के कारण पौधों की वृद्वि रूक जाती है और पौधों की निचली पत्तियों ओर पीलापन बढ़ने लगता है और बाद पूरा पौधा ही पीला पड़ जाता है।

नाइट्रोजन की कमी के चलते पौधा अपना पूरा भोजन नही बना पाता है और आलू का आकार भी छोटा रह जाने के कारण आलू की पैदावार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

इसके विपरीत यदि नाइट्रोजन की मात्रा भूमि में आवश्यकता से अधिक है तो ऐसे में पौधों की बढ़वार तो अधिक होती है परन्तु उनमें कंद देर से बनते हैं जिससे कंदों का आकार छोटा रह जाता है। इसके साथ ही नाइट्रोजन की अधिकता होने से फसल की परिपक्वता भी देरी से ही होती है और फसल की अवधि अधिक हो जाती है।

अतः किसानों को सलाह दी जाती है कि वह अपने खेत की मिट्टी की जांच के आधार पर ही नाइट्रोजन की उचित खुराक देना सुनिश्चित् करें।

आलू में नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का प्रयोग

बुवाई के समय यूरिया का अधिक प्रयोग करने से आलू में अंकुरण की समस्या हो सकती है। अतः आलू की फसल में मिट्टी चढ़ाते समय यूरिया का प्रयोग करना लाभकारी रहता है। सिंचाई का समुचित प्रबन्ध होने की दशा में नाइट्रोजन का आधा भाग बुवाई के समय तथा इसका शेष भाग मिट्टी चढ़ाते समय देना अधिक अच्छा रहता है।

ध्यान रहे कि अमोनियम नाइट्रेट अथवा यूरिया आलू के कंद से 5 सेमी. की दूरी पर अथवा नीचे डालकर इसे भूमि में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। आलू की फसल में नाइट्रोजन की मात्रा इसकी किस्मों के आधार पर अलग अलग होती है। अतः आलू की फसल में नाइट्रोजन की मात्रा उसकी किस्मों के अनुसार ही प्रयोग करनी चाहिए।

आलू की फसल में फॉस्फोरस का महत्व

फॉस्फोरस तत्व का प्रयोग आलू की फसल में आलू के पौधों की जड़ों को मजबूती प्रदान करता है। इसका प्रयोग करने से आलू की फसल जल्दी पककर तैयार हो जाती है और इसी के साथ यह तत्व आलू में कंदों की संख्या में भी वृद्वि करता है। फॉस्फोरस का महत्व खाने के आलू की अपेक्षा बीज आलू में अधिक होता है।

फॉस्फोरस तत्व की कमी के चलते आलू के पौधों की पत्तियों का रंग गहरा हरा अथवा बैंगनी रंग हो जाता है। इस तत्व की अधिक कमी होने के चलते आलू की पत्तियां पूरी तरह से खुल नही पाती हैं और इसकी पत्तियों पर बैंगनी रंग के धब्बे आ जाते हैं और इससे आलू की उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः फॉस्फोरस तत्व की उचित मात्रा का प्रयोग आलू में करने से इसकी फसल शीघ्र ही पककर तैयार हो जाती है।

आलू में फॉस्फोरसयुक्त उर्वरकों का प्रयोग 

आलू की फसल के लिए सिंगल सुपर फॉस्फेट या डाई अमोनियम सल्फेट (डीएपी) तथा अन्य फॉस्फोरसयुक्त अन्य उर्वरकों का प्रयोग अधिक उपयुक्त रहता है। प्रयोग किया गया फॉस्फेट का 85 प्रतिशत भाग मिट्टी में मिल जाता है जिसका स्थिरीकरण हो जाता है और पौधे केवल 10 से 15 प्रतिशत भाग का ही उपयोग कर पाते हैं। इसी कारण से पौधों को फॉस्फोरस की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है।

अतः किसानों को चाहिए कि वह मृदा की जांच कराने के बाद ही इसकी मात्रा का निर्धारण करें। आलू की फसल में फॉस्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय नाली में कंद बीज के समीप, जहां पौधों की क्रियाशील जड़ें अधिक मात्रा में होती हैं उस स्थान पर देना ही अधिक लाभकारी रहता है।

आलू की फसल में पोटेशियम तत्व का महत्व

पोटेशियम तत्व आलू के पौधों को स्वस्थ बनाए रखने के साथ ही उन्हें सूखे और पाले की समस्या से भी बचाता है। इस तत्व की कमी से आलू के पौधों की पत्तियों के किनारे भूरे अथवा काले रंग के हो जाते हैं और बहुत अधिक कमी होने की स्थिति में पूरा पौधा सूख जाता है। पोटेशियम की प्रचुर मात्रा उपलब्ध होने पर आलू में कीट एवं रोगों का प्रकोप भी कम होता है।

उचित समय पर पोटेशियम का प्रयोग करने से आलू में बड़े आकार वाले कंदों की संख्या में वृद्वि होती है जिससे बाजार में आलू का अच्छा मूल्य किसानों को प्राप्त होता है।

पोटेशियम युक्त उर्वरक का प्रयोग

आलू की भोज्य फसल के लिए पोटेशियम उर्वरक की दो तिहाई मात्रा आलू की बुवाई के दसमय बीज कंद के पास या नीचे कंद से लगभग 5 से.मी. की गहराई पर देनी चाहिए। पोटेशियम का शेष बचा हुआ भाग बुवाई करने के लगभग 30 दिनों के बाद फसल में मिट्टी चढ़ाने के दौरान देना अधिक लाभकारी रहता है।

बीज आलू की फसल के लिए भोज्य आलू के लिए संस्तुत मात्रा से 25 प्रतिशत कम उर्वरक देना चाहिए और इसकी सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय ही बीज फसल में दे देनी चाहिए। अगेती प्रजातियों के बड़े आकार वाले आलू प्राप्त करने के लिए अधिक मात्रा में पोटेशियम उर्वरक की आवश्यकता होती है।

आलू में सूक्ष्म पोषक तत्वों का महत्व

                                                             

ऐसे स्थान जहां रासायनिक उर्वरकों के साथ ही गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद का प्रयोग किया जाता है, इन स्थानों पर सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी नही होती है। इसके विपरीत ऐसे स्थान जहां पर गोबर की खाद या कम्पोस्ट का उपयोग बहुत कम मात्रा या बिलकुल भी नही किया जाता है तो इन स्थानों पर सूक्ष्म तत्वों की पूर्ती करने की आवश्यकता बढ़ जाती है।

अतः मृदा की जांच के आधार पर सूक्ष्म तत्वों की पूर्ति के उपाय बुवाई के समय या फिर बीज आलू को सूक्ष्म पोषक तत्वों में भिगोकर रख्ने के बाद छाया में सुखाकर बुवाई करने से इन पोषक तत्वों की कमी को दूर किया जा सकता है। जबकि खड़ी फसल में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी नजर आने पर इन पोषक तत्वों का पर्णीय छिड़काव लाभकारी रहता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।