बुरी आदतों के स्थान पर अच्छी आदतों का अपने में समावेश करें      Publish Date : 26/02/2024

           बुरी आदतों के स्थान पर अच्छी आदतों का अपने में समावेश करें

                                                                                                                                                                                        प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार मनुष्य का चरित्र उसकी विभिन्न प्रवृत्तियों का समावेश है, और यही उसके मन के समस्त झुकावों का योग भी है। हम वैसे ही बनते हैं, जैसा कि हमारे विचार हमें बनाते है। प्रत्येक विचार हमारे शरीर पर लोहे के टुकड़े पर हथौड़े की हल्की चोट के समान हैं और उसके द्वारा हम जो बनना चाहते हैं, वही बनते जाते हैं। वाणी तो गौण ही होती है। विचार सजीव होते हैं, उनकी दौड़ बहुत दूर तक हुआ करती है। अतः तुम अपने विचारों के संबंध में सावधान रहो।

हमारे जीवन में भलाई और बुराई, दोनों का ही हमारे चरित्र गठन में समान भाग रहता है और कभी-कभी तो सुख की अपेक्षा दुख ही बड़ा शिक्षक होता है। विलास और ऐश्वर्य की गोद में पलते हुए, गुलाबों की शैय्या पर सोते हुए और कभी भी बिना आंसू बहाए, कौन महान बन पाता है? जब हृदय में वेदना की टीस होती है, जब दुख का तूफान चारों दिशाओं में गहराता है, जब मालूम होता है कि प्रकाश अब और न दिखेगा, जब आशा और साहस नष्टप्राय हो जाते है, तभी इस भयंकर आध्यात्मिक झंझावत के बीच अंतर्निहित ब्रह्म- ज्योति प्रकाशित होती है।

                                                                            

यदि कोई मनुष्य निरंतर बुरे शब्द सुनता रहे, बुरे विचार सोचता रहे, बुरे कर्म करता रहे, तो उसका मन भी बुरे सस्कारों से ही परिपूर्ण हो जाएगा और बिना उसके जाने ही वे संस्कार उसके समस्त विचारों तथा कार्यों पर अपना प्रभाव डालने लगेंगे। असल में ये बुरे संस्कार निरंतर अपना कार्य करते रहते हैं। ये संस्कार उसमें दुष्कर्म करने की प्रबल प्रवृत्ति उत्पन्न कर देंगे। वह मनुष्य तो इन संस्कारों के हाथ एक यंत्र के जैसा ही बन जाएगा।

इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य अच्छे विचार सोचे और अच्छे कार्य करे, तो उसके इन संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा ही होगा तथा उसकी इच्छा न होते हुए भी वे उसे सत्कार्य करने के लिए ही विवश करेंगे। जब मनुष्य इतने सत्कार्य एवं सत-चिंतन कर चुका होता है कि उसकी इच्छा न होते हुए भी उसमें सत्कार्य करने की एक अनिवार्य प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है, तब यदि वह दुष्कर्म करना भी चाहे, तो इन सब संस्कारों का समष्टि रूप उसका मन उसे वैसा करने से तुरंत ही रोक देगा। तब वह अपने सत्संस्कारों के हाथ एक कठपुतली जैसा ही हो जाएगा।

जब ऐसी स्थिति हो जाती है, तभी उस मनुष्य का चरित्र गठित या प्रतिष्ठित कहलाता है। यदि तुम सचमुच किसी मनुष्य के चरित्र को जांचना चाहते हो, तो उसके बड़े कार्यों पर से उसकी जांच मत करो। आप उस मनुष्य के अत्यंत साधारण कार्यों की जांच करो और असल में वे ही ऐसी बातें हैं, जिनसे तुम्हें एक महान व्यक्ति के वास्तविक चरित्र का पता लग सकता है। कुछ विशेष, बड़े अवसर तो छोटे से छोटे मनुष्य को भी किसी न किसी प्रकार का बड़प्पन दे ही देते हैं, परंतु वास्तव में बड़ा वही है, जिसका चरित्र सदैव और सब अवस्थाओं में महान रहता है।

                                                                             

मन में इस प्रकार के बहुत से संस्कार पड़ने पर यह सब इकट्ठे होकर आदत या अभ्यास के रूप में परिणत हो जाते हैं। कहा जाता है, आदत हमारा द्वितीय स्वभाव है, परन्तु केवल इतना ही नहीं, बल्कि वह तो हमारा प्रथम स्वभाव भी होता है और मुनष्य का सारा स्वभाव भी यही होता है।

हमारा आज अभी जो स्वभाव है, वह पूर्व अभ्यास का ही फल होता है। यह बुरी आदत का एकमात्र प्रतिकार भी होता है अर्थात उसकी विपरीत आदत। सभी खराब आदतें अच्छी आदतों द्वारा वशीभूत की जा सकती हैं। इस के लिए आप सतत अच्छे कार्य करते रहो और सदा पवित्र विचार मन में सोचा करो। नीच संस्कारों को दबाने का यही एकमात्र उपाय भी है।

हम सब एक रेशम के कीड़े के समान होते हैं। हम अपने आप में से ही सूत को निकालकर कोष का निर्माण करते हैं और कुछ समय के बाद उसी के भीतर कैद होकर रह जाते हैं। कर्म का यह जाल हम ने ही अपने चारों ओर बुन रखा है। अपने अज्ञान के कारण हमें यह प्रतीत होता है कि हम बंधे हुए हैं, और इसलिए सहायता के लिए हम रोते-चिल्लाते हैं, पर सहायता कहीं बाहर से तो नहीं आती, वह तो हमारे भीतर से ही आती है। चाहो, तो विश्व के समस्त देवताओं को पुकारते रहो, मैं भी बरसों पुकारता रहा और अंत में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है, पर वह सहायता मिली अपने भीतर से ही।

हम गलतियां क्यों करते हैं? हमें अज्ञानी कौन बनाता है? हम स्वयं ही हम अपनी आंखों को अपने हाथों से ढक लेते हैं तो हर ओर ’अंधेरा है’, और हम फिर ’अंधेरा है’ यह कहकर रोते हैं। अतः तुम अपने हाथ आँखों पर से हटा लो, तो चहुँओर प्रकाश ही प्रकाश है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।