कृषि में उच्च शिक्षा प्रणाली एवं विकास      Publish Date : 01/12/2023

                                                                           कृषि में उच्च शिक्षा प्रणाली एवं विकास

                                                                                                                                                                  डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं मुकेश शर्मा

                                                                          

    भारत में व्यवस्थित कृषि की उच्च शिक्षा का प्रारम्भ वर्ष 1904 एवं 1907 में मध्य किया गया जब पाँच कृषि महाविद्यालय की स्थापना की  गयी थी। वर्ष 1947 तक 17 कृषि महाविद्यालयों की स्थापना की गई जिनमें लगभग 1500 छात्रों के द्वारा प्रवेश लिया गया, जबकि भारत के प्रथम कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना पन्तनगर में वर्ष 1960 में की गई, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका की ‘लैण्ड ग्रान्ट प्रणाली’ को अपनाया गया। उसके उपरांत देश के प्रत्येक राज्य में कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जिनकी संख्या अब बढ़कर 70 हो गई है।

इन विश्वविद्यालयों के द्वारा गत वर्षों की अवधि में शिक्षा, अनुसंधान, प्रसार, प्रशिक्षण, विकास एवं प्रदेशिक, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों के प्रबन्धन के लिए निश्चित् रूप से मानव शक्ति को उपलब्ध कराया है। विश्वविद्यालयों में नई समेकित प्रणाली को लागू करने के दौरान शिक्षा तन्त्र, कक्षा प्रवेश, पाठ्यक्रम प्रणाली, शिक्षा एवं शिक्षकों की गुणवत्ता, प्रायोगिक प्रशिक्षण सम्बन्धी अनेक समस्याएं सामने आई है, जिनकी ओर हमारे कृषि विश्वविद्यालयों एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

                                                             

इसके कारण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के द्वारा अपनी तीसरी डीन कमेटी की नियुक्ति की गई थी जिसने उस समय की सभी समस्याओं का गहराई के साथ अध्ययन करेन के बाद दिसम्बर 1995 में अपनी रिपोटग् प्रस्तुत की थी और इसमें विभिन्न दुरगामी परिणाम देने वाली नीतियों की संस्तुतियाँ की गई थी।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने विश्व बैंक की सहायता से ‘कृषि मानव संसाधन विकास परियोजना’ को लागू किया जिससे देश में कृषि शिक्षा के मानकों एवं मानदण्डों का निर्धारण किया जा सके और उसके अनुपालन का निरंतर पर्यवेक्षण किया जा सके। प्रदेश चार कृषि विश्वविद्यालय इस परियोजना में शामिल हैं जो शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए नीतियों एवं संस्थागत परिवर्तनों की श्रृंखला को प्रोत्साहित करेंगे। भा0 कृ0 अ0 प0 के द्वारा स्वतन्त्र प्रत्यायन का गठन किया गया जो कि वर्तमान मानक एवं प्रत्यायन समिति का स्थान ग्रहण करेगा।

अधिकाँश कृषि विश्वविद्यालयों में संसाधनों का भारी अभाव है। कृषि सम्बन्धी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में तीव्र गति से विकास जारी है। अब यदि इन कृषि विश्वविद्यालय को पर्याप्त वित्त एवं जवाबदेही के साथ अधिक स्वायतता नही प्रदान की जायेगी तो इस बदलते हुए परिवेश में भावी चुनौतियों का सामना करना कठिन होगा।

कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना विभिन्न आयोगों और संस्तुतियों का ही परिणाम है। इन कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘लैण्ड ग्राण्ट कॉलेज’ के नमूनों पर की गई है। भारत में अब तक 70 कृषि विश्वविद्यालय और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (भा0 कृ0 अ0 प0) के चार राष्ट्रीय संस्थान ‘मानद (डीम्ड) विश्वविद्यालयों’ का दर्जा प्राप्त हैं। इन विश्वविद्यालयों को स्वयतता प्राप्त है और वे अपने अधिनियमों, कानूनों तथा विनियमों के माध्यम से नियंत्रित होते हैं।

                                                                         

इन विश्वविद्यालयों में कृषि, पशु-चिकित्सा विज्ञान, वानिकी, कृषि-अभियॉन्त्रिकी, गृह विज्ञान, डेयरी प्रौद्योगिकी, रेश्म-पालन, खाद्य-प्रौद्योगिकी, बागवानी एवं कृषि विपणन तथा सहयोग प्रशिक्षण प्रदान करने वाले निकाय और 172 कॉलेज सम्मिलत है जिनमें स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर तक की शिक्षा प्रदान की जा रही है। 

    अपनी स्थापना के बाद की इस अवधि में इन संस्थानों ने शिक्षा, अनुसंधान, प्रशिक्षण, विकास तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के प्रबन्धन के लिए राष्ट्र को मानव शक्ति प्रदान की है। इन संस्थानों मे शिक्षा, अनुसंधान तथा प्रसार कार्यक्रम एक दूसरे के लाभ के लिए समेकित कर दिए गए हैं। वहीं कृषि विश्वविद्यालयों में शिक्षा, अनुसंधान और प्रसार के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और राष्ट्रीय पूँजी के योगदान की सार्थकता के प्रसेग में ‘हरित क्रॉन्ति’ लाकर अपने योगदान को सार्थकता प्रदान की है। विश्व में कृषि शिक्षा के विशालतम जाल तन्त्र के रूप में टीम भावना को जागृत करने तथा अध्यापकों, अनुसंधानकर्ताओं, प्रसार कर्ताओं, किसानों एवं प्रशासकों आदि की सोच में स्वस्थ परिवर्तन की सम्भावनाओं में वृद्वि की है।

    नवीन कृषि शिक्षा प्रणाली को सत्यापित एवं लागू करने के दौरान भारत जैसे एक विशाल देश में इसके सन्दर्भ में कुछ कमियाँ, अनियमितताएं, त्रुटियाँ तथा अपूर्णताएं भी अनुभव की जा रही है, जिनका गहनता के साथ अवलोकन करना आवश्यक है जिससे कि पाठ्यक्रम, शिक्षण तथा शिक्षकों की गुणवत्ता, शिक्षक तथा विद्यार्थियों के आपसी सम्बन्ध, शिक्ष्ण तथा अनुसंधान की सुविधाएं, प्रयोगात्मक प्रशिक्षण, कार्य अनुभव, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों आदि में सुधार  साथ ही इसमें आधुनिक उपकरण एवं शिक्षण प्रौद्योगिकी आदि भी शामिल है। इन सब पर विचार करने के लिए भा0कृ0अ0प0 के द्वारा डा0 कीर्ती सिंह की अध्यक्षता में ‘तुतीय डीन कमेटी ऑन एग्रीकल्चर एजुकेशन इन इण्डिया’ का गठन किया गया, जिसके द्वारा अपनी रिपोर्ट वर्ष 1995, माह दिसम्बर में प्रस्तुत की।

                                                           

इस समिति के द्वारा भारतीय कृषि विश्वविद्यालयों में एकरूपता स्थापित करने की दृष्टि से शिक्षा प्रणाली, प्रवेश, परीक्षा, मूल्यांकन तथा व्यवहारिक प्रशिक्षण समेत सभी पहलुओं पर अपनी संस्तुति दी थी। कृषि शिक्षा सम्बन्धी निजी संस्थाओं में शिक्षा के स्तर में सुधार लाने के लिए भा0कृ0अ0प0 के द्वारा एक समिति का गठन किया गया जिसकी रिपोर्ट भी निर्धारित समय सीमा के अन्दर ही सबमिट कर दी गई थी।

    भा0कृ0अ0प0 के राष्ट्रीय शीर्ष एजेन्सी होने के कारण यह कृषि-शिक्षा एवं अनुसंधान के समन्वयन तथा प्रोत्साहन के लिए पूर्ण रूप से मार्गदर्शन प्रदान करती है। कृषि विश्वविद्यालयों में शिक्षा के मानकों का निगमन,, केन्द्रीय अनुदानों के आवंटन और केन्द्रीय निधियों के वितरण के लिए कृषि विश्वविद्यालयों विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) की तरह से ही कार्य करती है।

इस प्रकार कृषि विश्वविद्यालयों अब संरचनात्मक विकास, मानव शक्ति के उत्थान और कृषि विश्वविद्यालयों की गुणवत्तामें अपेक्षित सुधार के सम्बन्ध में अनेक योजनाओं का संचालन भी करती है। इसी प्रकार कृषि विज्ञान केन्द्र कृषि विश्वविद्यालयों के शिक्षा प्रसार कार्यक्रमों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विश्व बैंक की सहायतासे कृषि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने वाली प्रक्रिया की शुरूआत की जा चुकी है।

    कृषि विश्वविद्यालयों के द्वारा शिक्षकों के प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान एवं प्रबन्ध अकादमी, हैदराबाद के द्वारा किये गये सर्वेक्षण के माध्यम से यह स्पष्ट हुआ कि कुछ विश्वविद्यालयों में 50 प्रतिशत संकायों ने एक अथवा एक से अधिक प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त किया है, जबकि शेष 49 प्रतिशत ने पिछले पाँच वर्षों में कोई भी प्रशिक्षण प्राप्त नही किया है। पिछले पाँच वर्षों में लगभग 24 प्रतिशत संकायों के द्वारा दो प्रशिक्षण और लगभग 13 प्रतिशत के द्वारा 3 अथवा उससे अधिक प्रशिक्षण प्राप्त किया गया है।

                                                                           

संकाय सदस्यों के द्वारा यह प्रशिक्ष्ण कार्यक्रम प्रबन्धन, विशिष्ट क्षेत्र, कौशल अभिविन्यास तथा विभिन्न क्रियाविधयों के अन्तर्गत प्राप्त किऐ गए। इन प्रशिक्षणों में 81 प्रतिशत सदस्यों के द्वारा अपने ही देश में तथा 19 प्रतिशत सदस्यों के द्वारा विभिन्न अन्य देशों में प्रशिक्षण प्राप्त किया गया।

    भारत में कृषि उच्च शिक्षा तन्त्र सम्भवतः विश्व का सबसे बड़े शिक्षा तन्त्रों में से एक है जहा पूर्व स्नातक स्तर पर लगभाग 10,000 छात्र, स्नातकोत्तर स्तर पर 5,000 छात्र तथा पीएचडी0 स्तर पर 1,500 छात्र, देशभर में फैले कृषि विश्वविद्यालयों के 172 कालेजों के विभिन्न संकायों में प्रतिवर्ष प्रवेश प्राप्त करते हैं। भारतीय समाज की विशिष्ट आवश्यकताओं पर आधारित शिक्षा को मूल एवं आधारभूत मुद्दों से निबटने के अनुसार ही ढाला गया है।

भारत के समाजिक-आर्थिक विकास में कृषि के योगदान के बारे में बखान करने की यहाँ कोई आवश्यकता नही है, क्योंकि इस तथ्य से लगभग सभी परिचित हैं, अतः कृषि शिक्षा के माध्यम से मानव संसाधन विकास क्रॉन्तिक तथा आवश्यक है जिससे कि वर्तमान विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधार पर परम्परागत कृषि का समयानुसार नवीनीकरण सम्भव हो सकें।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।