नाडेप कंपोस्ट बनाने की विधि Publish Date : 26/11/2023
नाडेप कंपोस्ट बनाने की विधि
प्रोफेसर आर एस सेंगर
श्री नारायण राव पाण्डरी पांडे (नाडेप काका) निवासी ग्राम पुसाद, जिला यवतमाल, महाराष्ट्र के द्वारा इस विधि को विकसित किया गया है। इसमें ईंटों का एक ढांचा बनाया जाता हैं, जिसका आकार 10 फीट लंबा 6 फीट चौड़ा एवं 2 फीट ऊँचा होता है। ढांचे की चिनाई पक्के गारे से की जाती है, ताकि ढांचे का प्रयोग लंबे समय तक किया जा सके। इसकी दीवारों में स्थान-स्थान पर कुछ छिद्र छोड़ दिए जाते हैं जिससे कि समय-समय पर आवश्यकता होने पर इसमें पानी का छिड़काव किया जा सके एवं वायु का संचार भी बना रहे।
इस ढांचे के अंदर खेत खलिहान, घर एवं रसोई आदि से प्राप्त फसल अवशेष, अनुपयुक्त सामग्री, गोबर, पानी एवं मिट्टी की मात्रा के साथ सड़ाया जाता है। इस विधि के माध्यम से सडी हुई खाद बहुत उच्च गुणवत्ता वाली होती है और इसमें बेकार, अनुपयोगी एवं व्यर्थ पदार्थों का सदुपयोग भी हो जाता है।
ढांचा बनाने की विधि
9 इंच मोटी ईंट की चिनाई ऊपर दी गई लंबाई एवं चौड़ाई के अनुसार की जाती हैं। इसकी प्रथम तीन पंक्तियों में कोई छेद नहीं छोड़ा जाता, और इसके बाद, चौथी, छठी, आठवी, और दसवीं पंक्ति की चिनाई करते समय एक फीट के अंतराल पर 5 इंच चौड़ाई वाला एक छेद बनाते जाते हैं। इसके बाद 11वीं 12वीं एवं 13वीं पंक्ति में भी पुनः कोई छेद नहीं छोड़ते हैं। अब ढांचे के अंदर की जमीन को भी नीचे ईट बिछाकर उसे पक्का कर दिया जाता है।
ढांचा भरने की विधि एवं प्रयुक्त सामग्री
ढाँचें को भरने के लिए इसमें कचरा 20 से 25 कुंतल, मिट्टी 5 से 10 कुंतल, गोबर तीन से चार कुंतल, पानी 800 से 1200 लीटर, पीएसबी कल्चर चार पैकेट, एजोटोबैक्टर चार पैकेट, गोमूत्र 10 लीटर, गुड 2 किलोग्राम, हवन की राख 100 ग्राम आदि सामग्री का प्रयोग ढांचे के भरने के लिए किया जाता हैं।
बनाने की विधि
लगभग 40 से 50 किलोग्राम गोबर 10 से 150 लीटर पानी में घोलकर ढांचे की तरह पर डाल देते हैं। 8 इंच मोटी कचरे की तह को दबा-दबा कर बिछाते हैं, फिर 30 से 40 किलोग्राम गोबर 100 से बना 100-125 लीटर पानी का गोल कचरे के ऊपर डालते हैं उसके बाद लगभग 100 किलोग्राम मिट्टी को ऊपर से बिछा देते हैं। यह क्रिया ढांचे की ऊंचाई से 10 से 12 इंच ऊपर भरने तक दोहराते रहते हैं। बाद में गोबर एवं मिट्टी की मोटी परत को लगाकर इस ढांचे को ऊपर से भी बंद कर देते हैं। 70 से 80 दिन बाद गड्ढे के ऊपर 15 से 20 छेद एक मोटे डंडे की सहायता से बना देते हैं, तथा 10 लीटर गोमूत्र में पीएसबी, एजोंटोबैक्टर कल्चर के पैकेट, दो किलोग्राम गुड एवं 100 ग्राम हवन की राख को मिलाकर एक घोल तैयार कर लेते हैं।
अब इस घोल को छेद के माध्यम से गड्ढ़े में डालकर छेद को पुनः बंद कर देते हैं। इसके उपरांत 30 से 40 दिन के बाद एक उत्तम क्वालिटी की खाद तैयार हो जाती है। इस प्रकार एक बार प्रयोग की जाने वाली खाद 100 से 120 दिन में पूर्ण रूपेण तैयार हो जाती है।
खाद निकालना तथा उसके रख-रखाव की विधि
100 से 120 दिन के उपरांत खाद इस तैयार को निकाल कर किसी छनने से छान लेते हैं और बिना सड़े पदार्थों को अलग कर लेते हैं और इस खाद को किसी छायादार स्थान पर ढककर रख देते हैं, और बिना सड़े पदार्थों का उपयोग गड्ढ़े को पुनः भरने में कर लिया जाता हैं। इस प्रकार एक बार में 30 कुंतल के लगभग अच्छी तरह से सड़ी हुई खाद प्राप्त हो जाती है। एक वर्ष में तीन बार गड्ढ़े की भराई करने पर लगभग 100 कुंतल खाद आसानी से प्राप्त की जाती है।
नाडेप कंपोस्ट खाद में तत्वों की उपलब्धता
इस विधि से प्राप्त खाद में नाइट्रोजन 0.75 से 1.75 प्रतिशत, फास्फोरस 0.70 से 0.90 प्रतिशत, पोटाश 1.20 से 1.40 प्रतिशत और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व पौधों/फसलों की आवश्यकता के अनुसार मौजूद रहते हैं।
खाद प्रयोग की मात्रा एवं उसकी विधि
तिलहनी एवं दलहनी फसलों में 50 से 60 कुंतल प्रति हेक्टेयर, गेहूं-धान आदि में 90 से 100 कुंतल प्रति हेक्टेयर, सब्जी वाली फसलों में 120 से 150 कुंतल प्रति हेक्टेयर खाद खेत की प्रथम जुताई के समय प्रयोग की जाती है।
किसी भी एक खेत में लगातार 3 वर्ष तक उपरोक्त खाद का प्रयोग करते हुए फसल चक्र के सिद्धांत का पालन किया जाए तो प्रथम वर्ष में रासायनिक उर्वरकों की मात्रा का 50 प्रतिशत, द्वितीय वर्ष में 75 प्रतिशत एवं तृतीय वर्ष में शत-प्रतिशत प्रयोग करना बंद किया जा सकता है और इससे भरपूर उपज भी प्राप्त की जा सकती है।
नैडप कंपोस्ट प्रयोग के लाभ
यदि किसी खेत में वर्ष में एक बार फसल लेने के पूर्व नापेड कंपोस्ट का प्रयोग किया जाए तथा लगातार 3 वर्ष तक इसका ही प्रयोग किया जाए तो खेत एवं फसल पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है-
- इसका प्रयोग करने से चौथे वर्ष रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग पूर्ण रूप से बंद किया जा सकता है।
- भूमि की जल धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है तथा गेहूं जैसी फसल को एक पानी कम देने के उपरांत भी फसल की पैदावार पूरी ही प्राप्त होती है।
- फसलों में कीट तथा व्याधि के प्रकोप को 50 से 75 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
- फसलों से प्राप्त उपज का स्वाद अच्छा होता है बाजार में 10 से 20 प्रतिशत अधिक मूल्य पर बेची जा सकती है।
- जमीन को ऊसर तथा बंजर होने से भी बचाया जा सकता है।
- खेती की लागत को 20 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
इस विधि से जिन फसलों एवं सब्जियों को उगया जाता है, वह जैविक विधि से उगाई गई फसल होती है। अतः बाजार में इन सब्जियों एवं फसलों की कीमत अच्छी मिलती है, जिससे किसानों की आय भी बढ़ती है तथा यह खेती भी इको फ्रेंडली होने के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति भी यथावत बनी रहती है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।