वर्षा एवं गरमी के नित टूटते रिकार्ड्स      Publish Date : 30/09/2023

                                                              वर्षा एवं गरमी के नित टूटते रिकार्ड्स

                                                                 

    ‘‘गुजरे कुछ तीन दशकों में गंगा के मैदानी क्षेत्रों और पूर्वोत्तर भारत में बारिश औसत से कम हो रही है, जबकि यह उत्तर पश्चिम भारत में अधिक हो रही है, जो कि जलवायु में परिवर्तन का ही एक स्पष्ट प्रभाव है’’।

    वर्तमान दौर में भारत में नित बदलता मौसम अब एक चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। ग्रीन हाउस गैसों का बढ़ता हुआ उत्सर्जन और इसके कारण पैदा होने वाली वैश्विक गरमी भी अब मानव एवं अन्य जन्तु तथा पेड़-पौधों की सेहत पर अपना प्रभाव दिखा रही है। हमारा ग्रह धरती का वातावण पहले से अर्थात 1850 के दशक, औद्योगिक-पूर्व काल के सापेक्ष 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक गरम हो चुका है, हालांकि यह एक औसत आँकड़ा ही है। जबकि दुनिया भर के अलग-अलग भागों जैसे कि विशेष रूप से भारत के उत्तराखण्ड़ और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में तापमान में होने वाली यह वृद्वि अधिक भी हो सकती है।

    इस प्रकार से देखा जाए तो प्रत्येक डिग्री सेल्सियस तापमान के बढ़ने पर वातावरण में नमी के स्तर में 7 से 8 प्रतिशत तक की वृद्वि हो जाती है। इसके फलस्वरूप, बादल सामान्य से कहीं अधिक बड़े, ऊँचे और भारी हो जाते हैं, जिसके चलते तीव्र बारिश के होने की आशंका काफी बढ़ जाती है।

    चूँकि घने और ऊँचे बादलों में बर्फ के क्रिष्टल्स अधिक और आकार में भी बढ़े होते हैं, जिसके चलते बिजली अधिक तेज चमकती है अथवा गरज के साथ आसमानी बिजली गिरने की घठनाएं बढ़ जाती हैं। वातावरण में प्रत्येक डिग्री तापमान के बढ़ने से बिजली चमकने की आवृति में 12 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो जाती है, और यही कारण है जिसके चलते केवल भारत में ही नही अपतिु पूरी दुनिया में आसमानी बिजली गिरने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। भारत में वर्ष 2000 से 2021 के मध्य 49,000 से अधिक लोगों की मौत बिजली गिरने के चलते दर्ज की गई हैं, जबकि इस वर्ष भी बिजली के गिरने के कारण मरने वालों की संख्या कुछ कम नही है। इस वर्ष भारत में, 2,000 से अधिक मौते बारिश से ही हुई हैं, जबकि अकेले बिहार राज्य में 500 से अधिक लोग बारिश के चलते ही मारे गए थे।

                                                                

    जलवायु परिवर्तन का एक और दुष्परिणाम बारी-बारी से बारिश तथा गर्मी का बढ़ना भी है। इसमें आरिश बहुत तीव्र होती है और अवधि बहुत छोटी होती है। वर्तमान में पाँच से सात दिनों के अन्दर ही पूरे सीजन की बारिश हो जाती है। विगत जुलाई के महीने में राजस्था और गुजरात में ऐसा ही हुआ था। इसी प्रकार जलवाायु परिवर्तन के चलते गरमी की मारकता पहले से अधिक बढ़ाई है, जो कि आगे भी ऐसे ही बढ़े रहने या इसमें वृद्वि होने की आशंकाएं भी जताई जा रही है। इसके अर्न्त्गत तेज गड़गड़ाहट, चक्रवाती तूफान आदि आसमानी घटनाओं के कसाथ भी बारिश पहले से अधिक बारम्बारता में होने लगी है।

    हाल के वर्षों के दौरान अरब सागर में तेज गरमी देखी गई है, यही कारण कि अब वहाँ से उठने वाले चक्रवात पहले से अधिक विनाशकारी सिद्व हो रहे हैं।  इसी के चलते हमारे पहाड़ी राज्यों के ऊपरी भागों में पहले से कहीं अधिक तेज बारिश देखी जा रही है, जिसके चलते अचानक बाढ़ और निचली घाटियों में जल-प्रलय की स्थिति बन जाती है। पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश ने ऐसे ही नुकासानों को झेला जिनसे वह अभी तक भी उबर नही पाया है।

                                                                     

    यह जलवायु परिवर्तन का ही प्रभाव है कि गत तीन दशकों के दौरान गंगा के मैदानी क्षेत्रों और पूर्वोत्तर भारत में तो बारिश कम हो रही है, जबकि उत्तर-पश्चिम भारत, पश्चिमी घाट, तमिलनाडु, रॉयलसीमा और तेलंगाना जैसे क्षेत्रों की बारिश में बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है। इसी के साथ देश के अन्य हिस्सों में बारिश अथवा सूखे का अनुभव साथ-साथ ही किया जा रहा है। इसमें यदि सूखे की स्थिति खरीफ मौसम की फसलों की बुआई के समय बनती है तो इससे हमारी कृषि भी प्रभावित होती है, जैसा कि अगस्त में ही हुआ था। इसके चलते दलहन, तिलहन एवं अन्य प्रकार की वर्षा आकधारित फसलों को लेकर किसान वर्ग की चिन्ताएं बढ़ना तो स्वाभाविक है ही।

    ज्लवायु परिवर्तन से बरसात के दिन तो कम हो ही रहें हैं, परन्तु इसमें तेज बारिश के होने की घटनाओं में वृद्वि दर्ज की गई है, और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि आगमी कुछ वर्षों के दौरान वैश्विक गर्माहट में 1.5 से 2.0 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्वि होने के साथ ही मानसूनी बारिश में भी तेजी आयेगी अतः हमें अपने जल संचयन एवं प्रबन्धन के विकल्पों पर पुर्नविार करना होगा, जिससे कि जब कभी भी इस प्रकार की बाशि आती है तो हम उस अतिरिक्त वर्षा-जल का भण्ड़ारण एवं उसका बंटवारा सुगमतापूर्वक कर सकने में सक्षम हों।

    अब मौसम के मिजाज में इस प्रकार के बदलाव आम हो चले हैं कि जिनमें कभी तो बारिश का रिर्काड टूट रहा तो कभी गरमी का और ऐसा हाने का कारण यह है कि जब भी पश्चिमी विक्षोभ और निम्न मानसून के मध्य परस्पर क्रिया होती है, इसके फलस्वरूप उन क्षेत्रों में तंज बारिश होने लगती है।हालांकि भारी बारिश की ऐसी स्थिति तीन से लेकर पाँच दिन तक ही रहती है जैसा कि पिछले माह हिमाचल प्रदेश में हुआ था। बारिश की तेजी अपने पिछले सारे रिकार्ड्स को तोड़ती हुई नजर आती है तो इसी के सापेक्ष गरमी की तेजी भी साल दर साल बढ़ती जा रही है, गरम मौसम की घटनाओं की आवृति को बढ़ाने के लिए जलवायु परिवर्तन ही अकेला जिम्मेदार कारक है। वैशिवक गरमी बढ़ने साथ ही इसमें और भी अधिक वृद्वि होने की आशंकाएं जताई जा रही हैं।

                                                                 

    ऐसा देखा गया है कि गंगा के कुछ इलाकों में तो भारी बारिश, तो इसके दूसरे इलाकों में सूखे की स्थिति बनी रहती है। असल में मानसूनी वर्षा विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि बल-नीनो, हिन्द महासागर डाई-पोल, जिसके चलते एक ही समय के दौरान देश के विभिन्न भागों में कहीं भारी बारिश तो कहीं सूखे की स्थितियों का समाना करना पउ़ रहा है और यह ीवह कारण है जिसके चलते अगस्त ताह के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में मौसम शुष्क ही रहा।

    इस प्रकार से होने वाले मौसम के परिवर्तन मानव स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक होते हैं और कभी-कभी तो यह तेज गरमी मौत का कारण भी बन जाती है। हीट वेव प्रबन्धन इसके प्रभाव को कम करने में सहायक हो सकता हैै। दूसरी ओर बारिश के बाद होने वाली गरमी और कभी डेंगू, चिकनगुनिया आदि के जैसे अनेक रोगों के वाहक मच्छरों के प्रजनन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बन जाती हैं। इस मौसम में जल भी प्रदूषित होता है तों इससे मलेरिया और डायरिया के जैसी जल-जनित बीमारियों के बढ़ने का खतरा भी बना रहता है और इसी कारण बढ़ा हुआ प्रदूषण अस्थमा और फेफड़ों के संक्रमण का कारण भी बन जाता है।

    ऐसे में आवश्यक है कि मौसम की चरम स्थितियों से बचने के लिए ठोस कदम उठाए जाना ही वक्त की माँग हैं। जीवन-यापन से सम्बन्धित तमाम बंनियादी ढाँचे को भविष्य में होने वाली परिस्थितियों के अनुकल ही तैयार करना होगा और जोखिमों की पहिचान करने के लिए समस्त बुनियादी ढाँचों एवं प्रणालियों का ऑडिट करना भी आवश्यक है, जिससे कि जोशीमठ के बासपास वाले इलाकों में देखे गए भू-स्खलन के जैसी स्थितियों से बचने के लिए समय-पूर्व ही उपाय किए जा सकें। समस्त विकास योजनाओं को विभिन्न प्रकार के जाखिमों के सन्दर्भ में ही तैयार करना होगा, इसी प्रकार से हम अपनी आर्थिक गतिविधियों में बाधाएं आने से रोक पाने में सफल हो सकेंगे। बारिश की अधिकता को ध्यान में रखते हुए अब हमें आपने प्रत्येक किसान परिवार खेत में ही तालाब बनाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा, जिससे कि लम्बी गरमी और कम बारिश की स्थिति में उनके पास सिंचाई की एक वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध हो।

                                                              

    इस परिस्थिति में आम आदमी का उत्तरदायित्व भी काफी बढ़ जाता है। नालियों एवं डूब क्षेत्र के अतिक्रमण जैसी मानसिकता से भी हमें पार पाना ही होगा, जिससे कि पानी के बहने का प्राकृतिक मार्ग बाधित नही होने पाएं। आपदा प्रबन्धन और जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों के द्वारा समय-पूर्व चेतावनियों के प्रति बढ़ती हुई माँगों के चलते अब मौसम और जलवायु वैज्ञानिकों का कार्य भी अब काफी बढ़ चुका है, अब लोगों को उनके साथ ही कदम-ताल मिलाने की आदत का विकास कर लेना चाहिए।