सरकारी फाइलों से बाहर निकलें महिला कल्याण योजनाएं      Publish Date : 11/06/2025

   सरकारी फाइलों से बाहर निकलें महिला कल्याण योजनाएं

                                                                                                                               प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता

महिलाओं को बराबरी का हक देने की बातें सरकारी स्तर पर तो बहुत की जाती हैं लेकिन यदि इमानदारी से देखा जाए तो वास्तविकता इसके बिलकुल उलट ही दिखाई देती है।

दुनिया की आधी आबादी, यानी महिलाओं के सशक्तीकरण को लेकर सरकार की योजनाओं को देखकर लगता है कि इस दिशा में काफी काम किया जा रहा है। लेकिन जब इन योजनाओं के क्रियान्वयन पर नजर डालते हैं तो लगता है कि योजनाओं के नाम पर केवल ढोल पीटने का काम होता है। इसका ताजा उदाहरण राजस्थान रोडवेज की ओर से बस स्टैंडों पर बनने वाले शिशु वात्सल्य कक्षों के हस्र का है। ये कक्ष इसलिए बनाए जाने थे ताकि बस स्टैंडों पर बस के इंतजार में बैठी माताएं अपने शिशुओं को निःसंकोच स्तनपान करा सकें। इसके लिए पांच वर्ष पहले बाकायदा आदेश जारी किए गए थे।

वैसे तो यह व्यवस्था अभी तक सभी जगह लागू हो ही नहीं पाई और जहां लागू हुई भी है तो इन वात्सल्य कक्षों का कोई दूसरा ही उपयोग ही किया जा रहा है।

बात केवल शिशु वात्सल्य कक्ष की ही नहीं, बल्कि महिलाओं से संबंधित अन्य योजनाएं भी समुचित निगरानी के अभाव में दम तोड़ती नजर आ रही हैं। गर्भवती महिलाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना बनाई गई है।

लेकिन प्रक्रिया की जानकारी के अभाव में कई जरूरतमंद माताओं को इस योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा। इसी तरह उज्ज्वला योजना के तहत रसोई गैस सिलेंडर देने की पहल सराहनीय तो है लेकिन रसोई गैस की बढ़ती कीमतों के चलते कई लाभार्थी इस सुविधा का पूरा लाभ नहीं ले पाते। महिलाओं की सुरक्षा और सुविधा के लिए चलाई जा रही विभिन्न योजनाएं भी महज कागजों तक ही सीमित रह जाती हैं।

                                                          

हालत यह है कि ‘‘निर्भया फंड’’ के तहत बनाए गए महिला सुरक्षा केंद्रों की हेल्पलाइन भी कहीं-कहीं ही काम करती दिखती है। स्कूली बालिकाओं को सेनेटरी नेपकिन निःशुल्क वितरण करने के दावे तो सरकारी स्तर पर खूब होते हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में तो बालिकाओं को इस सुविधा की जानकारी तक नहीं होती है।

महिलाओं से जुड़ी योजनाएं सिर्फ इन्हें वोट बैंक समझकर ही घोषित होने लग जाए तो फिर योजनाओं का ऐसा ही हश्र होता है। रोडवेज बस स्टैंडों पर वात्सल्य कक्ष बनाने का आदेश भी कहां हवा हो गया, किसी को पता नहीं। तभी तो जहां ये केन्द्र बने भी हैं वे या तो स्टोर के रूप में काम आ रहे हैं या फिर किराए पर उठा दिए गए हैं। सवाल सिर्फ योजनाएं बनाने का ही नहीं, इनके समुचित क्रियान्वयन का भी है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।