पर्यावरण सेवा के बदले ग्रीन बोनस      Publish Date : 28/05/2025

                   पर्यावरण सेवा के बदले ग्रीन बोनस

                                                                                                                                               प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

भारतीय हिमालयी राज्यों के जंगल प्रतिवर्ष 944.33 अरब रुपये के मूल्य के बराबर पर्यावरण की सेवा करते है। इसको ध्यान में रखते हुए हिमालयी राज्यों की सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही हैं।

भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (32,87263 वर्ग किमी) में से 16.3 फीसदी (5,37,435 वर्ग किमी) में फैले 11 हिमालयी राज्यों में अभी तक 45.2 फीसदी क्षेत्र में जंगल मौजूद हैं, जबकि देश में केवल 22 फीसदी भूभाग में ही जंगल हैं, जो स्वस्थ पर्यावरण मानक 33 फीसदी से भी कम है।

भारतीय हिमालयी राज्यों की ओर गौर किया जाए, तो यहां से निकल रही हजारों जीवनदायिनी नदियों को एक जल टैंक के रूप में देखा जाता है, जिसके कारण देश की लगभग 50 करोड़ की आबादी को पानी मिलता है। मैदानी भू-भाग से भिन्न हिमालयी संस्कृति वनों के बीच पली-बढ़ी है। यहां के बनवासी समाज जंगलों की रक्षा एक विशिष्ट वन प्रबंधन के आधार पर करते आ रहे हैं। अधिकांश गांवों ने अपने जंगल पाले हुए हैं, जिस पर अतिक्रमण और अवैध कटान रोकने के लिए चौकीदार रखे हुए हुए हैं। ये वन चौकीदार अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न नामों से पुकारे जाते हैं, जिसका भरण-पोषण गांव के लोग करते हैं। कई गांव के जंगलों में तराजू लगे हुए हैं, जिसमे जंगल से आ रही घास. लकड़ी का जिसके ०-४० किलो तक लाना ही मान्य है, जिसकी वन चौकीदार नियमित जांच करते हैं।

इस पुश्तैनी वन व्यवस्था को तब झटका लगा, जब अंग्रेजों ने वनों के व्यावसायिक दोहन के लिए 1927 में वन कानून बनाया था। आजादी के बाद भी इसी कानून के अनुसार वन व्यवस्था चली आ रही है, जिसके कारण पर्यावरण की सर्वाधिक सेवा करने वाले वन और वनवासी की हैसियत कम हो गई है। राज्य की व्यवस्था ऐसी है कि वे जब चाहें किसी भी जंगल को विकास की बलिवेदी पर चढ़ा सकते हैं।

यहां सरकारी आंकड़ों के आधार पर ध्यान देना होगा कि हिमाचल प्रदेश में 66.52, उत्तराखंड में 64.79, सिक्किम में 82.31, अरुणाचल प्रदेश 61.55, मणिपुर में 78.01, मेघालय में 42.34, मिजोरम में 79.30, नगालैंड में 55.62. त्रिपुरा में 60.02 और असम में 34.21 फीसदी वन क्षेत्र मौजूद हैं। वनों की इस मात्रा के कारण जलवायु पर भारतीय हिमालय का नियंत्रण है।

सन 2009 में कोपनहेगन में हुए जलवायु सम्मेलन में भाग लेने से पहले हुई जन सुनवाइयों में लोगों ने हिमालय के विशिष्ट भू-भाग और मौजूदा प्राकृतिक संसाधन और इससे आजीविका चलाने वाले समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए ग्रीन बोनस की मांग की। भारत के तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने भी हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस दिए जाने को सैद्धांतिक स्वीकृति दी। वैसे चिपको, रक्षासूत्र, मिश्रित वन संरक्षण आंदोलनों से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता वर्षों से हिमालय के लोगों के लिए ऑक्सीजन रॉयल्टी की मांग कर रहे हैं। पर्यावरण की सेवा सबसे अधिक जंगल करते हैं। यह सर्वविदित है कि मिट्टी और नमी के उत्पादन में वनों की अहम भूमिका है।

विकसित देशों के सामने कार्बन उत्सर्जन की कीमत का आकलन प्रस्तुत करने के उ‌द्देश्य से गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो एस. पी. सिंह ने एक आंकड़ा प्रस्तुत किया है, जिसमें कहा गया कि भारतीय हिमालयी राज्यों के जंगल प्रतिवर्ष 944.33 अरब रुपये के मूल्य के बराबर पर्यावरण की सेवा करते हैं। कार्बन के प्रभाव को कम करने में बनों का बड़ा महत्व है। इसमें हिमालयी राज्यों के वन जैसे जम्मू-कश्मीर में 118.02, हिमाचल में 42.46, उत्तराखंड में 106.89, सिक्किम में 14.2. अरुणाचल में 232.95, मेघालय में 55.15, मणिपुर में 59.67, मिजोरम में 56.61, नगालैंड में 49.39, त्रिपुरा में 20.40 अरब रुपये मूल्य के बराबर पर्यावरण सेवा देते हैं।

इसको ध्यान में रखते हुए हिमालय हिमालयी राज्यों की सरकारें ग्रीन बोनस की मांग कर रही हैं। 15 जून 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई नीति आयोग की गवर्निंग कांउसिल की बैठक में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विवेन्द्र सिंह रावत ने ग्रीन बोनस की मांग उठाई है। लेकिन नीति आयोग की तरफ से सामने आए रोड मैप में इसे कोई स्थान नहीं मिला है। इसी तरह हिमालय के बनीं के योगदान की बार-बार अनदेखी हो रही है। लेकिन ग्रीन बोनस की मांग का औचित्य भी तभी होगा, जब वनवासियों को वन भूमि पर मालिकाना हक मिले। महिलाओं को रसोई गैस में पचास फीसदी की छूट हो। पर्वतीय इलाकों में भूचरण रोका जाए। वनों में आग पर नियंत्रण हो और वृक्षारोपण के बाद पेड़ों रक्षा करने वाले लोगों को आर्थिक मदद मिले। गांव में जहां लोगों ने जंगल पाले हुए हैं, उन्हें सहायता दी जाए। पहाड़ी सीढ़ी नुमा खेतों का सुधार किया जाए। जल संरक्षण व छोटी पन-बिजली के निर्माण पर जोर दिया जाए। महिलाओं को घास, लकड़ी. पानी सिर और पीठ पर बुलाई करने के बोझ से छुटकारा मिलेर बढ़ाने के लिए राज्यों को भी अपने बजट में ग्रीन बोनस रखना चाहिए। इससे केंद्र सरकार को भी आईना दिखाया जा सकता है। तभी हिमालको पहरेदारी करने वाले पेड़ों और लोगों की जीविका ग्रीन बोनस से बेहतर हो सकती है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।