
सच्ची प्रार्थना किसे कहा जाए? Publish Date : 08/05/2025
सच्ची प्रार्थना किसे कहा जाए?
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
प्रार्थना का अर्थ कुछ शब्दों को बार-बार दोहराना या मंत्रों का जाप करना नहीं है। प्रार्थना कोई जादुई मंत्र नहीं है कि उसका जप हम करें और बिना किसी कठोर श्रम किए उसका कोई चमत्कारिक फल हमें प्राप्त हो जाएगा। किसी निश्चित शब्द विन्यास के जप से ईश्वर को मोहकर उससे अपना लाभ सिद्ध करा लेने की शक्ति हममें होती, तो ईश्वर के स्थान पर हम ही बैठे होते। प्रार्थना मन से ही नहीं, शब्दों द्वारा ही नहीं, कर्म द्वारा भी की जाती है। ईश्वर की दृष्टि में वह व्यक्ति भी रहते हैं जो कठिन श्रम करते हैं, परंतु जिनके पास घंटों बैठकर पूजा-अर्चना करने का समय नहीं होता।
वस्तुतः हमारी हर श्वास एक प्रार्थना है। हम श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर होने के लिए पूर्ण मनोयोग से लगे हैं। अधम होकर जीना किसे अच्छा लगता है। निकृष्ट कार्य करने वाला भी मन ही मन जानता है, वहां तुष्टि है, आनंद नहीं। जाने-अनजाने परिष्कृत मन, परिष्कृत आत्मा हर किसी की प्रार्थना में है। हमारा सारा जीवन ही प्रार्थना है, जो सहज रूप से इस जीवन को जीते हैं, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं, उनकी प्रार्थना ईश्वर ध्यान से सुनते हैं. क्योंकि उनके शरीर की एक-एक कोशिका प्रार्थनामय है।
इस बात की प्रार्थना कि-हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति देना कि मृत्यु से पूर्व मैं अपने समस्त कर्तव्यों का निर्वाह कर सकूं। ईश्वर भाषा विज्ञानी नहीं हैं। वह शरीर से उत्सर्जित होने वाली स्वाभाविक तरंगों को शीघ्रता से पढ़ते-समझते हैं।
शब्दों में व्यक्त प्रार्थना आपको दीन-हीन सिद्ध करती है। जैसे किसी साहूकार के समक्ष कोई निर्धन बैठा भीख मांग रहा हो। शरीर को कर्म-यज्ञ में होम करने वाला व्यक्ति भिक्षा नहीं मांगता, इच्छा करता है। उसकी इच्छा भी भविष्य के किसी सुकर्म को पोषित करने वाली ही होती है। उसकी इच्छा ही प्रार्थना बन जाती है। स्वामी विवेकानंद ने कितनी सुंदर बात कही है कि यदि तुम शब्दों के एक विन्यास मात्र को ही प्रार्थना कहते हो तो तुम प्रार्थना को छिछला बना रहे हो।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।