सिंचाई प्रबन्धन एवं वाटरशेड प्रबन्धन Publish Date : 11/08/2023
सिंचाई प्रबन्धन एवं वाटरशेड प्रबन्धन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता
वर्ष 2025 में हमारी खाद्यान्न की आवश्यकता 30 करोड़ टन के आस-पास मानी जा रही है। अतः देश की निरंतर बढ़ती आबादी हेतु खाद्यान्न एवं जल की सतत् आपूर्ति हेतु उपलब्ध सीमित संसाधनों, जिनमें मुख्यतः मृदा और जल का कुशलतापूर्वक उपयोग करना अति अनिवार्य है। कृषि विकास एवं प्रगति के लिए हमें जल संरक्षण और उसके सही उपयोग के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना अनिवार्य है।
जल इस पृथ्वी पर सभी प्राणियों के लिए एक अति-महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन है। यह प्रकृति की ओर प्रद्वत एक निःशुल्क उपहार है। कृषि की उपज बढ़ानें में जल की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। विगत कई दशकों से फसल उत्पादन के सबसे महत्वपूर्ण घटक सिंचाई जल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण इसकी उपलब्धता निरंतर कम होती जा रही है, जो टिकाऊ फसलोत्पादन के लिए शोचनीय एवं चिन्ता का विषय है। पानी की अधिकता, गुणवत्ता और कमी के आधार पर ही नई फसल उगाने और फसल चक्र अपनाने का निर्णय लिया जाता है।
वर्षा पर निर्भर रहने वाले हमारे देश के लगभग 53 प्रतिशत भाग में पानी की कमी से निपटनें के लिए अनेक तकनीकें विकसित की गई हैं। विश्च के अन्य देशों की तुलना में भारत में पानी के अच्छे स्रोत उपलब्ध हैं। परन्तु बढ़ती जनसंख्या के साथ ही प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता कम होती जा रही है।
एक अनुमान के अनुसार फसलों की सिंचाई के लिए उपलब्ध जल का 80 प्रतिशत भाग ही उपयोग किया जाता है। विभिन्न राज्यों के औसत सिंचित क्षेत्र का अवलोकन करें तो उत्तर प्रदेश में सकल सिंचित क्षेत्र 78 प्रतिशत, राजस्थान में 38 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 39 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 19 प्रतिशत है। केरल और कर्नाटक में वर्षा अधिक होती है, लेकिन वहां सिंचाई की संभावानाएं बेहद कम है, जबकि हरियाणा एवं पंजाब में सिंचाई की संभावानाएं अधिक हैं, परन्तु वहां वर्षा कम होती है। इन प्रदेशों में लगभग 65 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र में भूमिगत जल-स्रोतों का उपयोग किया जाता है, जिसके चलते अन्य कार्यों के लिए ताजा पानी नही मिल पाता है।
जल प्रबंधन की दिशा में भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम जैसे- ‘प्रति बून्द अधिक फसल‘ एक सुनियोजित एवं आवश्यक कदम है। वर्ष 2025 में हमारी खाद्यान्न की आवश्यकता 30 करोड़ टन के आस-पास आंकी जा रही है। अतः देश की निरंतर बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्यान्न एवं जल की सतत् आपूर्ति के लिए उपलब्ध सीमित संसाधनों मुख्यतः मृदा और जल का कुशलतापूर्वक सदुपयोग अनिवार्य है। देश में पानी के परंपरागत स्रोत कम और वर्षा एवं बेतरतीब दोहन के चलते समाप्त होने के कगार पर हैं।
अतः वर्षा-जल का अधिकतम संरक्षण और बहते जल को जलागम में एकत्रित कर पुनः उपयोग की आवश्यकता है। सिंचाई प्रबन्धन, जल संरक्षण एवं जल की समस्या को दमर करने के लिए हम प्रतिवर्ष 22 मार्च को ‘विश्व जल दिवस‘ के रूप में मनाते हैं। इस अवसर पर पानी को बचाने से लेकर सब तक पानी को पहॅंचाने की बात होनी चाहिए, जिससे कि पानी की एक-एक बून्द से अधिकाधिक कृषि-उत्पादन लिया जा सके। कृषि के विकास एवं प्रगति के लिए हमें जल संरक्षण एवं उसके सदुपयोग के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
सरकारी योजनाएं और सरकारी प्रयास
केन्द्र सरकार ने ‘हर खेत को पानी‘ के लक्ष्य के साथ प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की शुरूआत की है। पीएमकेएस योजना का उद्देश्य सिंचाई के संसाधन विकसित करने के साथ-साथ वर्षा के पानी को छोटे स्तर पर जल संचय करना तथा जल का विवेकपूर्ण वितरण करना है। इस योजना के तहत देश के प्रत्येक जिले में हर खेत तक पानी को पानी उपलब्ध कराना है।
ड्रिप सिंचाई प्रणाली में किसानों को केन्द्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा सब्सिडी भी प्रदान की जा रही है। जिला कृषि विभाग के कार्यालय में जाकर किसान भाई इन योजनाओं के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। सरकारी बैंकों के द्वारा भी इन योजनाओं को अपनाने के लिए ऋण सुविधाएं भी प्रदान कर रहे हैं। इन सब प्रयासों से ड्रिप संचाई के तहत क्षेत्रफल में वृद्वि भी हो रही है। इसके अलावा, अनुसंधान संस्थाओं, इनपुट एजेंिसयों नीति नियामकों, उद्यमी किसानों के सामूहिक प्रयासों के द्वारा भी ड्रिप फर्टिगेशन को बढ़ावा मिल रहा है।
वर्षों से लंबित मध्यम एवं दीर्घ सिंचाई योजनाओं को पूर्ण करने का कार्य भी काफी तेजी के साथ किया जा रहा है। जल संचय एवं जल प्रबंधन के साथ वाटरशेड विकास का कार्य भी तेजी से कार्यान्वित हो रहा है। मनरेगा के तहत किसानों के खेत पर तालाब निर्माण किए जा रहे हैं। सौर ऊर्जा चालित पंपसेट किसानों को सब्सिड़ी पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। खेती में सिंचाई के लिए पक्की नालियों का निर्माण करना व सिंचाई हेतु पीवीसी पाइपों का उपयोग भी लाभदायक सिद्व हो रहा है।
जल-संसाधन
धरातल का दो-तिहाई भाग पानी से घिरा है, परन्तु इतनी बड़ी मात्रा में जल के उपलब्ध होने के बावजूद भी इस जल का मात्र दो से तीन प्रतिशत ही उपयोग किया जा सकता है। यहां यह बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि भारत में विश्व की कुल जनसंख्या का 17 प्रतिशत भाग निवास करता है, जबकि इसके सापेक्ष जल की उपलब्धता मात्र चार प्रतिशत ही है।
इस स्थिति में जल का प्रबंधन एक चुनौति बन जाता है। अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान, कोलम्बो सहित अनेक राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों का अनुमान है कि भविष्य में जल की कमी एक गम्भीर एवं दीर्घ समस्या होगी। आज विश्व एवं देश में जल स्रोतों की मात्रा एवं क्षमता में तेजी से कमी आ रही है।
भारतीय कृषि की एक मुख्य समस्या सिंचाई जल की है क्योंकि देश में सिर्फ 45 प्रतिशत कृषि भूमि ही सिंचित है जो मुख्यतः भू-जल पर ही निर्भर है। पूरे देश में सिंचाई के लिए 60-65 प्रतिशत भूमिगत जल का ही उपयोग किया जाता है। भूजल संरक्षण के लिए हमें इस परंपरा को रोकना होगा। इस समस्या के समाधान हेतु भविष्य में जल का उचित एवं विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित् करना होगा।
तालाबों का रख-रखाव एवं देखभाल
पानी के संरक्षण एवं खेतीबाड़ी के लिए तालाब बेहद आवश्यक हैं। कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 8 प्रतिशत भाग में तालाबों के द्वारा ही सींचा जाता है, साथ ही तालाबों के माध्यम से भू-जल स्तर को ऊपर उठाया जा सकता है। दूसरा, तालाबों के माध्यम से ही वर्षा जल को संरक्षित किया जा सकता है।
आज देश के अनेक हिस्सों में तालाबों की स्थिति बदतर है, तालाबों की जमीन पर अवैध कब्जे किए जा रहे हैं जिससे उनके आकार एवं जलसंग्रह की क्षमता कम होती जा रही है। आज के समय में इन तालाबों को पुनः जीवित करने और आम लोगों को तालाबों के महत्व के प्रति जागरूकता फैलाला निःतांत आवश्यकता है। अनेक पर्यावरणविदों एवं जल-विशेषज्ञों के प्रयासों से देश के तालाबों एवं जलाशयों की हालतों में सुधार तो नजर आ रहे हैं।
यदि आंकड़ों की बात करें तो देश में सर्वाधिक जलाशय एवं तालाब दक्षिण भारत में हैं। यह तालाब बिना किसी देख-रेख एवं रख-रखाव के अब सूखते ही जा रहें हैं। यदि इन तालाबों की देखभाल एवं रखरखाव उचित तरीके से किया ध्यान दिया जाए तो देश में गिरते भूजल स्तर की समस्या को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।
भू-जल एवं ट्यूबवैल
सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के चलते आज हम कृषि की उत्पादकता को बढ़ानें में सफल हो चुके हैं, जिससे देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है। भू-जल के अविवेकपूर्ण दोहन के फलस्वरूप आज भू-जल देश के भागों में ‘डार्क जोन‘ पहुंच गया है, एक अनुमान के अनुसार इन क्षेत्रों का भू-जल स्तर 30-40 सें.मी. प्रति वर्ष की दर सें नीचे गिरता जा रहा है।
यह गिरता भूजल स्तर आज हम सबके लिए अत्यंत चिंता का विषय है, क्योंकि यह समस्या किसी एक विशेष क्षेत्र की न होकर पूरे देश की एक ज्वलंत समस्या है औ यह गिरता हुआ भूजल-स्तर हमारी भावी पीढ़ियों के लिए एक बड़ी चुनौति बनता जा रहा है। गत कई दशकों से उद्योगों, कृषि कार्यों एवं अन्य उपयोगों में भूगर्भीय जल पर हमारी निरर्भता बढ़ती ही जा रही है। जिसके कारण भू-जल के अविवेकपूर्ण दोहन के चलते भू-जल स्मर निरंतर एवं तेजी से गिर रहा है।
आज हम अपने-अपने भौतिक सुख-साधनों की प्राप्ति हेतु भू-जल का न केवल अंधाधंध दोहन कर रहे हैं, बल्कि भू-जल के प्रदूषण को भी बढ़ावा दे रहे हैं। भू-जल स्तर में कमीं का एक प्रमुख कारण बर्फबार और वर्षा का कम होना है, जो निरंतर जारी है। अधिे पानी को चाहने वाली फसलें यथा, धान, गेहॅंू, गन्ना और सब्जियों वाली फसलों की खेती पर इनके नगदी फसल होने के कारण किसानों का अधिक जोर रहता है। इन फसलों के उत्पादन में जल उपयोग अधिक होने के कारण कई राज्यों के भू-जल स्तर में निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है।
उत्तर-पश्चिम भारत के बहुत से क्षेत्रों ‘डार्क-जोन‘ घाषित किए जा चुके हैं। इन क्षेत्रों का भू-जल या तो समाप्त हो चुका है अथवा इतना नीचे पहुंच चुका है कि वहां से पानी का निकाला जाना संभव ही नही है। अतः इस समस्या के निवारर्णाथ हमें अपने परंपरागत जल स्रोतों के संरक्षण पर निश्चित् तौर पर अतिरिक्त ध्यान देना ही होगा।
नहरें एवं बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजनाएं
सिंचाई का एक प्रमुख स्रोत होने के कारण कृषि के विकास में नहरों का महत्वपूर्ण योगदान है। कुल सिंचित क्षेत्र के लगभग 42 प्रतिशत भाग की सिंचाई नहरों के द्वारा ही की जाती है। नदी एवं नहरों की उपलब्धता के फलस्वरूप ही आज पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर-प्रदेश कृषि विकास में देश के अग्रणी राज्यों में शुमार हैं। हालांकि देश के कई भागों में सिंचाई के लिए नहरी संसाधनों की पूरी क्षमता के साथ इसका पूर्ण लाभ प्राप्त नही किया जा रहा है।
प्रायः देखने में आया है कि नहरों के पानी की बर्बादी ही अधिक होती है, वहीं दूसरी ओर नहरों का पानी बेहद सस्ता है। किसान द्वारा क्षेत्र के हिसाब से एक बार नहरी पानी का मूल्य अदा कर दिया जाए तो फिर वह चाहे तो कितनी बार भी सिंचाई कर सकता है। यही व्यवस्था किसानों को अधिक पानी की खपत वाली फसलों की करने के लिए प्रेरित करती है। नदी घाटियों पर बड़े-बड़े बांध बनाकर बहुआयामी सामाजिक-आर्थिक सुविधाएं प्राप्त करने की योजना को हम बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजना कहते हैं।
इस समय देश में लगभग 5176 बांध हैं। कभी ‘बंगाल का शोक‘ कही जाने वाली दामोदर नदी तथा ‘बिहार का शोक‘ कही जाने वाली कोसी नदी इन परियोजनाओं के कारण ही आज यहां का वरदान सिद्व हो रही हैं। इन्दिरा गांधी नहर परियोजना के चलते ही आज राजस्थान देश तीसरा सबसें प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्य बनकर सामने आया है। इन परियोजनाओं से सिंचाई के अतिरिक्त पेयजल, विद्युत-उत्पादन, जलीय कृषि और मत्स्य-पालन जैसी आर्थिक गतिविधयों का संचालन भी किया जा सकता है।
वर्षा के जल का संग्रहण
वर्षा के जल को एकत्र करने के बाद उसका कृषि उत्पादन में उपयोग किए जाने को वर्षा जल संग्रहण कहा जाता है। आज अच्छी गुणवत्ता वाले पानी की कमी एक अत्यंत गम्भीर समस्या है। क्योंकि हमारी असावधानी के चलते उत्तम कोटि का वर्षा जल बहकर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जिन क्षेत्रों पानी का कोई अन्य स्रोत उपलब्ध न हो उन क्षेत्रों में वर्षा जल को संग्रहीत कर उसका उपयोग कृषि कार्यों में पुनः उपयोग किया जा सकता है। फसलोत्पादन बढ़ानें हेतु शुष्क क्षेत्रों में वर्षा-जल के संग्रहण पर अधिक ध्यान देना चाहिए। मेड़बन्दी से खेत में पानी का अवशोषण तो बढ़ता ही है, साथ ही मृदा-क्षरण एवं जल के अपव्यव को रोकने में भी मदद मिलती है।
मेडबंदी का यह कार्य वर्षा ऋतु के पूर्व ही कर लेना चाहिए। शुष्क क्षेत्रों में अतिरिक्त जल को खेतों के आस-पास तालाब आदि बनाकर एकत्र कर लेना चाहिए, जिसका उपयोग फसल में पानी की कमी के दौरान किया जा सकता है और इसके साथ ही आस-पास के भू-जल स्तर में बढ़ोत्तरी होगी। इसी के साथ ही बाढ़ द्वारा होने वाले मिट्ठी के कटाव से भी बचा जा सकता है, इसके परिणामस्वरूप फसलोत्पादन में वृद्वि तथा पैदावार में स्थायित्व भी आता है।
खेती में अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग
देश के बढ़ते शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण के कारण भू-जल को अतिरिक्त दोहन किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप अपशिष्ट जल की मात्रा भी बढ़ती ही जा रही है। पानी की कमी की दशाओं में खेती में अपशिष्ट जल का उपयोग किया जा सकता है। यह पानी पोषक तत्वों व सिंचाई का सुनिश्चित् एवं सस्ता स्रोत है। अतः इस अपशिष्ट जल को संशोधित कर पुनः विकास कार्यों एवं कृषि कार्यों हेतु पुनः उपयोग में लाया जा सकता है और इस बर्बाद होने वाले इस अपशिष्ट जल का सदुपयोग किया जा सकता है।
शहरों में दूषित जल की उपलब्धता अधिक है और सिंचाई जल की उपलब्धता दिन-प्रति-दिन कम होती जा रही है, ऐसी स्थिति में संशोधित जल का कृषि कार्यों हेतु पुनः उपयोग एक विवेकपर्ण कदम होगा। इसके साथ ही हमें इस बात का भी विशेष ध्यान रखते हुए उचित फसलों का चयन करना भी अतिआवश्यक है। शहरी अपशिष्ट जल का उत्पादन 62 अरब लीटर प्रतिदिन है जबकि इसके सापेक्ष हमारी जल-शोधन क्षमता इसकी मात्र 31 प्रतिशत है।
इसी प्रकार, औद्योगिक अपशिष्ट जल का उत्पादन 82.4 अरब लीटर प्रतिदिन जबकि इसकी शोधन क्षमता मात्र 21 प्रतिशत है। इजराइल जैसे छोटे से देश में उपयोग किए जाने वाले कुल पानी 62 प्रतिशत भाग संशोधित किया जाता है, जबकि भारत में खेती के कार्यों में 90 प्रतिशत स्वच्छ जल का प्रयोग किया जाता है। इजराईल खारे एवं गंदे पानी को साफ करके खेती के कार्यों में उपयोग करता है। विकास कार्यों, बुनियादी ढ़ांचों और औद्योगिक गतिविधियों में उपचारित एवं संशोधित जल के उपयोग पर जोर देना चाहिए। अखाद्य फसलों एवं सजावटी पौधों की सिंचाई में भी संशोधित जल का उपयोग किया जाना चाहिए।
कृषि कार्य में खारे पानी का उपयोग
मध्यम खारे पानी के द्वारा सिंचाई करते समय मल्च का प्रयोग कर सकते हैं। मल्च के लिए प्लास्टिक शीट या सुखे पत्ते, भूसा आदि का प्रयोग भी किया जा सकता है। बीज की बुवाई/पौधों की रोपाई मेड़ों के ऊपर करके भी खारे पानी की समस्या से बचाव किया जा सकता है। यदि किसी के पास अच्छी गुणवता वाला सिंचाई जल उपलब्ध है तो उसे खारे पानी के साथ मिश्रित कर उपयोग में ला सकते हैं। सिंचाई के लिए ऐसे जल का चुनाव करना चाहिए जिसका पी.एच. मान 6.5 से 7.5 के मध्य हो।
बेहतर सिंचाई प्रबन्धन आज की पहली आवश्यकता
फसलों में अंधाधुंध सिंचाई तथा सिंचाईयों की संख्या बढ़ानें से न केवल जल का अपव्यय होता है, बल्कि यह मृदा के स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव छोड़ता है। आज भी देश के कई क्षेत्रों में खेती के लिए परंपरागत सिंचाई प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है, जिसमें खेतों में सिंचाई जल लबालब भर दिया जाता है जिससे काफी मात्रा में जल बहकर अथवा जमीन में रिसकर ही नष्ट हो जाता है, परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन में जोखिम तथा अनिश्चितता का वातावरण बना रहता है।
इस बदलते परिवेश में खेती में सिंचाई जल का विवेकपूर्ण उपयोग करना ही होगा। इस संबंध में वर्षा जल संग्रहण तकनीक, धान उगाने की ऐरोबिक विधि एवं एकीकृत जल प्रबंधन के प्रयोग की एक अति महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। अतः इन तकनीकों को आम-जनता, किसानों तथा प्रसार-कर्मियों के बीच और अधिक लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है, ताकि हमारी भावी पीढ़ी को पर्याप्त शुद्व जल के साथ-साथ सुरक्षित भू-जल भंड़ार की प्राप्ति संभव हो सकें।
बेहतर सिंचाई प्रबन्धन की नवीनतम व किफायती तकनीकेां का संक्षिप्त विवरण अग्रवर्णित है-
ड्रिप सिंचाई पद्वति
बदलते परिवेश में पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचाने के लिए आधुनिक सिंचाई प्रणाली अर्थात ड्रिप सिंचाई प्रणाली सर्वाधिक लाभकारी सिद्व हो रही है। टपक सिंचाई को बूंद-बूंद सिंचाई अथवा ड्रिप सिंचाई प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। आज देश में लगभग 392 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई पद्वति स्थापित की जा चुकी है और इसके लाभ देखकर दिन-प्रति-दिन ड्रिप सिंचाई प्रणाली का क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। ड्रिप सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत क्षेत्रफल की दृष्टि से आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात एवं कर्नाटक महत्वपूर्ण राज्य हैं।
महाराष्ट्र में 9.2 लाख हेक्टेयर आंध्र्रप्रदेश में 9.5 लाख हेक्टेयर, कर्नाटक में 4.9 लाख हेक्टेयर तथा गुजरात में 5.3 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल ड्रिप सिंचाई पद्वति के अंतर्गत है। तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश एवं हरियाणाके अतिरिक्त अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में भी ड्रिप सिंचाई का उपयोग बढ़ रहा है। परंपरागत सिंचाई व्यवस्था द्वारा जल का अत्याधिक ह्मस होता है जिससे पौधों को प्राप्त होने वाला जल धरती में सिकर भाप बनकर नष्ट हो जाता है।
अतः जल का उचित सदुपयोग करने के लिए इस तकनीक का उपयोग किया जा रहा है जिसमें जल का रिसाव बेहद कम होता है, साथ ही अधिक से अधिक पौधों की जड़ों तक पानी पहुँच जाता है।
ड्रिप सिंचाई उन क्षेत्रों के अधिक उपयुक्त है, जहां जल की कमी होती है, खेती की जमीन असमतल और सिंचाई प्रक्रिया महंगी होती है। इस विधि में जल उपभोग क्षमता80-95 प्रतिशत तक होती है, जबकि परंपरागत सिंचाई प्रणाली के अंतर्गत जल उपभोग की क्षमता 30-50 प्रतिशत तक ही होती है। अतः इस सिंचाई प्रणाली में अनुपजाऊ भूमि को उपजाऊ भूमि में परिवर्तित करने की क्षमता होती है।
जल का समुचित उपयोग होने के कारण, पौधों के अतिरिक्त शेष स्थानों पर नमी कम रहती है, जिससे खरपतवारों का जमाव भी कम होता है। आजकल ड्रिप फर्टिगेशन सिंचाइ्र प्रणाली का उपयोग मुख्यतः सब्जियों, फूलों और फलों की खेती करने में किया जा रहा है। इस प्रणाली के तहत उर्वरकों की दक्षता में भी 36 प्रतिशत तक की वृद्वि हो जाती हैै। इसके अतिरिक्त इस प्रणाली का मुख्य पॉलीहाउस एवं ग्रीनहाउस वाले किसान भरपूर लाभ उठा रहे हैं।
तालिका-1 : ड्रिप सिंचाई प्रणाली के लाभ
क्र. सं. |
मानक |
लाभ प्रतिशत |
1. |
पानी की दक्षता में वृद्वि |
50-90 |
2. |
सिंचाई लागत में बचत |
32.0 |
3. |
ऊर्जा की खपत में बचत |
30.5 |
4. |
उर्वरक की खपत में बचत |
28.5 |
5. |
उत्पादकता में वृद्वि |
42.4 |
6. |
नई फसल (विविधीकरण) |
30.0 |
7. |
किसान की आय में वृद्वि |
42.0 |
लेजर लैण्ड लेवलर का उपयोग
आधुनिक कृषि यंत्र लेजर लेवलर के उपयोग से खेत को पूर्णतया समतल बनाया जा सकता है। पूर्णरूप से समतल खेत की सिंचाई करने में पानी कम लगता है, क्योंकि खेत के समतल होने के कारण पानी शीघ्र ही पूरे खेत की सतह पर फैल जाता है, जिससे सिंचाई जल की बचत होती है।
एस.आर.आई. तकनीक का प्रयोग
धान की खेती में सिस्टम ऑफ राइस इंटेसीफिकेशन (एस.आर.आई.) तकनीक को अपनाने से प्रति इकाई क्षेत्र से अधिक उत्पादन के साथ मृदा, समय, सिंचाई जल, श्रम और अन्य साधनों का अधिक दक्षतापूर्ण उपयोग देखने में आया है। इस विधि में पौधों की रोपाई के बाद मिट्ठी को केवल नम रखा जाता है, खेत में पानी खड़ा हुआ नही रखा जाता।
जल निकास की उचित व्यवस्था की जाती है जिससे पौधों की वृद्वि एवं विकास के समय मृदा में केवल नमी बनी रहे। इस प्रकार, धान के खेती में मृदा वायवीय दशाओं में रहती है, और मृदा में डिनाइट्रीफिकेशन की क्रिया द्वारा दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का ह्मस कम से कम होता है। साथ ही, धान के खेतों से नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन भी नगण्य होता है। एस.आर.आई. विधि से धान की खेती करने से लगभग 30-50 प्रतिशत तक सिंचाई जल की बचत होती है।
धान की खेती ऐरोबिक विधि से
जल एक सीमित संसाधन है, देश में कृषि हेतु कुल उपलब्ध जल का लगभग 50 प्रतिशत भाग धान की खेती हेतु ही उपयोग में लाया जाता है। धान उत्पादन की इस विधि में धान के बीज को खेत में को खेत में ही तैयार कर सीधे खेतों में ही रोपाई कर दी जाती है। इससे पानी की असीम बचत होती है।
चूँकि इस विधि के अंतर्गत खेतों में पानी नही भरा जाता है। इसलिए धान के खेतों में वायवीय वातावरण बना रहता है। परिणामस्वरूप, विनाईट्रीकरण की क्रिया द्वारा नाईट्रोजन का ह्मस भी रोका जा सकता है। साथ ही, इस विधि में धान के खेतों से ग्रीनहाउस की गैसों के उत्सर्जन भी न्यूनतम होता है।
जलमग्न धान की फसल में दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का नुकासान मुख्य रूप से अमोनिया, वाष्पीकरण, विनाइट्रीकरण एवं लीचिंग द्वारा होता है, जोजो अंततः हमारे प्रदूषण को ही प्रदूषित करते हैं। दूसरी ओर, धान की फसल में नाइट्रोजन उपयोग दक्षता एवं उत्पादकता में भी वृद्वि की जा सकती है।
अतः भारत में कम पानी वाले क्षेत्रों में इस तकनीक को उपयोगी बनाने की निःतांत आवश्यकता है जिससे कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों मुख्यतः सिंचाई जल का आवश्यकता से अधिक दोहन रोका जा सकें।
फसल विविधिकरण
वर्ष 2023 को राष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रूप में मनाया गया। बदलते परिवेश में बेहतर स्वास्थ्य व संसाधन हेतु मोटे अनाजों की खेती पर बल दिया जा रहा है। ये मोटे अनाज केवल स्वास्थ्यवर्धक ही नही होते, अपतिु हमारे पर्यावरण को बेहतर बनाए रखने में भी हमारी सहायता करते हैं। हमारे देश में मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, कोंदों जैसे कई मोटे अनाजों की खेती की जाती रही है। ये मोटे अनाज आयरन, जिंक, कॉपर और प्रोटीन जैसे पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं।
इन मोटे अनाजों की यह विशेषता है कि ये अल्प जल वाली जमीन पर भी उगाए जा सकते है। जबकि गेंहूँ और धान जैसी फसलों को उगाने के लिए पानी एवं रासायनिक उर्वरकों का अत्याधिक प्रयोग किया जाता है। परन्तु मोटे अनाजों की खेती करने से न केवल भू-जल एवं ऊर्जा की खपत में कमी आयेगी अपितु धान-गेंहूँ के प्रति हेक्टेयर उत्पादन में आ रही गिरावट या अस्थिरता को दूर करने में भी सहायता प्राप्त होगी। साथ ही, कृषि विविधिकरण का भू-जल स्तर व उर्वरता पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ेगा जो अंततः भारतीय कृषि एवं किसानों के विकास के लिए एक अच्छी पहल सिद्व होगी।
अतः फसल विविधिकरण की तकनीकी और कार्यप्रणाली को किसानों तक पहुंचाकर जल की कमी वाले क्षेत्रों में मोटे अनाज के उत्पादन और उनकी गुणवत्ता को भी बढ़ाया जा सकता है।
जीरो टिलेज तकनीक
जीरो टिलेज तकनीक का प्राकृतिक संसाधनों विशेषतौर पर जल के संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान है। आधुनिक खेती में संरक्षित टिलेज पर भी जोर दिया जा रहा है जिसमें फसल अवशेषों का अधिकांश भाग मृदा की सतह पर फैला दिया जाता है, इससे न केवल फसल की उत्पादकता में सुधार होता है, बल्कि मृदा जल के ह्मास को भी रोका जा सकता है। धान के पश्चात् गेंहूँ की सीधी बुवाई के लिए जीरो ट्रिल ड्रिल का उपयोग लाभदायक पाया गया है क्योंकि पारंपरिक बुवाई की अपेक्षा इस तकनीक के द्वारा लगभग 30 प्रतिशत सिंचाई जल की बचत होती है।
वाटरशेड प्रबन्धन
पानी की एक-एक बून्द को बचाने के लिए वाटरशेड प्रबंधन की तकनीकों को अपनाना होगा ताकि वर्षा जल का अधिकतम उपयोग फसलोत्पादन में किया जा सकें। जिन क्षेत्रों में वर्षा-ऋतु में भारी वर्षा होी है, परन्तु वहां जल संरक्षण का पर्याप्त प्रबंध भी नही होता ऐसे स्थानों पर बरसात के दिनों में वर्षा-जल को संरक्षित कर भू-जल स्तर को बढ़ानें तथा बरसात के मौसम के बाद इस वर्षा-जल को फसलोत्पादन में जल की कमी के समय जीवन-रक्षक सिंचाई के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।
ऐसे क्षेत्रों में वर्षा जल इधर-उधर बहकर ही नष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त, निचले क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि प्रतिवर्ष होती है, इतना ही नही, वर्षा ऋतु के पश्चात् इन क्षेत्रों में जल संकब् भी उत्पन्न हो जाता है। वर्षा जल के तीव्र बहाव के कारण मृदा का कटाव भी बड़े पैमाने पर होता है परिणामस्वरूप भूमि की उर्वरा शक्ति का तो ह्मस होता ही है, फसलोत्पदन एवं स्थानीय लोगों के जीवन यापन पर भी इसका व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।