
जीवन में हार-जीत अर्थ Publish Date : 25/04/2025
जीवन में हार-जीत अर्थ
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
जीवन में सुख-दुख का क्रम बराबर चलता रहता है। समय एकसमान कभी नहीं रहता है। प्रकृति परिवर्तनशील है, तो जीवन भी बदलेगा। इसलिए हार और जीत को स्थिर मन से स्वीकार करना चाहिए। हार से कभी निराश न हों, जीत से उद्वेलित न हों। हार पर अति दुखी होना या जीत पर अति प्रसन्न होना दोनों उचित नहीं, क्योंकि यह स्थाई नहीं, बल्कि एक परिवर्तनीय स्थिति है।
संसार का नियम है कि मनुष्य का इन दोनों स्थितियों से का ही सामना करना होगा। रोना-हंसना जीवन के अनुभव हैं, जो पाठ सिखाते हैं। दोनों में समान भाव की बात महात्माओं ने भी कही है।
मनुष्य को जीतने के अभिमान या हारने की निराशा से दूर रहना चाहिए। हारना जीतना कर्मयोग के क्षेपक हैं, प्रारब्ध के पड़ाव हैं। किसी वीर-धीर मानव को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। हार के बाद जीत और जीत के पश्चात हार आती ही है। भौतिक सफलता को माया का प्रपंच मानना चाहिए। हार-जीत को सफलता की सीढ़ियां समझना चाहिए।
प्रत्येक दशा में हार-जीत को खेल भावना की दृष्टि से ही देखना चाहिए। हार की वजह उन गलतियों को मानना चाहिए, जो हम अपरिपक्वता के चलते कर गए। हार वस्तुतः जीत की रणनीति के समानांतर होती है। यदि जीतना है, तो हार के निहितार्थ को खोजना चाहिए। हार तो जीत की अनुचरी है। हार को हार नहीं, जीत का बीज मानना चाहिए।
हार को नकारात्मक संज्ञा न मानना ही वास्तविक विजेता की पहचान है। कभी जीत एक हार बन जाती है और कभी हार भी जीत बन सकती है।
परिस्थितियां और समांतर विशेष पृष्ठभूमि में प्रभाव दिखाती हैं। जन्म-मृत्यु की तरह जीत-हार का आकलन करना उचित नहीं है। न ही युवावस्था और वृद्धावस्था जीत-हार की श्रृंखला हो सकती है। सुख-दुख का बंटवारा भी इसके आधार पर नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य को सदैव हार-जीत की मानसिकता से मुक्त रहना चाहिए।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।