
भारत के कृषि रसायन उद्योग Publish Date : 16/04/2025
भारत के कृषि रसायन उद्योग
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य
देश में उत्पादित होने वाले कुल खाद्यान्न का लगभग 35 प्रतिशत भाग विभिन्न कारणों के चलते नष्ट हो जाता है। कीटों के कारण लगभग 24 प्रतिशत खाद्यान्न का नुकसान होता है। कुल मिलाकर हमें प्रति वर्ष लगभग 30,000 करोड़ के खाद्यान्न का नुकसान उठाना पड़ रहा है। हाल के कुछ वर्षों से कृषि रासायनों के कम से कम इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है। इसका कारण खाद्य पदार्थों पर कृषि रसायनों के जरुरत से ज्यादा प्रयो करने के चलते पर्यावरण व मानव शरीर पर दुष्परिणाम देखने को मिल रहे है। लेकिन कीटों की जटिल समस्याओं से निपटने के लिये कृषि रसायनों का प्रयोग भी दिन प्रति दिन बढ़ता ही जा रहा है। किसान कृषि रसायानों का असंतुलित व जरूरत से अधिक प्रयोग करते है, जिसके चलते यह मुश्किले पैदा हुई है। इसी से पर्यावरण व मानव शरीर पर इनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
पिछले कुछ समय से पूरे विश्व में खाद्य सुरक्षा व स्वस्थ्य मानकों पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। इसके मद्देनजर यह कोशिश की जा रही है कि खाद्य पदार्थों में रसायानों के स्तर को कम किया जाए। अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर कृषि वस्तुओं के व्यापार के सन्दर्भ में भी इसे काफी महत्व दिया जा रहा है। इन मानको को पूरा करने के लिए इंटीमेटेड पेस्ट मैनेजमेंट (आईपीएम) को अपनाया जा रहा है। इसका उद्देश्य रासायनिक पेस्टिसाइड्स के इस्तेमाल को कम करने के लिए अन्य उपायों को अपनाना है। इसके लिए बायो-पेस्टिसाइट्स मसलन नीम आधारित कीटनाशकों को आईपीएम के एक प्रमुख घटक के रुप में देखा जा रहा है।
बायो-पेस्टिसाइड्स पर्यावरण दृष्टिकोण से अनुकूल है। मानव शरीर पर इनका कोई हानिकारक असर नहीं होता है। लेकिन तमाम तरह के जागरुकता अभियान के बावजूद देश में रासायनिक पेस्टिसाइड्स का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है। अर्तराष्ट्रीय कृषि रसायन के बाजार में भारत की हिस्सेदारी सिर्फ दो फीसदी ही है। मगर मात्रात्मक लिहाज से घरेलू कृषि रसायन बाजार का साल दर साल 10 फीसदी की दर से बढ़ रहा है।
एक दशक तक पूरे विश्व में सर्वाधिक वृद्धि दर दर्ज करने वाले घरेलू कृषि रसायन उद्योग के लिए स्थितिया अब काफी हद तक बदलती हुई नजर आ रही है। लेकिन इस दौर में घरेलू कृषि रसायन उद्योग ने न सिर्फ अपनी उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हासिल की, बल्कि कई कृषि रसायनों के मामले में देश आत्मनिर्भर हो गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि जेनेटिक कृषि रसायनों के मामले में घरेलू कंपनियों की उत्पादन लागत काफी कम है। इसका लाभ उठाते हुए कई कंपनियां निर्यात बाजार में अपनी स्थिति मजबूत बनाने में लगी है।
भारत ने अभी उत्पाद पेटेंट को मान्यता नहीं दी है, लिहाजा इस क्षेत्र की कंपनियों ने अपनी अनुसंधान व विकास (आर एंड डी) गतिविधियों को निर्माण प्रक्रिया पर केंद्रित कर रखा है। संसाधन के अभाव में नये उत्पाद विकसित करने पर घरेलू कंपनियां आशातीत जोर नहीं दे पा रही है। पिछले कुछ सालों से घरेलू स्तर पर मांग के मुकाबले उत्पादन क्षमता अधिक होने के कारण इन उत्पदों की कीमतों में गिरावट दर्ज की जा रही है। जिससे कंपनियों को अपने उत्पाद प्रतिस्पर्धी कीमतों पर बेचने पड़ रहे है, दूसरी तरफ कंपनियां अपनी बिक्री बढ़ाने की होड़ में वितरकों व डीलरों को ज्यादा लाम (मार्जिन) दे रही है। इतना ही नहीं, कंपनियों की ओर से डीलरों का ज्यादा समय तक ऊपरी पर उत्पाद दिये जा रहे है। पिछले साल कपास की फसल खराब होने और बेमौसम की बारिश से कृषि रसायन की बिक्री में गिरावट दर्ज की गयी, जिसका उद्योग के प्रदर्शन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। यही वजह है कि इस क्षेत्र में परिचालन कर रही घरेलू व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शेयरों में बीते एक साल के गिरावट का रुख देखने को मिल रहा है।
भारतीय पेस्टीसाइन्स एसोसिएशन के अनुसार घरेलू कृषि रसायन उद्योग की सबसे बड़ी मुश्किल मांग के मुकाबले उत्पादन क्षमता अधिक होना है। लिहाजा इस क्षेत्र में सक्रिय कंपनियों की लाभप्रदता भौगोलिक स्थिति व उत्पादों की विविधता पर बहुत हद तक निर्भर करती है। इस क्षेत्र की ज्यादातर कंपनियों उत्पादों की विविधता के लिए कपास, अंगूर, गन्ना और सोयाबीन जैसे नगदी फसली के लिए कीटनाशक बनाने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। पारपरिक इन्सेक्टिसाइड्स, फगीसाइड और हर्बीसाइड के विपरीत नगदी फसलों के लिए कीटनाशक निर्माण क्षेत्र में संभावनाएं कही ज्यादा है। वर्ष 1996 में 1998 में जहां इनसेक्टिसाइड्स की खपत में पांच फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी (बीएचसी को छोड़कर) वहीं फंगीसाइड्स व हर्बीसाइड्स की बिक्री में क्रमशः 22 व 17 फीसदी की वृद्धि रही। इसके मद्देनजर बीएएसएफ इंडिया, बागर इंडिया और एग्रोइयो इंडिया जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हर्बिसाइड्स व फगिसाइड्स पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है।
ळालांकि, नये बाजार तलाशने के लिए यह भी जरुरी है कि निरंतर नये उत्पाद लांच किये जाते रहे। चूंकि भारत भी पेटेंट कानून लागू करने जा रहा है लिहाजा स्पेशियलिटी उत्पाद के बाजार से घरेलू कंपनियों के बाहर होने की संभावना काफी बढ़ गयी है। इस समय कृषि रसायन के क्षेत्र में देश में मांग के अनुरूप व विकास (आर एंड डी) पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। नये उत्पाद विकसित करने का काम काफी खर्चीला है और इसमें समय भी काफी लगता है। एक अनुमान के अनुसार एक नये कृषि रसायन मोलेक्यूल विकसित करने पर औसतन 5 करोड़ डॉलर का खर्च आता है। इस पर करीब 10 साल से ज्यादा समय लगता है। घरेलू कंपनियों के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उनके पास न तो इतने संसाधन है और न उनका कारोबार इतना व्यापक है कि वे अनुसंधान गतिविधियों पर केंद्रित कर सकें।
इसके विपरीत यहाँ परिचालन कर रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सब्सिडियरियों को अपनी मूल कंपनी के उत्पाद और अनुसंधान सुविधा का लाभ मिल रहा है। यदि मारत में पेटेंट कानून लागू किया जाता है, तो कृषि रसायन के प्रीमियम सेगमेंट अर्थात स्पेशियलिटी उत्पाद के बाजार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भारतीय सब्सिडियरियों का ही वर्चस्व रहेगा। इस स्थिति में घरेलू कंपनियों को ज्यादातर राजस्व जेनेरिक उत्पादों को ही प्राप्त होगा। जाहिर है इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और बड़ी कंपनियों को जेनेरिक उत्पादों के मामले में निर्यात के लिए बाजार तलाशने होंगे। हालांकि भारतीय उत्पादक काफी लागत प्रतिरुपी है। गैर पेटेंट जेनेरिक उत्पादों की खपत करीब 18 अरब डॉलर की है, जो पूरे विश्व में कृषि रसायन की खपत का आधा है। पिछले पांच सालों में कृषि रसायन के निर्यात में तेज वृद्धि दर्ज की गयी है और यूनाइटेड फॉस्फोरस व घारड़ा केमिकल्स विश्व की शीर्ष 10 कृषि रसायन निर्यातक के रुप में ऊभर कर सामने आयी है।
हालांकि निर्यात बाजर में प्रतिस्पर्धा काफी अधिक है बावजूद इसके सिर्फ दस कंपनियों का ही जेनेरिक बाजार पर एकाधिकार है। अब इस बड़े क्षेत्र मेनीवार्टिस जैसी कंपनियां भी उतर चुकी है। जेनेरिक उत्पादों के निर्यात बाजार के और विकसित होने की संभावना है। इस बाजार में घरेलू कंपनियों की अपनी उपस्थिति मजबूत करने में काफी मेहनत करनी होगी। इसको लिए उन्हें यूनाइटेड फॉस्फोरस जैसा व्यापक ग्लोबल नेटवर्क बनाना होगा। भारतीय कृषि रसायन उद्योग की ऐसोसिएशन का कहना है सरकार कृषि रसायन उद्योग के साथ सौतेला व्यवहार कर ही है। सरकार अन्य कृषि जरुरत के उत्पादों की तरह कृषि रसायनों की वरीयता नहीं दे रही है। गौरतलब है कि कीटनाशको पर उत्पाद शुल्क लगता है जबकि कृषि से संबधित अन्य उत्पादों को कर व शुल्क से मुक्त रखा गया है। कृषि रसायन उद्योग के गुताबिक जहाँ इस उत्पाद पर उत्पाद शुल्क लगाने से सरकार को 125-150 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त होता है. वहीं दूसरी तरफ सरकार फर्टिलाइजर पर कई हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी दे रही है। इतनी ही नहीं, उत्पाद शुल्क की दरों में भी अनियमितता है। टेक्निकल ग्रेड पर 18 फीसदी व फार्मूलेशन पर आठ फीसदी उत्पाद शुल्क लगाया गया है।
भारतीय कीटनाशक उद्योग कई तरह की समस्याओं के बावजूद संतोषजनक गति से विकसित हो रहा है। इसके बावजूद आने वाले दिनों में यह उद्योग किस गति से विकसित होगा, इस बार दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। दरअसल कीटनाशको की खपत कई बातों पर निर्भर करती है। मसलन यदि मानसून की स्थिति अच्छी रहती है और खाद्यान्न उत्पादन के बेहतर आसार होते हैं, तो पैसी स्थिति में कीटनाशकों की भी बढ़ जाएगी।
अगर अतिवृष्टि या अन्य प्राकृतिक के चलते फसल खराब होने पर कीट रसायन उद्योग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। समय पर कई तरह के कीटनाशकों पर सरकार प्रतिबंध भी लगाया जाता है। इन उद्योग की भावी सेहत के बारे में दावे के कुछ भी कह पाना सम्भव नहीं हैं।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।