खतरा बनता बढ़ता तापमान      Publish Date : 14/04/2025

                      खतरा बनता बढ़ता तापमान

                                                                                                                     प्रोफेसर आर.  एस. सेंगर

इस साल फरवरी के पहले ही हफ्ते में मैदानी राज्यों में गर्मी ने तेवर दिखाने शुरू दिए थे। ध्यान रहे कि बीता साल भारत के लिए बेहद गर्म रहा था. जिसमें हर महीने औसतन न्यूनतम तापमान सामान्य से अधिक दर्ज किया गया था। इस वर्ष जिन दिनों में वसंत की मधुरता का अहसास होना चाहिए, उन दिनों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में पारा बढ़ गया और महाराष्ट्र के विदर्भ, तेलंगाना, तटीय आंध्र प्रदेश, ओडिशा, केरल और दमन दीव के कुछ हिस्सों में अधिकतम तापमान 35-38 डिग्री के बीच रिकार्ड किया जा रहा था। दिल्ली और उसके आसपास का तापमान भी 28 डिग्री से पार होना सामान्य नहीं। बीते कुछ वर्षों में जब गर्मी अचानक बढ़ती थी तो मान लिया जाता था कि इस बार तो ला नीना अप्रभावी रहा। स्पष्ट है कि मौसम का बदलता मिजाज जलवायु परिवर्तन की मजबूत होती पकड़ की तरफ इशारा कर रहा है।

                                   

अंतरराष्ट्रीय मौसम संस्था कोपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस के अनुसार, इस साल जनवरी में विश्व का औसत तापमान 13.23 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जो पिछले साल की सबसे गर्म जनवरी से 0.09 डिग्री अधिक था। ऐसा तब हुआ, जब प्रशांत महासागर में ला नीना प्रभाव विकसित हुआ था। दक्षिणी अमेरिका से भारत तक के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनी और ला नीना प्रभाव ही होते हैं। अल नीनी का संबंध भारत एवं आस्ट्रेलिया में गमी और सूखे से है, वहीं ला नीना अच्छे मानसून का वाहक है। इन दोनों घटनाओं का संबंध सुदृर पेरू के तट (पूर्वी प्रशांत) और आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट (पश्चिमी प्रशांत) से है। हवा की गति इन प्रभावों को दूर तक ले जाती है। यहां जानना जरूरी है कि भूमध्य रेखा पर समुद्र पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं। इस इलाके में पूरे 12 घटि निर्वाध सूर्य के दर्शन होते हैं, जिससे सूर्य की ऊष्मा अधिक समय तक यहां की धरती की सतह पर रहती है। तभी भूमध्य क्षेत्र या मध्य प्रशांत इलाके में अधिक गर्मी पड़ती है। इससे समुद्र की सतह का तापमान प्रभावित रहता है।

आमतौर पर सामान्य परिस्थिति में भूमध्यीय हवाएं पूर्व से पश्चिम की और बहती हैं और गर्म हो चुके समुद्री जल को आस्ट्रेलिया के पूर्वी समुद्री तट की और बहा ले जाती हैं। गर्म पानी से भाप बनती है और उससे बादल बनते हैं। परिणामस्वरूप पूर्वी तट के आसपास अच्छी वर्षा होती है। नमी से लदी गर्म हवाएं जब ऊपर उठती हैं तो उनकी नमी निकल जाती है और वे ठंडी हो जाती हैं। तब पश्चिम से पूर्व की और चलने वाली ठंडी हवाएं पेरू के समुद्री तट एवं उसके आसपास नीचे की और आती हैं। तभी आस्ट्रेलिया के समुद्र से ऊपर उठती गर्म हवाएं इससे टकराती हैं।

                                        

इससे निर्मित चक्रवात को “वाकर चक्रवात” कहते हैं। अल-नीनी परिस्थिति में पछुआ हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं एवं समुद्र का गर्म पानी लौट कर पेरू के तटों पर एकत्र हो जाता है। इस तरह समुद्र का जल स्तर 90 सेंटीमीटर तक ऊंचा हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप वाष्पीकरण होता है और बरसात वाले बादल निर्मित होते हैं। इससे पेरू में तो भारी बरसात होती है, लेकिन मानसूनी हवाओं पर इसके विपरीत प्रभाव के चलते आस्ट्रेलिया से भारत तक सूखे की स्थिति बन जाती है।

ला-नीना प्रभाव के दौरान भूमध्य क्षेत्र में सामान्यतया पूर्व से पश्चिम की तरफ चलने वाली अंधड़ हवाएं पेरू के समुद्री तट के गर्म पानी को आस्ट्रेलिया की तरफ धकेलती हैं। इससे पेरू के समुद्री तट पर पानी का स्तर बहुत नीचे आ जाता है, जिससे समुद्र की गहराई का ठंडा पानी थोड़े से गर्म पानी को प्रतिस्थापित कर देता है। इन दिनों ला-नीना सक्रिय है, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से न तो भारत में वर्षा हो रही है और न ही पहाड़ों पर पर्याप्त बर्फबारी। उलटे तापमान तेजी से बढ़ रहा है। मौसम की गर्मी ऐसे ही बढ़ती रही तो सबसे बड़ा नुकसान खेती-किसानी को होगा।

                                  

इससे गेहूं के दाने कमजोर होंगे और चना सरसों फसल भी समय से पहले पक जाएंगी। सेब और लीची के पेड़ों में फूलों के परागण का समय कम रहेगा, जिससे फल बनने एवं पकने की प्रक्रिया प्रभावित होगी। यदि तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो यह खरीफ मौसम के दौरान किसानों की आय 6.2 प्रतिशत तक घटा देता है और असिंचित क्षेत्री में रबी मौसम के दौरान किसानों की आय छह प्रतिशत तक कम कर देता है। इसी तरह बारिश में औसतन 100 मिमी की कमी होने पर खरीफ के मौसम में किसानों की आय में 15 प्रतिशत और रबी के मौसम में किसानों की आय में सात प्रतिशत की गिरावट आती है। अब यह खतरा सिर पर है। मच्छर जैसे परजीवी बढ़ते तापमान से पैदा हो रहे हैं। पारंपरिक दवाएं उन पर बेअसर साबित हो रही हैं। धरती पर नमी कम होने से गर्मी बढ़ते ही जंगलों में आग का खतरा भी बद जाता है। यदि गर्मी ऐसे ही बढ़ती रही तो लू के दिन भी बढ़ेंगे, जो देश की बड़ी आबादी के स्वास्थ्य और आर्थिक हालात पर असर डालेंगे।

ऐसे में सरकार को अपनी नीतियां गर्म होते मौसम के अनुरूप बनाने की जरूरत है। सबसे पहले ग्रीनहाउस गैस कम करने के तरीकों को कड़ाई से लागू किया जाना चाहिए। फिर ऊर्जा और पानी की बचत प्राथमिकता के आधार पर होने चाहिए। अंत में इससे प्रभावित होने वाले मेहनतकश लोगों को राहत और वैकल्पिक आजीविका की कार्ययोजना गांव स्तर पर बनाई जानी चाहिए।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।