पुरुष भी स्त्रैण है      Publish Date : 11/04/2025

                         पुरुष भी स्त्रैण है

                                                                                                                               प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

सरस्वती अंगिरा है और लक्ष्मी भृगु है। दोनों में दोनों तत्त्व तो रहते ही हैं, प्रधानता से स्वरूप निर्माण होता है। अग्नि में सोम अर्थात् पिता रूप बीज प्रदाता तथा अग्नि रूप वेदी- माता है। विष्णु पिता है, ब्रह्मा स्रष्टा-माता है। हैं सब प्राण ही।

पुरुष भीतर स्त्री है, बाहर से पुरुष है- यह एक सिद्धान्त है। आत्मा पुरुष है, शरीर प्रकृति है- स्त्री है, यह दूसरा सिद्धान्त है। पुरुष अग्नि प्रधान है, स्त्री सौम्या है। ब्रहा ही प्रकृति बनता है। अग्नि सोम ही वृषा-योषा कहलाते हैं। नर-मादा होते हैं। लेकिन मानव योनि में आकर इनको नर-नारी या स्त्री पुरुष, मानव-मानवी के रूप में व्यक्त किया जाता है। नर अग्नि रूप है-ब्रहा है। नार जल है- नारी सौम्या है, लक्ष्मी है। आज हम सब इसी के पीछे दौड़ रहे हैं। सोम ही अर्थ है। लंकिन क्या लक्ष्मी के माध्यम से विष्णु तक पहुंचा जा सकता है?

                                             

प्रलयकाल में केवल ब्रह्मा का प्रमाणिक स्पन्दन मात्र है। विष्णु निद्रा मग्न है- सोम समुद्र शान्त है। ब्रह्मा हद् प्राण है, विष्णु-इन्द्र के साथ। तीनों प्राण भी एक साथ कार्य करते हैं। तीनों शक्तियां साथ कार्य करती हैं। तीनों पुरुष एक साथ कार्य करते हैं। ब्रह्मा यदि हैं तो विष्णु है, इन्द्र भी है। अर्थात् अव्यय-अक्षर-क्षर तीनों हैं। जहां बह्या अक्षर प्राण है, वहां आलम्बन अव्यय भी है आत्मक्षर भी है। यही अमृत सृष्टि है। सत्यलोक/स्वयंभू लोक क्षर सृष्टि है। पांच महाभूतों से निर्मित है। हृदय-प्रतिष्ठित तीनों ही शक्तियां-त्रिगुणात्मक प्रकृतिरूपा ही हैं। सृष्टि के तीन शुक्र वाक, आप, अग्नि ही ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र प्राण है। तीनों के तीन लोक- स्वयंभू परमेष्ठी एवं सूर्य लोक हैं।

स्वयंभू की वाकू अव्यय के मन-प्राण-वाक् से निकलती है। वाकू के पन-तरल-विरल तीन स्वरूप होते हैं। इसमें शब्द और अर्थवाक रूप दो भेद हो जाते हैं। सरस्वती शब्दवाक की अधिष्ठात्री है। इसके परा-पश्यन्ति-मध्यमा-वैखरी चार भेद हो जाते हैं। वाक् का तरल रूप प्रकाश और विरल रूप आकाश है। शब्द से ही आकाश की उत्पत्ति होती है। आकाश से ही आगे पृथ्वी तक के चार महाभूत पैदा होते हैं और विश्व की सृष्टि होती है।

वाकू की तरंगें वर्तुलाकार फैलती हैं। मातृ रूप होने से इनको आगे के महाभूत-वायु-अग्नि- जल -पृथ्वी नहीं रोक सकते। अतः शब्द मंत्र रूप में सर्वत्र व्याप्त रहते हैं। हमारे शरीर भी ध्वनि से ही निर्मित होते हैं। हमारे चक्रों पर वर्णमाला ही प्रतिष्ठित है। वाक् भी वषट्कार रूप में आगे बढ़ती है जिसकी सीमा 18 स्लीम होती है। जो हर एक को प्रभावित करती है। ध्वनि के साथ भक्ति की भावना जुड़कर शरीर को निर्मल-स्वस्थ बनाए रखती है।

                                                    

आपशुक्र की सृष्टि परमेष्ठी लोक आपोलोक में होती है। परमेष्ठी के अधिष्ठाता विष्णु प्राण है, जिनकी शक्ति लक्ष्मी है।

परमेष्ठी सोम लोक है। स्वयंभू ऋषि प्राणों का, त्रिवेद का (ऋक् यजुः साम) लोक है। परमेष्ठी अथर्व-सीम का लोक है। अग्नि में सोम की आहुति से पदार्थ (अर्थ) का निर्माण होता है। सरस्वती अगिरा है, लक्ष्मी भृगु है। दोनों में दोनों तत्त्व तो रहते ही है, प्रधानता से स्वरूप निर्माण होता है। अग्नि में सोम अर्थात् पिता रूप बीज प्रदाता तथा अग्नि रूप वेदी माता है। विष्णु पिता है, बह्या स्रष्टा माता है। हैं सब प्राण ही।

भूगु की भी तीन अवस्थाएं होती है- घन, तरल, विरल। इनको आप्य-वायु-सोम कहा जाता है। अग्नि में भूगु ही शुक्र का कार्य करता है। इसमें आप स्नेहन तथा सोम शर्करा है। भोजन में घी तथा मिष्ठान्न रेत (शुक्र) को पुष्ट करते रहते हैं। तीन ही प्रकार के सोम से तीन ही प्रकार आप्य, वायव्य, मौम्य की सृष्टि होती है।

सूर्य पिण्ड का निर्माण अग्निशुक्र (आप-वाक गर्भित) से होता है। भू-भुवः स्वः मर्त्यसृष्टि है। सूर्यपिण्ड मर्त्य अग्निशुक्र का गोला है। सूर्यमण्डल का सावित्राग्नि (अमृताम्नि) इन्द्र रूप है- प्रकाश मण्डल है। सूर्य में अमृत-मृत्यु दोनों का समान रूप से विकास होता है। निवेशवन्नमृतं मर्त्य च (यजु सं. 34.11)। सूर्य पिण्ड मत्यांम्नि शुक्रमय है, सौर प्राण अमृताग्नि शुक्रमय है। सूर्य के नीचे सम्पूर्ण मृत्युलोक है। भूत ज्योति का प्रवर्तक सौर इन्द्र प्राण है।

सूर्य का महिमा मण्डल भी 48 स्तोम तक जाता है। अग्नि में जलकर वस्तु पिण्ड काला रह जाता है। वही राख होकर श्वेत हो जाता है। पुरुष बाहर ब्रह्म भीतर माया है। वही भीतर भ्रमित करती है- निराकार होती है। सामने से स्त्री रूप साकार माया का रूप अपना प्रभाव डालता है। यदि स्त्री के पौरुष भाव का संकल्पित प्रहार भी इसी समय होता है तो पुरुष का समर्पण तय है। आज नया वातावरण इसी ओर गतिमान हो रहा है। पुरुष स्त्री के बारे में अल्पतम समझ रखने लगा है। स्त्री शरीर के आगे का स्वरूप, स्त्री की परोक्ष भाषा, स्त्री का रक्त प्रतिष्ठित काम, उष्णता का प्रभाव, सुक्ष्म स्तर के आदान-प्रदान की क्षमता, दिव्यता की भूमिका आदि प्रश्न अनुत्तरित ही होते हैं। शिक्षा, उपयोग, मनोरंजन, समानता का मिथक, गर्भनिरोधक साधन, देर से शादी करने का वातावरण जैसे परिवर्तनों ने जीवन को मुट्ठी से निकाल दिया। रोकना भी कोई नहीं चाह रहा।

                                                

समानता, सशक्तीकरण, स्त्री स्वातंत्र्य जैसे नारों ने स्त्री पुरुष को पूरक बनाने के स्थान पर दूर कर दिया। पश्चिम का पुरुष शादी नहीं करना चाहता। क्यों? स्त्री को भी बन्धन स्वीकार नहीं। अल्पकालिक समझौते होते हैं जो विच्छेद की अवधारणा पर आधारित होते हैं। हमारी तरह उम्रभर के लिए बन्धन नहीं होता। हर शिक्षित व्यक्ति इसका विरोध करता है। पश्चिम का युवा तो महिला को स्थायी रूप से साथ रखना ही नहीं चाहता। परिवार कैसे बड़े होंगे, होंगे भी या नहीं? परिणाम दिखाई देने लगे हैं। तो क्या हम भी उस ओर ही जा रहे हैं।

जिस स्त्री को बह्य ने अपने विस्तार (एकोऽह बहुस्याम्) के लिए सृजित किया था. आज वही उसे स्वीकारने को तैयार नहीं होता दिखाई दे रहा। शास्त्र कहते हैं कि स्त्री ही जननी, पोषक है और वही संहारक भी है। सबसे पहले उसने अपना ‘प्रकृति’ स्वरूप दिया तरी मात्र रह गया। फिर सन्धान को संस्कार देकर मानव बनाना (गर्भ में) छोड़ दिया। सन्तानें दैहिक रूप में मानव है, किन्तु अध्यात्म के धरातल पर शून्य हो रहे हैं। अतः कहा जा सकता है कि कलियुग के अन्त की तैयारी हो रही है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।