
सुख के लिए धर्म Publish Date : 01/04/2025
सुख के लिए धर्म
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
मनुष्य के पास बुद्धि होती है, वह अपने और अपने आस-पास के लोगों के जीवन में सुख और दुख के विविध अनुभवों पर विचार करता है। वह जीवन के इस पूरे रंगमंच के पीछे छिपे अस्तित्व के मूल सार को खोजने की कोशिश करता है। लेकिन वह आनंद के केंद्रीय विचार को खोजने में असमर्थ होता है। यह स्वाभाविक भी है।
पश्चिम के चिंतन में केवल एक प्राथमिक भौतिकवादी सोच है जो केवल भौतिक दुनिया पर ध्यान केंद्रित करने में सक्षम है और व्यक्ति के जीवन में सांसारिक सुख प्रदान कर सकती है।
भारतवर्ष के चिंतन में सभी पहलुओं पर विचार किया गया है। इस शरीर के अलावा जीवन में कुछ भी नहीं है, इसलिए ‘यावज्जिवं सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।’ ‘भस्मीबुतस्य देहस्य पुनर्गमनं कुतः’ (जब तक जियो, तब तक सुख में जियो। कर्ज लेकर भी घी खाओ। मरने के बाद जब तुम्हारा शरीर राख हो जाएगा, तो वह हमेशा के लिए चला गया, वह कभी वापस नहीं आएगा)। एक छोर पर इस चरम प्राथमिक सुखवादी दृष्टिकोण से लेकर दूसरे छोर पर ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है) के पूर्ण ज्ञान आधारित सिद्धांत तक।
व्यक्ति के सुख की परिभाषा अलग अलग समय पर अलग अलग है जैसे कोई भूख से व्याकुल हो उस समय उसके अनुसार स्वाद का भोजन सुख देता है, लेकिन कोई पैदल चलते चलते थक गया है तो कोई वाहन उस समय उसे सुख देता हुआ प्रतीत होता है। विचार करें कि भूख से व्याकुल व्यक्ति को उसकी पसंद का भोजन मिला लेकिन साथ ही साथ उसे भोजन देने वाला कुछ ताने दे रहा है गालियां दे रहा है अब भूख वही है स्वादिष्ट भोजन भी वैसा है लेकिन वह सुख नहीं देगा। इसका अर्थ है कि सुख केवल भौतिक आपूर्ति में नहीं बल्कि कहीं और भी है। इसीलिए अपने पूर्वजों ने सुखस्य मूलं धर्मः कहा है अर्थात सुख के मूल में धर्म है।
जैसे जैसे हम धर्म अर्थात अपना कर्म करते जाते हैं सुख की अनुभूति मिलती जाती है। माता पिता अपने धर्म का पालन करते हुए संतान का पालन पोषण करते हैं और संतान अपने धर्म का पालन करते हुए माता पिता की सेवा करता रहता है तो भौतिक वस्तुएं कम होने पर भी वे सभी सुख प्राप्त करते हैं।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।