
समाज और हम एक ही हैं Publish Date : 25/03/2025
समाज और हम एक ही हैं
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
भारतीय चिंतन में सब कुछ ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, और जब सबमें ब्रह्म है तो फिर कोई छोटा बड़ा नहीं हो सकता। देखने में विभिन्नताएं भले ही हैं लेकिन वास्तव में सबके मूल एक ही हैं। हमारा मानना है कि अलग भाषा, अलग खान पान, अलग पहनावा, अलग प्रांत इत्यादि हमारे अलगाव के कारण नहीं हैं, बल्कि हमारी सुंदरता है कि हम अनेक रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर सकते हैं। क्योंकि भाषा अलग है लेकिन भाव सामान है, अन्य विविधताओं में भी हमारे मानव मूल्य समान हैं।
जब कोई व्यक्ति संकीर्ण सोच को त्याग देता है, अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है, त्याग का जीवन अपनाता है और यह पहचान लेता है कि पूरा समाज उसके जैसे व्यक्तियों से बना है, और हर व्यक्ति में एक ही अविभाज्य सार है, तो वह वास्तव में समाज से प्रेम करने और खुद को उससे जोड़ने में सक्षम हो जाता है और इस एकता की भावना के कारण बड़ा अनुभव करता है, और उसके लिए समाज को एक अविभाज्य रूप में देखना स्वाभाविक हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप सभी के लिए स्नेह प्रकट होता है और राष्ट्र सशक्त होता है।
इसलिए, यह महसूस करते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति केवल शाश्वत सार अर्थात ईश्वर की एक छवि है, वह सभी की सेवा कर सकता है, उनके दुख का ख्याल रख सकता है और उन्हें खुश कर सकता है और अनावश्यक विवादों की दुनिया से बच सकता है। एक समाज केवल उन बुद्धिमान लोगों की संख्या के अनुपात में खुश, प्रगतिशील और महान होगा, जो इस समझ के साथ, समाज की सेवा करते हैं और आत्म-बलिदान के माध्यम से इसका मार्गदर्शन करते हैं।
हिंदू समाज ने सामाजिक संरचना में ऐसे विद्वानों की आवश्यकता को समझा, जिन्हें ब्रह्म का ज्ञान हो, ऐसे लोग जो समाज के साथ अपनी पहचान रखते हों और समाज को ईश्वर का दूसरा रूप मानकर उसकी सेवा करते हों, हिंदू समाज ने यह वांछनीय पाया कि समाज इसी प्रकार विकसित हों, और महसूस किया कि ऐसी व्यवस्था बनाना केवल सत्संस्कार को विकसित करने के महान प्रयास से ही संभव है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।