
सुख भौतिक संपदा पर निर्भर नहीं करता Publish Date : 01/03/2025
सुख भौतिक संपदा पर निर्भर नहीं करता
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
ऐसे कई पंथ और संप्रदाय हैं जो मनुष्य को सर्वाेच्च आनंद प्रदान करने का वायदा करते हैं। ऐसे पंथ एवं सम्प्रदायों कोे दो प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है, एक वे जो ईश्वर में विश्वास करते हैं और आनंद या सुख के लिए उनकी पूजा करते हैं, और दूसरा वह जो मानते हैं कि भौतिक दुनिया से परे कोई दूसरी दुनिया है ही नहीं और सुख भौतिकवादी जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में ही निहित होता है।
भौतिकवादी ज़रूरतें पूरी न होने पर लोग दुखी हो जाते हैं, क्योंकि उनके लिए सुख की अवधारणा शारीरिक आनंद तक ही सीमित होती है। वास्तव में यह आभासी सुख है, इस दृष्टिकोण को मानने वाले लोगों का मानना है कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को आर्थिक आधार पर संचालित किया जाना चाहिए। शारीरिक सुखों से खुशी मिलती है जो थोड़े समय के लिए होती है और अंततः व्यक्ति को शांति से दूर कर देती है क्योंकि भौतिक आवश्यकताओं को स्थायी रूप से संतुष्ट करना लगभग असंभव कार्य होता है। जितना अधिक उन्हें पूरा किया जाता है, उतनी ही अधिक बलशाली होकर उनकी मांग बढ़ती जाती है। इसलिए इच्छाओं की यह अंतहीन वृद्धि युद्धों का एक कारण है।
भौतिक सुख अनंत हैं, जब वे पूरे नहीं होते तो दुख पैदा करते हैं। वे अथाह भी हैं क्योंकि मनुष्य को बुद्धि और विश्लेषणात्मक कौशल का वरदान मिला है। भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से कुछ क्षणिक सुख तो अवश्य ही मिलता है, लेकिन बहुत जल्द ही उसे पता चल जाता है कि यह सुख का वास्तविक स्रोत नहीं है। दूसरे शब्दों में, सुख भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से नहीं बल्कि उन्हें शांत करने से मिलता है।
हिंदू चिंतन के सभी संप्रदायों का एक ही उद्देश्य है। संसार ने अनेक शक्तिशाली शासक देखे हैं, जिनके पास अपनी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए असीमित साधन उपलब्ध थे। फिर भी वे कभी संतुष्ट और शांत नहीं दिखे। क्योंकि जब तक मन में इच्छाएं हैं, तब तक सुख या दुख जीवित ही बने रहेंगे। हमारे प्राचीन विचारकों ने इस स्थिति पर चिंतन किया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इच्छाओं की पूर्ति से जो सुख मिलता है, वह अंततः असंतोष की ओर लेकर ही जाता है।
इसलिए भोगों पर संयम रखना अति आवश्यक है। व्यक्ति को अपने भीतर झांकने, स्वयं को समझने, स्थायी सुख प्राप्त करने का उत्तर खोजने का प्रयास करना चाहिए। हमें केवल यही उत्तर मिलेगा कि हमारे उद्देश्य से परे एक और दुनिया है, वह दुनिया हमारे भीतर भी है, जहां संसार का ज्ञान और परम सत्य तथा मुक्ति विद्यमान है। एक बार यह प्राप्त हो जाने पर दुख के लिए कोई स्थान शेष नहीं रह जाता है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।