सुख और शांति की चाह      Publish Date : 17/02/2025

                             सुख और शांति की चाह

                                                                                                                                        प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

हमारे विचारक हमें शाश्वत और क्षणभंगुर के बीच का अंतर देखने के लिए आमंत्रित करते आए हैं। जगद्गुरू शंकराचार्य जी इसे अच्छे और बुरे को पहचानने की विवेकशील शक्ति कहते हैं। हम दार्शनिक निहितार्थों को दरकिनार कर इसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखेंगे। व्यक्ति जन्म लेते हैं और मर जाते हैं; पीढ़ियाँ बीत जाती हैं, परन्तु राष्ट्र जीवित रहता है। पानी की बूँदें कुछ समय के लिए आती हैं, वाष्पित होती हैं और विलुप्त हो जाती हैं। जबकि गंगा सहस्राब्दियों तक अविरल बहती रहती है।

                                                              

व्यक्ति समय की धारा में बुलबुले की तरह होते हैं जो आते और गायब हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, राष्ट्र ही शाश्वत है; जबकि व्यक्ति क्षणभंगुर है। एक अच्छा समाज वह है जिसमें क्षणभंगुर व्यक्ति शाश्वत समाज के लिए योगदान देता है और साथ ही साथ अपने भीतर दिव्य क्षमता का अनुभव भी करता है। धर्म में भी ऐसा ही दोहरा पहलू होता है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे लोगों ने राष्ट्रीय जीवन का ऐसा उचित दृष्टिकोण अपनाने में कंजूसी की है। संसार के चक्करों में उलझे रहने के कारण हम भौतिक सुख-सुविधाओं से ऊपर नहीं उठ पाते। हमने जीवन-स्तर को ही ऊपर उठाने का संकल्प लिया है, इसका अर्थ है मनुष्य की सांसारिक इच्छाओं को बढ़ाना और उन्हें संतुष्ट करने के साधन जुटाना। आज पूरी की गई इच्छा कल की जरूरत बन जाती है और इस तरह बढ़ती हुई इच्छाओं के लिए संघर्ष निरंतर चलता रहता है। आमतौर पर देखा जाता है कि शरीर की इच्छाएं कभी भी स्थायी रूप से शांत नहीं होतीं।

जितनी अधिक वे पूरी होती हैं, उतनी ही प्रबल रूप से बढ़ती चली जाती हैं। अनंत आवश्यकताओं में उलझा मनुष्य उन्हें संतुष्ट करने के लिए अनंत साधन खोजता है, लेकिन कभी सफल नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए, अमेरिका एक समृद्ध समाज के रूप में जाना जाता है, जो असीम सुख-सुविधाओं का आनंद ले रहा है। लेकिन वहीं, उसी समाज में अपराध और मानसिक विकृतियों में वृद्धि अनियंत्रित रूप से होती जा रही है।

लाखों अमेरिकी चौन की नींद के लिए गोलियां खाते हैं। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनकी जीवनशैली ही दोषपूर्ण है। जीवन के बारे में उनकी धारणा केवल राजनीतिक और आर्थिक कौशल के दो पहलुओं तक ही सीमित है और आंतरिक जीवन की तो पूरी तरह से उपेक्षा ही कर दी गई है। यह आंतरिक समृद्धि ही है जो अस्तित्व को संयम और उत्कृष्टता प्रदान करती है। इस प्रकार, आध्यात्मिकता आत्माओं को सुसंस्कृत करती है और उन्हें सुख और शांति का आनंद लेने की शक्ति प्रदान करती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।