जलवायु से सम्बन्धित खतरों के प्रबन्धन की आवश्यकता      Publish Date : 01/02/2025

       जलवायु से सम्बन्धित खतरों के प्रबन्धन की आवश्यकता

                                                                                                                             प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं रेशु चौधरी     

ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक एक अन्य विचलित करने वाला पक्ष है; किसान परिवारों पर बड़ता कर्ज, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2005 में देश में 48.6 प्रतिशत किसान परिवारों पर कर्ज था, जिनमें से अधिकाँश परिवार साहूकारों के चंगुल में फंसे थे। इन कर्जदार परिवारों में से अधिकाँश परिवार लगभग 62 प्रतिशत आन्ध्र प्रदेश में निवास करने वाले हैं जबकि इस लिहाज से दूरा स्थान तमिलनाडु का है जहाँ लगभग 74.5 प्रतिशत किसान परिवार इस घेरे में है। जहाँ तक सिंचित रूप से धनी प्रदेश पंजाब में भी कर्जदार किसानों का प्रतिशत 65.4 है, महाराष्ट्र, जहाँ कर्ज के चलते किसानों के द्वारा आत्महत्या की खबरे सबसे अधिक आती हैं, वहाँ भी 54.8 प्रतिशत किसान परिवार कर्ज में डूबे हैं।

विदर्भ में ऐसे परिवारों की संख्या सबसे अधिक है, जहाँ पर किसानों की आमदनी अधिकतर मानसून और बाजार के रूख पर निर्भर करती है। जलवायु परिवर्तन का परिणाम धरती के गर्म होने के रूप में सामने आ रहा है। अतः इस परिवेश में आवश्यक है कि हम जलवायु के प्रति किसी लचीली व्यवस्था पर शीघ्रातिशीघ्र विचार करें और इस कार्य में पंचायती राज संसाधनों की सहायता प्राप्त की जा सकती है। इसके लिए समुदाय प्रबन्धकों को जलवायु से हाने वाले खतरों के बारे में प्रशिक्षित किया जा सकता हैं, जो कि आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय बाजारों की मदद कर सकें।

जलवायु परिवर्तन के खतरें तापमान अथवा समुद्र के स्तरों में वृद्वि के रूप में सामने आ सकते हैं। भारत में केरल के समुद्री तट के अलावा अन्य स्थानों पर भी एक बड़ी संख्या में लोग रहते हैं, और आवश्यकता के अनुरूप हमें उनके पुर्वास के लिए भी तैयार रहना चाहिए इन्हें भी जलवायु पीड़ित ही कहा जाएगा क्योंकि यही वह लोग हैं जिन्हें अपना घर छोड़ने के बाद मुख्य भूमि पर ही रहना होगा।

मूल्यों की स्थिति पर भी देना होगा ध्यान

घरेलू खाद्य-सुरक्षा को बढ़ाने के लिए कीमतों की अस्थिरता की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है, यह एक दुर्भाग्य की बात है कि एक बहुत लम्बे समय से खाद्य-मुद्रा स्फीति की दर लगातार ऊँची ही बनी हुई है। इसके लिए हमें आगामी पंचवर्षीय योजना में खाद्य मुद्रा स्फीति नियंत्रण के लिए एक रायट्रीय मिशनकी स्थापना करनी होगी। इस प्रकार के मिशन के लिए विभिन्न घटक हैं जिन पर हमें ध्यान देना होगा।

खाद्य मुद्रा स्फीति के चालकों की पहिचान करने के लिए मुख्य रूप से सब्जियों, दालों, दूध-अंड़ें तथा माँस आदि पी होने वाले खर्च पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि इस मामले में सामान्य रवैया मददगार नही होगा। इसके लिए हमें मूल्य वृद्वि के लिए जिम्मेदार कारणों को अलग-अलग करके देखने की आवश्यकता पड़ेगी। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हम उन अनाजों की भी पहिचान करें जिनकी माँग एवं आपूत्रि में निरंतर असंतुलन बना हुआ है। जिसके कारण किसी विशेष मौसम के दौरान उनके मूल्यों में बढ़ोत्तरी हो जाती है, इसी प्रकार की रूपरेखाओं के बना लेने से मुद्रास्फीति की प्रवृत्तियों की पहिचान और उनके ऊपर नियंत्रण करना भी आसान हो जायेगा। बढ़ती कीमतों पर नियंत्रण पाना राष्ट्रय बागवानी मिशन, राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना एवं 60,000 पल्सेस विलेजेज प्रोग्राम के खास घटक हैं।

सीजन की नीतियों और मल्य वृद्वि के बीच के सम्बन्ध को समझना भी अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए एक लीटर दूध के उत्पादन की जो लागत आती है, उसका 80 प्रतिशत भाग पशु आहार और चारे के रूप में आता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि चारागाह के लिए छोडे जाने वाली जमीन भी घटती जा रही है और किसान भाई भी चारा उत्पादन के ऊपर अधिक ध्यान नही दे पाते हैं इसके अलावा सोयाबीन जैसी पौषक तत्वों का निर्यात किया जा रहा है उधर करीब 10 10 लाख मवेशियों को पर्याप्त पोषक आहार देना कठिन हो गया है। पशु आहार और विशेषरूप से पोषक तत्वों के निर्यात की समीक्षा करने की आवश्यकता है। भण्ड़ारण सुविधाओं का एक राष्ट्रीय ग्रिड स्थापित किया जाना आवश्यक है जिसमें अनाज और शीघ्र ही खराब होने वाली जिंसों को संरक्षित करने की व्यवस्था हो, ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार के गोदाम बनाए जाने चाहिए जिससे कि हड़बड़ी में किसानों को अपनी उपज को न बेचना पड़े।

फसल की कटाई के बाद की प्रौद्योगिकी पर पूरा ध्यान नही दिया जा रहा है और इसी का परिणाम है कि पैदावार और फसल के कट जाने के बाद काम में आने वाली बुनियादी सुविधाओं का विकास नही हो पा रहा है चलते अनाज और फलों तथा सब्जियों की मात्रा और गुणवत्ता दोनों का नुकसान हो रहा है। खाद्य-सुरक्षा के लिए माँगों पर कोई ध्यान नही दिया जा रहा है, वर्तमान में कृषि विज्ञान केन्द्रों की संख्या को ओर बढ़ाया जाना चाहिए और उनके प्रसार की गतिविधियों को आम किसान तक पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास किए जाने चाहिए तथा कोशिश होनी चाहिए कि कृषि विज्ञान केन्द्रों को कृषि उद्योग केन्द्रो के रूप में परिवर्तित किया जाए जिससे कि किसानों को अधिक से अधिक लाभ पहुँचाया जा सके।

कृषि में प्रगति को ओर आगे बढ़ाया जाना चाहिए

प्रौद्योगिकी परिवर्तन का मुख्य चालक है इस पर गेहूँ और चावल आदि के जींस छोटे करने के सन्दर्भ में पूर्व में ही ध्यान दे चुके है, छोटे पैमाने पर खेती करने और मछली-पालन के सन्दर्भ में भी हम मोबाईल फोन के लाभों को देख चुके हैं। हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ मौसम अनिश्चितता का सामना करना एक आम बात है। वैज्ञानिक जानकारी और किसानों के लिए काम करने वाली जानकारियों में अंतर को भी हमें पाटना है।

अभी तक किसान विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना करते रहें हैं और उन्हं जो भी जानकारी मिल पाती है, वह उनके लिए पर्याप्त सिद्व नही होती है। वर्तमान में ग्रामीण प्रौद्योगिकी का माहौल भी बदल चुका है और अब इस क्षेत्र में अनेक निजी क्षेत्र के व्यपारी भी पर्दापण कर चुके हैं। विभिन्न बीज निर्माता कम्पनी और कीटनाशक कम्पनियाँ भी किसानों के लिएसलाह एवं सूचनाएं उपलब्ध कराती हैं। कई बार तो साहूकार भी जो किसानों के लिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करते हैं वह प्रसार विशेषज्ञ के रूप में कार्य करने लगते हैं।

इसीलिए वर्तमान में उपकरणों का वैज्ञानिक प्रयोग भी हो रहा है, जिससे लागत में वृद्वि होती है और साथ ही पर्यावरण को भी नुकसान पहुँच रहा है। बिजली की निःशुल्क आपूर्ति आदि जैसी सरकारी नीतियों के चलते भूजल का अत्याधिक दोहन किया जा रहा है जिसके चलते पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि समेत विभिन्न स्थानों का भूजल नीचे जा रहा है। इस भूजल के कारण ही साठ के दशक की मुख्य हरित क्रॉन्ति सफल हो पाई थी। इसी विशेष ग्रामीण परिवेश की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रौद्योगिकी का विकास किया जाना अभी बाकी है।

फिलहाल वैज्ञानिक किसी विशेष क्षेत्र के लिए विनिर्दिष्ट पदों को विकसित करने में लगे हुए हैं। सतत एवं विश्ष्टि पदों को विकसित करने के लिए अनुसंधान के काम में किसानों को भी शामिल करना होगा ऐसे संघ के गठन का ऐलान भी किया जाना चाहिए्र, जिससे किसानों को अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो सकें। देश में कई संघ और कमेटी और स्वयं सहायता समूह कार्य कर रहे हैं, परन्तु उनको ओर अधिक सुदृढ़ बनानें की आवश्यकता है। कृषि उद्योग के लाभ छोटे किसानों तक भी पहुँच सके, इस प्रकार की कमेटियाँ और संघ उपलब्ध हैं तो इनके माध्यम से निर्धन किसानों तक कोई भी संसाधन नही नही पहुँच पा रहे हैं।

जहाँ कहीं भी बड़े पैमाने पर सरकार के द्वारा सब्सिडी दी जाती है कम्पनियाँ अपने उत्पदों को बेच पाती हैं। इसके सम्बन्ध में ड्रिप सिंचाई का उदाहरण भी दिया जा सकता है। कृषि में प्रसार सेवाओं के लाभ इस रूप में सामने आने चाहिए कि लोग वैसा ही आचरण करें ओर इस तरह से नई पदो ंके प्रसार हो सके किसान से किसान सीखें इस बात के संगठित प्रयास किये जाने चाहिए यह काम किसी विश्वविद्यालय की स्थापना द्वारा किया जा सकता है।

मौसम और विपणन के क्षेत्र में मोबाइल फोन के लाभ दिखाई देने लगे हैं, उनके चलते छोटे किसान भी जरूरी सूचनाओं को प्राप्त लेते हैं।

इसी प्रकार तमिलनाडु में समुंद्र में जाने वाले मछुआरों को भी समुद्र में ही रहते हुए सूचना मिल जाती है ऐसी प्रौद्योगिकी के प्रयोग का प्रचार आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में भी किया जा रहा है। पिछले साढे तीन दशकों के दौरान दूध उत्पादन क्षेत्र में विशेष सफलता मिली है, इसके चलते हम दुनिया में सबसे बड़े दूध उत्पादक देश के रूप में उभरकर सामने आयें हैं इसके साथ ही गेहूं और चावल की पैदावार करने का साथ यंत्र युग की शुरुआत करने के हमारे प्रयास भी जारी है, लेकिन पैदावार और कटाई के बाद के पदों में निवेश करने में हम सफल नहीं हो पाए हैं और खास तौर से अनाज भंडारण और जल्दी खराब हो जाने वाली जीन्सों को संभाल पाने के लिए आधारभूत सुविधाएं जुटाने के क्षेत्र में हम विफल रहे हैं। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में और विशेष सुविधाओं की उपलब्धता भी कम हुई है जिनमें अब सुधार किया जा रहा है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की मानव संसाधन विकास क्षेत्र में एक बात की तुरन्त जरूरत है और वह है वहाँ चल रही बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों की रिक्तियों को समय पर भरा जाए, जिससे वैज्ञानिकों की संख्या बढ़ें और वह अधिक से अधिक तकनीकियों को विकसित कर सकें और उनको शीघ्र से शीघ्र किसानों तक पहुंचाया जा सके। कृषि अनुसंधान विकास में एक विशेष पूर्वोत्तर को स्वर्ग बनाए जाने की जरूरत है। हैदराबाद की राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान अकादमी को सर्वोच्च प्रशिक्षण संस्थान के तर्ज पर विकसित किया जाना चाहिए, जैसे राष्ट्रीय रक्षा अकादमी नई दिल्ली के बारे में किया गया है। इससे कृषि विश्वविद्यालय और कृषि अनुसंधान संस्थानों के प्रबंधन में सुधार आएगा।

हैदराबाद कृषि अनुसंधान अकादमी को मात्र बांटने वाले विश्वविद्यालय के रूप में नहीं जोड़ना चाहिए। अगले 5 वर्षों में अधिकांश पर्यावरण विज्ञान, अर्थशास्त्र और क्षेत्रों में चुनौतियों का सामना करना होगा। पर्यावरण की दृष्टि से हमें बुरे परिवर्तनों से निपटने की तैयारी करनी है। अर्थशास्त्र में हमें खुशी के लागत जोखिम प्रतिफल ढांचे में खराबी का सामना करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए क्योंकि गांव की युवा पीढ़ी वहां रहने और खेती व्यवसाय में शामिल होने की इच्छुक नहीं है। हमारी जनसंख्या में 50 प्रतिशत से अधिक लोग 35 वर्ष से कम आयु के हैं। अतः युवाओं को खेती में लगाए रखना सबसे बड़ी चुनौती हो सकती है।

हम इस समस्या को तभी सुलझा सकते हैं जब खेती को बुद्धि वादी प्रेरक और आर्थिक रूप से लाभप्रद व्यवसाय बना सकें, इसके लिए हमें पैदावार और फसल कटाई के बाद के कामों को तकनीकी रूप से उचित विकास करना होगा।

जलवायु परिवर्तन के कारण अंतरराष्ट्रीय अनाज बाजार में अनिश्चितता शुरू हो गई है, और यही कारण है कि यदि हमें अनाज का आयात करना पड़ता है तो हम अनाजों तक सबकी पहुंच को कानूनी अधिकार नहीं बना पाएंगे। हमारी खाद्य- सुरक्षा का आधार स्वदेशी अनाज उत्पादन होना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है कि खेती को अनाज उत्पादन करने वाली मशीन नहीं समझा जा सकता। यह तो देश की 60 प्रतिशत से अधिक लोगों की जीविका की सुरक्षा व्यवस्था है और यही कारण है कि अगर खेती गड़बड़ा जाती है तो अर्थव्यवस्था में कुछ भी ठीक नहीं रहने के आसार नहीं बचते हैं।

छोटे किसानों की आमदनी के अनेक शोध उपलब्ध रहें और इसके लिए जरूरी है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनुसंधान कार्यक्रम चलाया जाए जिसमें खेती और गैर खेती के कामों में उसी समय मिलने वाले रोजगार को भी शामिल किया जाना चाहिए। हमारी किसानों की जोत छोटी है तथा उनका आमदनी के एक ही स्रोत पर निर्भर देना काफी नहीं होगा, ऐसा इसलिए भी क्योंकि हमारी करीब 60 प्रतिशत कृषि भूमि की सिंचाई वर्षा से की जाती है। इसी तरह से तटीय क्षेत्रों में, हमें एक प्रति व्यवस्था अनुसंधान कार्यक्रम चलाने की आवश्यकता है, जिसके अंतर्गत हमें प्रति इलाकों की जमीन और समुद्र दोनों की ओर ध्यान देने की जरूरत पड़ेगी।

हमें तटीय क्षेत्रों में समुद्री पानी से सिंचाई करके खेती का आंदोलन शुरु करना होगा और ऐसी किस्में विकसित करनी होगी जो नमकीन पानी को बर्दाश्त कर सकें। तटीय इलाकों में इस तरह के फॉर्म पर्यावरण और आर्थिक आधार पर विकसित किए जा सकते हैं जिससे स्थानीय निवासी जीवों की सुरक्षा हो सके और साथ ही तटीय इलाकों के पर्यावरण में भी सुधार होगा।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।