
मक्का की बुआई के लिए फरवरी का प्रथम सप्ताह सर्वोत्तम Publish Date : 31/01/2025
मक्का की बुआई के लिए फरवरी का प्रथम सप्ताह सर्वोत्तम
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
अधिक मुनाफा कमाने के लिए क्या करना चाहिए?
जायद में मक्का की खेती की जाती है। बुआई फरवरी महीने में करना अनिवार्य है इसकी खेती के बारे में डिटेल में बता रहें है हमारे कृषि विशेषज्ञ-
जायद में मक्का की खेती भुट्टों और चारा दोनों के लिए ही की जाती है। इसकी खेती के लिए पर्याप्त जीवांश वाली दोमट मृदा उत्तम रहती है।
मक्का की बुआई के लिए फरवरी का प्रथम सप्ताह सर्वाेत्तम माना जाता है। अतः मक्का की बुआई 20 फरवरी तक अवश्य कर लेनी चाहिए। विलम्ब से बुआई करने से जीरा निकलते समय गर्म हवायें चलने पर सिल्क तथा परागकणों के सूखने की आशंका बनी रहती है। इससे बाली में दाना नहीं पड़ पाता है।
जायद में मक्का की खेती के लिए आवश्यक बातें क्या है, कौन-कौन सी किस्म एवं किस प्रकार से इसकी खेती करके अधिक लाभ लिया जा सकता है एवं वर्तमान में शीतकालीन मक्का की फसल की देखरेख कैसे की जाए सब कुछ जानकार दे रहे हैं, हमारे कृषि वैज्ञानिक-
इस प्रकार करें जायद में मक्का के खेती की तैयारी
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, समतल एवं अच्छी जल धारण वाली मृदा मक्का की खेती के लिए उपयुक्त होती है। पलेवा करने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से 10-12 सें. मी. गहरी एक जुताई तथा उसके बाद कल्टीवेटर या देसी हल से दो-तीन जुताइयां करके पाटा लगाकर खेत की तैयारी करनी चाहिए।
बीज उपचार जरूर करें
कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि जायद मौसम में संकर एवं संकुल प्रजातियों के लिए बीजदर 18-20 कि.ग्रा. एवं 20-25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर पर्याप्त होती है। बीज को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम या 2.5 ग्राम थीरम रसायन से प्रति कि.ग्रा. बीज को उपचारित करके बुआई करें। संकर व संकुल प्रजातियों की बुआई 60 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 20-25 सें.मी. की दूरी पर करनी चाहिए।
मक्का की खेती के लिए उर्वरक प्रबंधन
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। जिस मृदा में जिंक तत्व की कमी होती है, वहां पर पत्ती की मध्य धारी के दोनों तरफ सफेद धारियां दिखाई पड़ती हैं। इस कमी को दूर करने के लिए 20 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट/हैक्टर की दर से अन्तिम जुताई के साथ मिट्टी में मिला देना चाहिए।
यदि किसी कारणवश मृदा परीक्षण न हो पाया हो, तो संकर एवं संकुल प्रजातियों के लिए 80:40:40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटाश/हैक्टर की दर से देनी चाहिए। भुट्टे के लिए नाइट्रोजन की आधी और फॉस्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय देनी चाहिए। नाइट्रोजन की शेष बची हुई मात्रा बुआई के 30 दिनों बाद देनी चाहिए।
जायद मक्का की फसल में सिंचाई प्रबंधन
कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार जायद मक्का की फसल में 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। अतः किसानों को 10-12 दिनों के अंतराल पर मक्का की सिंचाई करते रहना चाहिए। जीरा निकलते समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। मक्का की फसल में प्रारंभिक अवस्था में खरपतवारों से काफी क्षति होती है। इसके लिए निराई-गुड़ाई करना अति आवश्यक कार्य होता है।
हालांकि, एट्राजीन नामक रसायन का प्रयोग करके भी खरपतवारों का नियंत्रण किया जा सकता है। इसके लिए 1.0-1.5 कि.ग्रा. एट्राजीन 50 प्रतिशत डब्ल्यू. पी. को 800 लीटर पानी में घोलकर बुआई के दूसरे या तीसरे दिन अंकुरण से पूर्व प्रयोग करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं अथवा एलाक्लोर 50 प्रतिशत ई. सी. 4-5 लीटर को भी 800 लीटर पानी में घोलकर बुआई के 48 घण्टे के अन्दर प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते हैं।
शीतकालीन मक्का की देखभाल कैसे करें
रबी मक्का में 4-5 सिंचाइयां करनी पड़ती है। शीतकालीन मक्का की फसल में पांचवीं सिंचाई (120-125 दिनों बाद) दाना भरते समय अवश्य करनी चाहिए। अगर आवश्यकता हो, तो अतिरिक्त सिंचाई खेत की नमी के अनुसार करना उपयुक्त रहेगा, अन्यथा पौधों की बढ़वार के साथ-साथ उपज में भी कमी हो सकती है।
मक्का की फसल में तनाबेधक कीट और पत्ती लपेटक कीट की रोकथाम के लिए कार्बेरिल दवा के 2.5 मि.ली. घोल को 500 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें। शरदकालीन मक्का में यदि रतुआ तथा चारकोल बंट का खतरा हो तो 400-600 ग्राम डाइथेन एम. 47 को 200-250 लीटर पानी में घोलकर 2-3 छिड़काव करें।
गुलाबी उकठा रोग: इस रोग में दाने पड़ने के बाद पौधे खेत में कम नमी के कारण सूखने लगते हैं। तने को तिरछा काटने पर संवहन नलिकायें निचली पोरों पर गुलाबी रंग की दिखाई देती हैं तथा सिकुड़ जाती हैं।
काला चूर्ण उकठा रोग: कटाई से 10-15 दिनों पहले पौधे खेत में सूखे दिखाई देते हैं। तनों को तिरछा काटने पर जड़ों के पास संवहन नलिकायें सिकुड़ी हुईं तथा कोपलें चूर्ण से भरी हुई दिखायी देती हैं।
इस रोग की रोकथाम हेतु स्वस्थ बीज का प्रयोग, बीजजनित रोगों से बचाव हेतु बीज को थीरम 2.5 ग्राम अथवा कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा में प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करके ही बोना चाहिए। कवकजनित रोगों से बचाव के लिए ट्राइकोडर्मा से 20 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से बीज उपचारित कर बुआई करें।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।