
एकीकृत पौध पोषण प्रबन्धन Publish Date : 29/01/2025
एकीकृत पौध पोषण प्रबन्धन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु
भारतवर्ष में पिछले कई दशकों से रासायनिक कृषि पद्वति को अपनाने के कारण उसमें आशा के अनुरूप सफलता भी पाई गइ्र है। परन्तु इस सफलता के परिणामस्वरूप वर्तमान में पर्यावरण क्षहत के लक्षण स्पष्ट रूप से सामने आने लगे हैं। चूँकि कृषि का आधार स्वस्थ्य भूमि, शुद्व जल एवं जैव विविधता के अन्तर्गत ही निहीत होता है। अब आवश्यकता प्रतीत होने लगी है कि सघन रासायनिक कृषि पद्वति सदैव के लिए उपयोगी सिद्व नही हो सकती है। अतः पोध पोषण के लिए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को कम करने के लिए जैव पौध-पोषण को प्राथमिकता प्रदान करना ही वर्तमान परिस्थितियों की माँग है। अब प्रश्न यह उठता है कि रासायनिक उर्वरकों के ऊपर निर्भरता को कम करते हुए उत्पादन स्तर और प्रगति की दर को बनाए रखना भी सम्भव होगा कि नही? पिछले दशकों में किए गए अनुसंधानों का विवेचन पुनः किया जाना चाहिए। प्रारम्भिक विवेचना इशारा करती है कि जैव पौध पोषण रासायनिक पौध पौषण का सशक्त पूरक सिद्व हो सकती है। इस दिशा विभिन्न संस्थाओं एवं किसानों के खेतों पर किए गए परीक्षण भी इसी अवधारणा की पुष्टि करते हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति पौध-पोषण के मिले-जुले उपाय के माध्यम से ही सम्भव है।
जैव एवं औद्योगिक अवशेषः
हमारे देश में जैव एवं औद्योगिक अवशेष प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और उसे नष्ट करने की अपेक्षा पौध-पोषण के लिए कम्पोस्ट में परिवर्तित किया जाता चाहिए, फिर चाहे कम्पोस्ट को तैयार करने के लिए किसी भी विधि को क्यों नही अपनाया जाए। फिर भी यदि नापेड कम्पोस्ट विधि को अपनाया जाता हे तो कम्पोस्ट की मात्रा में वृद्वि की सम्भाना बढ़ जाती है। कम्पोस्ट के माध्यम से पोध-पोषण की 50 से 60 प्रतिशत आपूर्ति हो जाती है।
भूमि का स्वास्थ्यः
भूमि की सजीवता से पौध-पोषण उपलब्ध कराने की प्रक्रिया को गति प्राप्त होती है, अतः उपलब्ध कम्पोस्ट का उपयोग करना चाहिए। कमपोस्ट भूमि में उपस्थित जीवों के पोषण एवं ऊर्जा का स्रोत होता है और भूमि में पर्याप्त जीवांश एवं जल-धारण क्षमता में वृद्वि होती है। भूमि के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार कम सम कम जुताईयाँ करनी चाहिए। भूमि पर कोई भी पौध आवशेष जैसे- गेंहूँ, धान का पुआल तथा गन्ने की पत्तियाँ आदि नही जलानी चाहिए, नही तो इससे भूमि की सजीवता नष्ट हो जाने के कारण रासायनिक उर्वरक पर निर्भरता बढ़ती जाती है।
फसल प्रणाली‘
क्षेत्र विशेष के अनुसार विभिन्न फसल प्रणालियों को अपनाया जाता है, ऐसे में आवशकता है एक मुख्य फसल चक्र को अपनाने की। यदि दलहन/अनाज फसल चक्र को अपनाया जाता है, तो अवशेष नाइट्रोजन अगली फसल को प्राप्त हो जाने से 16 से 20 प्रतिशत पौध-पोषण तत्वों की बचत तो हो ही जाती है। एकल फसल पद्वति आधाररित होती है रासायनिक पौध-पोषण से अतः ऐसी फसल पद्वति में रासायनिक पौध-पोषण पर निर्भरता को कम करना सम्भव है यदि अनाज/तिलहन/नकद फसलों के साथ दलहन की अन्तरस्तरीय/मिश्रित फसल को लिया जाना चाहिए। ऐसा करने से दलहन एवं अनाज फसल पौध-पोषण में एक दूसरे के पूरक होते हैं। दलहन मृदा को नाइट्रोजन उपलब्ध कराते हैं तो अनाज वाली फसलें माइकोराईजा के द्वारा फॉस्फोरस उपलब्ध कराते हैं।
जीवाणु कल्चर का उपयोगः
रासायनिक उर्वरक एवं जीवाणु कल्चर का उपयोग एक साथ करने पर ये दोनों ही एक-दूसरे के प्रभाव को कम करते हैं। उर्वरकों का उपयोग क्षमता वृक्ष् के लिए बीज के नीचे किया जाना उचित रहता है। दानेदार जीवाणु कल्चर देनें की नई विधि का उपयोग करने से इनकी क्षमता का दोहन उष्ण एवं उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में सम्भव होता है। अतः आधा रासायनिक उर्वरक एवं व दानेदार जीवाणु कल्चर को उपयुक्त समय एवं स्थान पर देने से समुचित उत्पादन के स्तर को बनाए रखते हुए उसकी सम्भावना भी बढ़ जाती है। यदि जीवाणु कल्चर के साथ कम्पोस्ट की आधी या चौथाई मात्रा को भी दिया जाता हैं तो उसके और भी अधिक अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं। एक जीवाणु कल्चर के स्थान पर दो या तीन प्रकार के जीवाणु कल्चर एक साथ मिलाकर देनें से ये एक उत्प्रेरक के तौर पर कार्य करते हैं। जिससे कीट-व्याधि निरोधक शक्ति में वृद्वि के साथ-साथ अधिक उत्पादन की प्राप्ति की सम्भावना भी बढ़ जाती है।
खरपतवार नियंत्रणः
प्रकृति में विभिन्न प्रकार के पौधें एक साथ उत्पन्न होते हैं, जे एक-दूसरे के पूरक होते हैं। खरपमवार नियंत्रण का उद्देश्य होता है कि खरपतवार फसल के साथ पौध पोषण जल, सूर्य का प्रकाश तथा स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा न कर पाएं। यदिन वे प्रतियोगिता करने की स्थिति में पहुँच जाते हैं तो उन्हें किस प्रकार से नियंत्रित किया जाए। खरपतवार कीटों को आकर्षित करने के लिए ‘‘ट्रैप’’ भी करते हैं। जिससे मुख्य फसल कीट प्रकोप से बच जाती है। अधिक वर्षा से जल-जमाव की स्थिति उभारने में भी वे सहायक होते हैं। अतः खरपतवारों के नियंत्रण का प्रयास किया जाए न कि उनके उन्मूलन का। निकाले गये खरपतवार भी उपयोगी सिद्व होते है, यदि उनका उपयोग मुख्य फसल की कतारों के मध्य पलवार के रूप में किया जाए। पलवार भूमि से जल के वाष्पीकरण को बाधित करने के साथ ही भूमि के अन्दर आश्रय पाने वाले जीवों के विच्छेदित होने के उपरांत पोषक तत्वों को भी उपलब्ध करता है।
खरपतवार को अभिशाप नही समझना चाहिए अपितु इनका नियंत्रण सूझबूझ के साथ करने से वरदान भी सिद्व होते हैं। पौध पोषण हेतु नई कार्य योजना जिसमें विभिन्न छोटे-छोटे उपायों, जिनके माध्यम से जैव-पौध पोषण उपलब्ध होता है उनमें समन्वय स्थापित किया जाए तो इसके परिणाम अत्यन्त उत्साहवर्धक प्राप्त होते हैं। यदि इस प्रकार के दृष्टिकोण को अपनाया जाता है तो कृषि के उत्पादन के लिए पौध-पोष में इनकी भुमिका बेहद महत्वपूर्ण होगी। अतः इनकों भविष्य में जैव-पोषण स्रोतों के सशक्त विकल्प के रूप में विकसित किया जाता है तो रासायनिक उर्वरकों के ऊपर निर्भरता को सीमित किया जा सकता है।
एकीकृत जैव-पोषण प्रबन्धन तकनीक के माध्यम से समुचित उत्पादन के साथ प्राकृतिक सम्पदा यथा जल, मृदा एवं जैव-विविधता आदि को अक्षुण्ण रखा जा सकता है।
एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन (आई.पी.एम.)
कीट, रोग, चूहों एवं खरपतवारों के कारण फसल की उपज पर प्रतिवर्ष बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इनमें धान की बाल को काटने वाला सैनिक कीट, धान का गन्धी कीट, चने एवं अरहर का फली बेधक, मूँगफली की सफेद गिन्ड़ार, सरसों का माहू, आम का फुदका, आलू का पछेती झुलसा, मटर का बुकनी रोग, टमाटर और भ्ण्ड़िी का मौजेक, अरहर का बन्झा रेाग तथा गेंहूँ का मामा आदि कुछ प्रमुख समस्याएं प्रमुख रूप से सामने आती हैं।
रसायनों के निरंतर प्रयोग के कारण वर्तमान में विभिन्न कीटों के द्वारा उनके प्रति प्रतिरोधकता का विकास कर लिया है और इसके साथ ही खेत/वातावरण में उपस्थित विभिन्न प्रकार के परजीवी कीट भी समाव्त हो रहे हैं। जिसके कारण एक ओर जहाँ पर्यावरण संतुलन प्रभावित हो रहा है, तो वहीं दूसरी ओर इन रसायनों का दुष्प्रभाव अब मानव स्वास्थ्य पर भी परिलक्षित होने लगा है।
इन समस्याओं के प्रभावी निदान के लिए वर्तमान में जिस कृषि पद्वति पर जोर दिया जा रहा है उसे ही एकीकृत नाशीजीव प्रबन्धन कहा जाता है। इस विधि के अन्तर्गत कीटों, रोगों एवं खरपतवारों आदि के उन्मूलन/नियंत्रण की अपेक्षा इनके प्रबन्धन की बात की जाती है। इस पद्वति के अनुसार किसी भी जीव को हमेशा के लिए नष्ट करना नही है, अपितु इस प्रकार के उपाय करने से है, जिनके माध्यम से उनकी संख्या/घनत्व सीमित ही रहे और उनके कारण फसल की उपज को अधिक हानि नही पहुँचें।
आई.पी.एम. के उद्देश्य
1. रसायन रहित नाशीजीव के नियंत्रण एवं अन्य विधियों का सामूहिक अथवा आवश्यकता के अनुसार उपयोग कर नाशीजीवों की वृद्वि को आर्थिक क्षति स्तर की सीमा के नीचे बनाये रखना है।
2. कीटनाशी रसायनों का कम से कम उपयोग कर पर्यावरण संतुलन को संरक्षित बनाये रखना है।
3. नाशीजीव नियंत्रण के लिए जिन साधनों को अपनाया जाए वह प्रभावी होने के साथ-साथ कम खर्चीलें भी हों।
4. पर्यावरण एवं वातावरण को प्रदूषित होने से बचाना।
5. अवरूद्व कृषि उत्पादन में वृद्वि करना।
आई.पी.एम. के सिद्वाँत
1. फसल की बुआई से लेकर कटाई तक साप्ताहिक निगरानी के तहत मित्र एवं शत्रु कीटों के बारे में जानकारी रखना।
2. कीट, रोग एवं खरपतवार आदि के नियंत्रण के लिए वातावरएा को प्रदूषण रहित रखने वाले उपायों को ही अपनाना।
3. आई.पी.एम. के तरीकों को सही समय पर अपना कर नाशीजीवों के द्वारा होने वाली आर्थिक स्तर की सीमा से नीचे ही रखना।
4. रसायनों का प्रयोग उचित मात्र में उसी समय किया जाना चाहिए जब कीटों एवं रोगों का का प्रकोप क्षति के आर्थिक स्तर की सीमा को पार कर रहा हो।
आई.पी.एम. की विधियाँ
(अ) शस्य क्रियाएं (कृषण क्रियायें):
1. गर्मियों में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई कर भूमि में उपस्थित कीटों की विभिन्न अवस्थाओं को नष्ट करना।
2. उचित फसल चक्र को अपनाना।
3. बीज-शोधन कर समय पर ही बुआई करना।
4. स्वस्थ्य एवं रोग-रोधी प्रजातियों की बुआई को प्राथमिकता प्रदान करना।
5. नर्सरी को उचित समय एवं ऊचाई पर लगाना।
6. पौध से पौध तथा पंक्ति से पंक्तियों की दूरी रखने में संस्तुत की गई दूरी का पालन करना।
7. नर्सरी में लगी पौध की जड़ों का शोधन करने के उपरांत ही रोपण करना।
8. उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करना।
9. सिंचाई का समुचित प्रबन्ध करना तथा आवश्यकता के अनुसार ही खेत की सिंचाई करना।
(ब) यान्त्रिक नियंत्रण
1. खेतों में दिये गये अण्ड़ों तथा उपस्थित सूँड़ियों को एकत्र कर नष्ट करना।
2. कीट अथवा रोग ग्रस्त पौधे के प्रभावति भाग अथवा पूरे पौधे का ही निकाल कर नष्ट करना।
3. हिस्पा ग्रसित पौधों से पत्तियों के ऊपरी भाग को काट देना।
4. केशवर्म की सूँड़ियों को रस्सी के द्वारा पानी में गिरा कर नष्ट करना।
5. फेरोमोन ट्रैप (गन्धपाश) को खेतों में लगाकर कीटों का आकलन करना तथा समूह में नर पतंगों को पकड़ कर नष्ट करना।
6. लाइट ट्रैप (प्रकाश प्रपंच) को खेतों में लगाकर कीटों को नष्ट करना।
(स) जैविक नियंत्रण
1. परभक्षी एवं परजीवी कीटों को बाहर से लाकर खेत अथवा फसलों में छोड़ना।
2. खेत अथा फसल में पहले से ही उपस्थित परजीवी एवं परभक्षी कीटों को संरक्षण प्रदान करना।
3. शत्रु एव मित्र कीटों के अनुपात को 2:1 बनाए रखना।
(द) रासायनिक नियंत्रण
1. कीटनाशक रसायनों का उपयोग अन्तिम उपाय के रूप में करना।
2. सुरक्षित एवं संस्तुत रसायनों का प्रयोग उचित सतय एवं उचित तात्रा में करना।
3. रसायनों का प्रयोग करते समय संस्तुत सावधानियों का पालन आवश्यक रूप से करना।
4. खरपतवार नाशक रसायनों का प्रयोग दिए गए निर्देशों के अनुसार ही करना।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।