जीवन की प्राथमिकता रोटी      Publish Date : 23/12/2024

                              जीवन की प्राथमिकता रोटी

                                                                                                                                             प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

जीवन की प्राथमिकताओं में रोटी अर्थात खाद्य-पदार्थों का स्थान सदैव से ही प्रथम स्थान पर रहा है और रहेगा। रोम के दार्शनिक सेनेका का कथन है ‘‘एक भूखा इन्सान तर्क नही सुनता है, न्याय अथवा नीति की चिन्ता नही करता, किसी प्रार्थना पर झूकता भी नही है।’’ रायट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘‘एक भूखे आदमी के सामने यदि भगवान भी आ जाए तो उसे भी रोटी के रूप में ही आना पड़ेगा।’’

                                                               

भूख के विभिन्न अर्थ हो सकते हैं, सामान्य रूप से भूख का अर्थ - खाद्य-पदार्थ अथवा विशेष पोषण तत्व हेतु तरस/इच्छा। पेट भरना ही प्राथमिकता होती है परन्तु भूख का उपशमन मात्र पेट भरना ही नही है, इस दौर में कुपोषण अथवा अप्रत्यक्ष भूख वर्तमान की सबसे बड़ी समस्या है।

भारत ने गलत ठहराया मालथस एवं मालथसवादियों की भविष्वाणियों को

मालथस (वर्ष 1798) ने कहा था कि बहुत समय पूर्व ही धरती अपनी जनसंख्या को वहन करने की क्षमता की सीमा को पार कर चुकी है। पिछली शताब्दी में एहरलिश (1968) ने कहा कि वर्ष 1970 से वर्ष 1985 के बीच विश्व में कभी भी भीषण अकाल पड़ेगा और करोड़ों लोग भूख से मर जाएंगे। अमेरिका को भारत को किया जाने वाला खाद्य निर्यात बंद कर देना चाहिए, क्योंकि भारत तो अपनी निरंतर बढ़ी जनसंख्या के चलते पहले से ही विनाश के कगार पर है और वहां खाद्य सामग्री तथा जनसंख्या का असमन्वयन काफी चिन्ताजनक है।

तत्पश्चात् ब्राउन एवं केन (1994) के द्वारा भी एक मालथसवादी भविष्यवाणी की गई थी ‘‘भारत और चीन दोनों ही देश, अपनी बढ़ती जनसंख्या के कारण शीघ्र ही भुखमरी से पीड़ित होने वाले हैं।’’

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि इन भयावह माथसवादियों के उपरोक्त भविष्यवाणियों के उपरांत विश्व को कभी भी ऐसे दुर्भिक्ष की स्थिति का समाना नही करना  पड़ा, जैसी आशंकाएं व्यक्त की जा रही थी। इन भविष्यवाणियों को गलत साबित करने में भारतीय कृषि की उन्नति अपने आप में एक आदर्श है। भारत में इसकी आजादी के समय अर्थात वष 1950 में 51 मिलियन टन खाद्यान्न को उत्पादन होता था वहीं इसके लगभग 50 वर्ष बाद यह उत्पादन बढ़कर 200 मिलियन टन तक पहुँच गया था, उत्पादकता में यह वृद्वि 33 गुणा थी। भारतवर्ष में खाद्यान्नों का रिकार्ड उत्पादन वर्ष 2001-02 में 211.32 मिलियन टन तक का हुआ था।

भारत में जनसंख्या की चुनौति का सफलतापूर्वक सामना

यह सत्य है की जनसंख्या में वृद्वि साधारण गति से न होकर ज्यामितीय गति के आधार पर होती है। पृथ्वी की जनसंख्या को प्रथम अरब की संख्या तक पहुँचनें में करोडों वर्ष लगे, जबकि छठे अरब तक पहुँचनें में मात्र 11 वर्ष का समय ही लगा। वर्ष 1750 में जो जनसंख्या मात्र 25 करोड़ थी वर्तमान में वह बढ़़कर अब 8 अरब के आसपास तक पहुँच चुकी है।

कहने का अर्थ यह है कि जनसंख्या द्विगुणन की अवधि मात्र 40 वर्ष ही रह गई है और दुनिया की आबादी अब 40 वर्ष में ही दुगुनी हो रही है। विश्व की वर्तमान आबादी 8 अरब है जिसमें चीन एवं भारत की सर्वाधिक हिस्सेदारी है। भारत की वर्तमान जनसंख्या सवा अरब से अधिक है और यहाँ का राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्वि स्तर लगभग 2 प्रतिशत है। दक्षिण के राज्यों, विशेष रूप से केरल तथा गोवा आदि प्रदेशों की स्थिति तो फिर भी बेहतर है।

खाद्यान्न उत्पादन के सापेक्ष खाद्य की उपलब्धता

    चूँकि खाद्य उम्पादन अति महत्वपूर्ण तथ्य है, परन्तु इसी के सापेक्ष खाद्य उपलब्धता भी उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। खाद्यान्नों का उत्पादन करना एक अलग बात है, किन्तु उसकी पहुँच को सभी के सुनिश्चित् करना एक अलग बात है। विश्वा में विभिन्न देश ऐसे भी है जो कि खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्मनिर्भर होने का दावा तो करते हैं परन्तु उनकी जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इन खाद्यान्नों को प्राप्त करने की आर्थिक क्षमता युक्त नही होता है। यहद जनसंख्या के इस हिस्से को का भी सशक्तिकरण कर इसे इस योग्य बनाया जाए कि वह इन खाद्यान्नों की कर सकें अथवा उसे प्राप्त कर सके तो इसके बाद ही खद्यान्न के सम्बन्ध में आत्मनिर्भरता का दावा स्थाई माना जाएगा।

जनसंख्या के लिए खाद्यान्नों की उपलब्धता को बढ़ाने के मार्ग

खाद्यान्नों की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए भौतिक, आर्थिक एवं अन्य विभिन्न प्रकार के उपायों को अपनाया जा सकता है। किसी विशेष सामाजिक-आर्थिक समूह को अधिकार के द्वारा पूँजिवाद के अन्तर्गत सामाजिक सुरक्षा कवच प्रदान करना घर के स्तर पर खाद्य-पदार्थ और पोष्टिकता की सुरक्षा आदि को प्रदान करना। सभी के लिए खाद्य-पदार्थों की समान उपलब्धता को सुनिश्चित् करने के लिए विभिन्न प्रकार के माध्यमों का उपयोग किया जा सकता है, यथा- जन-प्रशिक्षण कार्यक्रमों का संचालन, सामाजिक सक्षमता को पदान करना, लैंगिक समृष्टि अर्थात महिलाएं, परिवार के अन्य सभी सदस्यों के बाद ही भोजन क्यों गहण करें? आदि।

खाद्यान्न उत्पादन और उसकी बचत दोनों ही एक समान

यदि उचित उपयों को अपनाकर खाद्या-पदार्थों को बर्बाद होने से रोका जा सके तो इसको उत्पादन के बारबर ही माना जाता है। खाद्यान्नों की सुरक्षा के लिए निम्न तरीके लाभदायक हो सकते हैं-

  • खाद्य पदार्थों को व्यर्थ नही होने देना।
  • अतिरिक्त बचे हुए खाद्य-पदार्थों का सदुपयोग।
  • खाद्य-पदार्थों के उपयोग में एक संतुलित व्यवहार।
  • उत्पादन को बढ़ाने वाले कारकों को प्रोत्साहित करना।
  • पेड़-पौधे लगाना एवं उनकी रक्षा करना।
  • खाद्य-पदार्थ एवं पर्यावरण प्रदूषण में न्यूवता सुनिश्चित् करना।
  • वृहद पर्यावरण संरक्षण की नीति के तहत व्यवहार करना।
  • उपरोक्त कारकों के अनुरूप सामाजिक शिक्षा के कार्यक्रमों का संचालन करना।

वैश्विक सहभागिता का समय

वर्तमान समय में भारत में खाद्यान्न निर्भरता की स्थिति संतोषप्रद है और अब हमें दूसरे देशों से इस सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की कोई सहायता की आवश्यकता भी नही है। इसके उपरांत भी हमारी बढ़ती जनसंख्या और उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप हमें पौध प्रजातियों की संकर तकनीक, जीन प्रौद्योगिकी और अन्य आवश्यक तकनीकों का सहारा लेकर अपने खाद्यान्न उत्पादन में वृद्वि करनी होगी। वर्तमान समय पारस्परिक निर्भरता का समय है और लेने व देने में एक समन्वय की आवश्यकता है।

एक ओर तो हम गेंहूँ एवं चावल आदि खाद्यान्नों तथा उनसे निर्मित पदार्थों का विभिन्न देशों को निर्यात कर रहें हैं तो दूसरी ओर हमें भी कुछ वस्तुओं का आयात करना पड़ सकता है। इसलिए हमें निर्यात किए जाने वाले अन्न और खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता एवं पौध स्वच्छता एवं सूरक्षा के मानकों को अपनाना पड़ेगा और अपने खाद्यान्न को गुणवत्ता युक्त बनाना भी प्राथमिक रूप से अनिवार्य है। क्योंकि हमारा बासमती चावल तो विश्वभर में प्रसिद्व है ही, गेंहूँ, चसावल एवं मक्का आदि में भी इस दिशा में प्रयास करने आरम्भ किए जा चुके हैं।

अपने देश के नागरिकों को भी कुपोषण आदि से बचाना ही है, गुणवत्ता से भरे प्रोटीनयुक्त मक्के की शक्तिमान-1 तथा शक्तिमान-2 नामक प्रजातियाँ खेती के लिए विमोचित की जा चुकी हैं। ठीक इसी प्रकार फलों एवं सब्जियों में भी गुणवत्ता का समावेश किया जा रहा है।

विभिन्न नई तकनीकों जैसे बायो तकनीक एवं जीन प्रौद्योगिकी से विश्व के विभिन्न देशों में पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता पर हाल के वर्षों के दौरान बढ़ा है। अन्तर्राष्ट्रीय राईस जीनोम अनुक्रमण परियोजना इसका एक ज्वलंत उदाहरण है, जिसके अन्तर्गत भारत के द्वारा चावल गुणसूत्र 11 की लम्बी भुजा के एक भाग के एक भाग के अनुक्रमण के द्वारा अपना योगदान प्रदान कर विश्व स्तर पर अपनी कृषि कृषि विज्ञान की प्रगति की छवि और अधिक स्पष्ट किया है।

बायो तकनीक के माध्यम से चावल में विटामिन ‘ए’ (बीटाकैरोटीन) को लाने के प्रयास भी विश्व स्तर पर किया जा रहा है। भारत में कृषि क्षेत्र में फसल सुधार हेतु वाँछित क्षमता उपलब्ध है जिसका दोहन आधुनिक तकनीकों जैसे मूल पुर्नसंयोगी डी.एन.ए. प्रौद्योगिकी, आण्विक प्रजनन तथा पराजीनों का विकास आदि के माध्यम से किया जा रहा है।

समवेत के द्वारा भारत ने न केवल खाद्यान्न उत्पादन में वरन् खाद्य उपलब्धता में भी वाँछित ऊँचाईयों को छू सकेगी, बल्कि उसमे उचित गुणवत्ता का समावेश भी होगा। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि किसी कार्य में विफल होना कोई अपराध नही है परन्तु कम ऊँचाई के छोटे लक्ष्य रखना अवश्य ही एक अपराध है। तो अ बवह समय आ चुका है कि जब हमारे लक्ष्यों का ऊँचा होना अति आवश्यक है।

भारत में अनाज के विपुल भण्ड़़ार को लेकर विभिन्न प्रश्न उठाए जा रहे हैं। अनाज के उचित उपयोग को लेकर सुप्रसिद्व कृषि वैज्ञानिक डॉ0 एम. एस. स्वामीनाथन के द्वारा एक सृजनात्मक एवं सटीक उपाय बताया था। इसका दीर्घकालिक समाधान यह है कि देश अनाज बैंक की स्थापना की जाए। डॉ0 स्वामीनाथन के अनुसार, यदि केन्द्र सरकार कुल जमा अनाज का मात्र 10 प्रतिशत भाग भी इस प्रकार के बैंकों को सोंप दे तो काफी हद तक भूख के खिलाफ आसानी से लड़ा जा सकता है।

डॉ0 स्वामीनाथन का सुझाव है कि भूख् के खिलाफ निर्णायक लड़ाई में इन सामुदायिक अनाज बैंकों का उचित उपयोग किया जाना चाहिए, यह सुझाव निश्चित् रूप से अपने आप में काफी महत्वपूर्ण सुझाव है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।