पर्यावरण के अनुरूप ही दूरसंचार      Publish Date : 19/12/2024

                       पर्यावरण के अनुरूप ही दूरसंचार

                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं इं0 कार्तिकेय

18वीं शताब्दी में भाप की शक्ति के प्रयोग और उत्पादन के मशीनीकरण के साथ ही औद्योगीकरण के आरम्भ होने के साथ ही हमारे गृह पृथ्वी पर जल तथा वायु प्रदूषण वृद्वि का अन्तहीन सिलसिला आरम्भ हुआ। हालांकि, औद्योगिक युग के प्रारम्भ होने से पूर्व प्रदूषण रहा होगा, परन्तु उस दौर में यह नगण्य ही था क्योकि उस समय उत्सर्जित कार्बन डाई-ऑक्साइड धरती के ऊपर फैले हुए वनों के द्वारा अवशोषित कर ली जाती थी।

                                                     

20वीं शताब्दी में प्रदूषण की अधिकता का भरपूर अहसास होने लगा था इसके साथ ही ‘‘ग्रीन हाउस’’ गैसे के उत्सर्जन में बढ़ोत्तरी के चलते ‘‘ग्लोबल वार्मिंग’’ भी होने लगी, कहने का तात्पर्य है कि हमारी धरती का तापमान बढ़ने लगा। ‘‘ग्लोबल वार्मिंग’’ अर्थात वैश्विक उष्णता का तात्पर्य औद्योगिक युग से पूर्व के समय की तुलना में धरती के तापमान का अस्वाभाविक रूप से बढ़ने की प्रवृति से है।

विश्व स्तर पर समुद्री तूफानों में वृद्वि, विभिन्न क्षेत्रों में अचानक बाढ़ का आना, ध्रुवीय क्षेत्रों ऊँचें स्थानों में हिम-खण्ड़ों (आइसबर्ग) के पिघलने की प्रवृत्तियों को सामूहिक रूप से ‘जलवायु परिवर्तन’ (क्लाइमेट चेंज) कहा जाता है, जो वर्तमान समय में सम्पूर्ण विश्व के समक्ष एक बड़ी चुनौति है। इस विपदा को नियंत्रित करने के लिए विश्व के समस्त देशों को एकजुट होकर, हमारे वातावरण को गर्म करने वाली ‘ग्रीन हाउस गैसों’ के वायुमण्डल में होने वाले प्रसार का रोकना होगा। कृषि, उद्योग एवं सेवा क्षेत्र आदि के अन्तर्गत इस प्रकार के प्रयास करने होंगे, जिनसे हमारा पर्यावरण तन्त्र संतुलित हो तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम किया जा सके।

वर्तमान में दूरसंचार सेवाएं हमारी जीवन-शैली का एक अभिन्न अंग बन चुकी हैं और लोगों को फोन कॉल्स, मैसेजेज एवं इन्टरनेट के माध्यम से जोड़ती हैं तथा इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में टैलीकॉम टॉवर्स की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। निरन्तर एवं बाधामुक्त दूरसंचार सेवाओं को सुनिश्चित् करने के लिए निरन्तर विद्युत आपूर्ति का होना अति आवश्यक शर्त है और बिजली हमें मुख्य रूप से पॉवर ग्रिड के माध्यम से प्राप्त होती है।

बिजली के चले जाने के बाद इन टॉवरों को खनिज तेल, डीजल जनरेटर (डीजी) सेट्स तथा बैटरियों की बिजली से चलाया जाता है। ग्रिड तथा डीजी सेट्स के उपयोग करने से भी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है, जिससे वायु में कार्बन डाई-ऑक्साइड की सॉन्द्रता में वृद्वि होती है जिसके चलते वैश्विक उष्णता एवं पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा अवश्यम्भावी है। इसके साथ ही टॉवरों के लिए बिजली को जुटाने में दूरसंचार सेवा प्रदाताओं को भी काफी खर्चा उठाना पड़ता है। 

                                                                

उपभोक्ताओं की संख्या के हिसाब से भारत, दुनिया के दूरसंचार बाजार में दूसरे स्थान पर है। भारत ब्राडब्रैण्ड की दरों के अनुसार विश्व में सबसे कम दरों वाला बाजार है। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 31 मई 2022 तक भारत में 1.15 करोड़ मोबाईल ग्राहक थे और लगभग 80 करोड़ ब्राडब्रैण्ड के क्नेक्शन्स थे, जिनमें से अधिकाँश मोबाइल्स पर ही काम कर रहे थे। देशभर में इस समय, 7 लाख से अधिक दूरसंचार टॉवर्स उपलब्ध हैं और सभी टॉवर्स के निचले हिस्से में मोबाईल ट्राँसमीटर तथा रिसीवर (जिन्हें बेस ट्राँस-रिसिवर अर्थात बीटीएस कहते हैं) लगे होते हैं। टॉवरों के ऊपर एंटेना लगे होते हैं जो संचार-तन्त्र से उपकरण ग्रहण करते हैं।

कोविड महामारी के कारण मोबाईल ब्रॉडबैण्ड कनेक्शन्स में तीव्र गति के साथ वृद्वि हुई क्योंकि लोग बीडियो कॉनफ्रेन्सिग के माध्यम से सम्पर्कों एवं यूनाइटेड पेमेन्ट इंटरफेस (यूपीआई) भुगतानों का अधिक उपयोग कर रहे मोबाइल और ब्राडबैण्ड आदि में वृद्वि होने के कारण टॉवरों, बैटरियों तथा बीटीएस आदि प्रणालियों की संख्या में वृद्वि हो रही है। इस रेखाचित्र से पिछले 5 वर्षों में (छमाही आधार पर) दूरसंचार टॉवरों तथा बीटीएस प्रणालियों में भी वृद्वि को दर्शाया गया है।

इनमें से अनेक टॉवर भारत के ग्रामीण एवं पहाड़ी क्षेत्रों में स्थित है और इन स्थानों पर विद्युत आपूर्ति बहुत अधिक नियमित नही होती है और अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में तो बिजली अक्सर जाती ही रहती है। इस कारण से इन टॉवरों को डीजी सेट्स पर निर्भर रहना पड़ता है। 5जी टैक्नोलॉजी के पदार्पण के साथ ही, दूरसंचार टॉवरों, मोबाइल फोन्स तथा बीटीएस अथवा इसके समरूप अन्य इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली की संख्या में तीव्र गति के साथ वृद्वि होगी। इसके साथ ही ग्रीन हाउस गैसों एवं कार्बन के उत्सर्जन में भी वृद्वि होगी और इससे ग्लोबल वार्मिंग की प्रक्रिया भी तेज होगी। पारिस्थितिकी तन्त्र पर दूरसंचार सैक्टर के इन सम्भावित बुरे प्रभावों को रोकने के लिए दो क्षेत्रों में प्रयास करने होंगे-

1.   इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादों में होने वाली ऊर्जा की खपत को कम करना होगा और पर्यावरण के अनुकूल इलेक्ट्रॉनिक्स, इमारतें, उपकरण तथा अन्य सामग्रियों के उपयोग को बढ़ाना होगा; विद्युत की आवशयकता को कम करने के उद्देश्य से कारगर नेटवर्क योजनाओं को बनाना होगा।

2.   ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय (अक्षय) स्रोतों का अधिक से अधिक उपयोग करना होगा।

ऊर्जा के उपयोग को कम करनाः 5जी टैक्नोलॉजी पर आधारित सेवाओं के सहित दूरसंचार सेवाओं में ऊर्जा की खपत को कम करने के कुछ तरीकें अग्रलिखित है-

5जी टैक्नोलॉजी का उपयोगः इस टैक्नोलॉजी में डिजाइन के स्टार पर ही ऊर्जा से सम्बद्व मुद्दों पर ध्यान दिया जाता है। पिछली प्रणालियों यथा (2जी, 3जी, एवं 4जी) की तुलना में, 5जी टैक्नोलॉजी के अन्तर्गत नेटवर्क की ऊर्जा कार्य-कुशलता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। 5जी जैसे भावी नेटवर्कों में ऊर्जा की कार्य कुशलता एलटीई/4जी की तुलना में बीस के फैक्टर से अच्छा होने की आशा की जा रही है। इस प्रणाली में दूरसंचार और ब्रॉडबैण्ड संवाओं में संसाधनों का अत्यन्त कुशल और लचीला उपयोग हो सकने की सम्भावना हैं।

                                                             

इससे उपकरण के स्तर पर ही बिजली का उचित प्रबन्धन किया जा सकेगा जिसके आधार पर बिजली की आवश्यकता कम होगी, इसके साथ ही एयर कन्डीशनिंग की आवश्यकता भी कम होगी। 5जी टैक्नोलॅाजी से स्पेक्ट्रम के उपयोग को भी लचीला बनाया जा सकेगा जो कि वायरलैस संचार का एक अनिवार्य अंग हैं। इस प्रणाली का बिजली की खपत कम करने पर भी सीधा प्रभाव पड़ता है।

नेटवर्क के कार्य-कलापों का कुशल प्रयोगः परम्परागत (4जी तथा अन्य) मोबाइल नेटवर्कों मे बिजली की खपत का 15 से 20 प्रतिशत भाग डेटा ट्राँन्सफर में उपयोग होता है। बाकी बिजली पॉवर एम्पलीफायर्स को गर्म करने, ठेटा के ट्रॉन्सफर नही होने के समय भी उपकरणों के चलते रहने तथा रेक्टीफायर्स, प्रशीतकों और बैटरी इकाईयों के कुशल नही होने कारण बर्बाद हो जाती है। बिजली की इस बर्बादी को रोकने अथवा दूरसंचार के काम में नही आने वाली बिजली का दूसरे कार्यों में उपयोग किये जाने के लिए नए तरीकों की आवश्यकता है जिनमें से कुछ तरीके इस प्रकार से हो सकते हैं-

1.   सेल का उपयोग न होते समय रेडियो-फ्रीक्वेन्सी (आरएफ) चेन को ऑफ करके और केवल बैकहॉल लिंक्स को सक्रिय रखकर सेल को स्विच ऑफ रखा जा सकता है। किसी सिग्नल के आने के बाद ही इसका बेस स्टेशन सक्रिय होता है। इस तरीके से बेस स्टेशन की बिजली की खपत में 40 प्रतिशत तक की कमी लाई जा सकती है।

2.   आर्टिफिशियल इन्टेलीजेन्स का उपयोग करते हुए स्वचालित तरीके से विभिन्स साइट्स तथा रेडियो नेटवर्कस आदि की आवश्यकता के नही होने पर यह स्वतः ही बन्द हो जाने की व्यवस्था की जा सकती है।

3.   इस प्रकार के सिंगल रेडियो ऐक्सेस नेटवर्क (आरएएन) का उपयोग करना जिनसे एक ही बेस स्टेशन से 2जी, 3जी, 4जी एवं 5जी टैक्नोलॉजी पर आधारित दूसंचार सम्भव हो सकेगा। इससे अनेक उपकरण नही लाने पड़ेंगे और बिजली की कुल खपत को कम किया जा सकेगा।

4.   2जी एवं 3जी पर आधारित प्रणालियों का उपयोग नही करना और इनको धीरे-धीरे करके समात कर देना।

5.   डायनेमिक स्पेक्ट्रम शेयरिंग (डीएसएस) टैक्नोलॉजी का उपयोग करना जिसके अन्तर्गत नई मोबाइल टैक्नोलॉजी में पुराने नेटवर्क के स्पेक्ट्रम का उपयोग किया जा सके।

6.   बिजली के उपयोग एवं गुणवत्ता की तुरंत निगरानी कर पाने के लिए ‘इंटरनेट ऑफ थिंग्स’ सेंसर अथवा प्रणालियों का उपयोग करना।

7.   नेटवर्क को स्वचालित बनाने तथा संसाधनों के विवेकपूर्ण, सक्रिय तथा सर्वाधिक किफायती उपयोग करने के लिए आटिफिशियल इंटेलीजेंस तथा मशीन लर्निंग टैक्नोलॉजी का उपयोग करना।

8.   बिजली बचाने के लिए नेटवर्क को स्वचालित तरीके से सर्वाधिक किफायती तरीके से चलाने के लिए तुरंत उचित निर्णय ले पाने की क्षमता को प्राप्त करने के लिए आटिफिशियल इंटेलीजेंस वाले स्व-व्यवस्थित नेटवर्क (एसओएन) का उपयोग।

पूरी प्रक्रिया स्वयं निर्णय ले सकने वाली (इंटेलीजेंस) विभिन्न विद्युत प्रणालियों का उपयोगः

                                                                  

1.   मोबाइल नेटवकर््स में आटिफिशियल इंटेलीजेंस तथा क्लाउड इन्फ्रास्ट्रक्चर का उपयोग करने से दूरसंचार सेवा-प्रदाता पूरी तरह से स्वयं-स्वचालित निर्णय ले सकने वाली इंटेलीजेंट विद्युत प्रणालियों को अपनाया जा सकेगा।

2.   क्लाउड-आधारित इस प्रकार की प्रणालियों को अपनाया जा सकता जो कि बेस-स्टेशनों, विद्युत आपूर्तिकर्ताओं, करीबी केन्द्रों का बुनियादि ढाँचा, (एज इन्फ्रास्ट्रक्चर), बैककॉल इकाईयों तथा अन्य उपकरणों के विभिन्न स्तरों और डोमेन्स के मध्य तालमेल की स्थापना कर सकें जिससे पूरे नेटवर्क की कार्य-कुशलता में वृद्वि हो।

3.   भविष्य में पूरी आटिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित विद्युत प्रणालियों को अपनाया जाने लगेगा जिससे दिन अथवा रात के समय में हो रहे दूरसंचार अथवा एप्लीकेशन की प्रकृति के अनुसार विभिन्न स्तर पर विद्युत आपूर्ति स्वचालित रूप से समायोजित की जा सकेगी।

1.   ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का अपनाए जाना

दूरसंचार टॉवरों के परिचालन में दूरसंचार नेटवर्क संचालित करने की 65 से 70 प्रतिशत विद्युत व्यय होती है। दूरसंचार उपकरणों के माध्यम से पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तन्त्र को होने वाली हानि को देखते हुए तथा दूरसंचार टॉवर्स के परिचालन दौरान ग्रिड की बिजली को बचाने के लिए पर्यावरण के अनुकूल दूरसंचार टॉवर्स को अपनाए जाने की आवश्यकता है।

वर्ष 2020 में पवन ऊर्जा में विश्व में भारत चौथें स्थान पर, सौर ऊर्जा में 5वे स्थान पर तथा नवीकरणीय ऊर्जा की संस्थापन क्षमता में चौथे स्थान पर रहा था। सेन्ट्रल इलेक्ट्रिकसिटी अर्थारिटी की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2016-22 के दौरान भारत की कुल संस्थापित क्षमता में 15.92 प्रतिशत की चक्रवृद्वि वार्षिक विकास दर (सीएजीआर) रही थी।

दूरसंचार टॉवर्स को विद्युत प्रदान करने के लिए विद्युत के निम्नलिखित नवीकरणीय स्रोतों का उपयोग भी किया जा सकता हैः-

1.   सौर ऊर्जाः भारत सौर पट्टी में बहुत अधिक अच्छी स्थिति (400 दक्षिण से 400 उत्तर अक्षांश के मध्य) आंकी गई है जिसके कारण यहाँ सौर ऊर्जा बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध होती है। मार्च 2014 तक सौर ऊर्जा से 2.63 गीगावॉट विद्युत का उत्पादन किया गया, जबकि वर्ष 2021 के अन्त तक सौर ऊर्जा से 49.3 गीगावॉट विद्युत को बनाया जा चुका था, जो कि पिछले सात वर्षों के दौरान 18 गुना वृद्वि दर्ज की गई है।

डीजल की तुलना में सौर ऊर्जा विकासमान दूरसंचार उद्योग के लिए बिजली अधिक टिकाऊ, किफायती तथा पर्यावरण-अनुकूल विकल्प है। वर्तमान में इस प्रकार के मिले-जुले हाइब्रिड मॉडल्स को भी अपनाया जाने लगा है जिनमें ग्रिड से बिजली लेने के साथ-साथ सोलर सेल भी लगे होते है जिनसे ग्रिड एवं डीजल सैट्स आदि के ऊपर निर्भरता कम हो जाती है। सौर, ग्रिड तथा डीजी सैट्स पा्रत् कर सकने वाले दूरसंचार टॉवरों के उपयोग में निरंतर वृद्वि दर्ज की जा रही है।

2.   पवन ऊर्जाः पवन ऊर्जा नवीकरणीय ऊर्जा का स्वच्छ, विश्वसनीय और किफायती स्रोत है जिसका पिछले कई दशकों से उपयोग किया जा रहा है। पवन एवं सौर ऊर्जा का एक साथ उत्पादन (संयुक्त नवीकरणीय ऊर्जा) वर्तमान में काफी लोकप्रिय होता जा रहा है तथा अनेक पवन ऊर्जा के टर्बाइन स्थापित किए जा रहे हैं। पवन ऊर्जा उत्पादन में महंगा होना, इसके माध्यम से प्राप्त होने वाली विद्युत में व्याप्त घटत-बढ़त के कारण ग्रिड पर इसके प्रभाव और टर्बाइन को पर्यावरण, पशु-पक्षियों और इमारतों को नुकासान नही पहुँचाने वाले निरापद स्थानों पर स्थापित किया जाना आदि मुद्दे इसके साथ सम्बन्धित है। पवन ऊर्जा के उत्पादन की तकनीकों में निरंतर सुधार किया जा रहा है तथा इसके साथ ही इससे जुड़ी हुई सारी समस्याओं पर भी व्यापक ध्यान दिया जा रहा है।

3. भूतापीय ऊर्जाः ऊर्जा के इस नवीकरणीय प्रारूप में पृथ्वी की सतह के नीचे स्थित प्राकृतिक ऊष्मा से भूमिगत गरम जल अथवा उसकी भाप के द्वारा विद्युत उत्पादन किया जाता है। हीट पम्प लगाकर कम ताप वाले भूतापीय स्रोतों से स्थानों तथा वस्तुओं को गर्म कर प्रशीतित किया जा सकता है। उच्च ताप वाले गरम पानी अथवा दससे निकलने वाली भाप से टर्बाइन को संचालित किया जा सकता है जिससें स्वच्छ एवं नवीकरणीय विद्युत की प्राप्ति सम्भव है।

4. फ्यूएल सैलः फ्यूएल (ईंधन) सैल के द्वारा भविष्य में ऊष्मा एवं विद्युत प्राप्त करने की एक महत्वपूर्ण तकनीकी हो सकती है। फ्यूएल सैल में हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन गैस होती है जिनके द्वारा विद्युत, ऊष्मा एवं पानी निर्मित किए जाते हैं। यह सैल हाईड्रोजन की सर्वाधिक शुद्वता के आधार पर कार्य करते हैं। इन सैलों के लिए प्राकृतिक गैस, मेथानॉल अथवा गैसोलीन के द्वारा हाइड्रोजन का उत्पादन किया जा सकता है। फ्यूएल सैलों की तुलना यदि बैटरियों के साथ की जाती है तो यह दोनों ही एक रासायनिक अभिक्रिया के माध्यम से ऊर्जा को विद्युत में परिवर्तित करते हैं, परन्तु फ्यूएल सैल तब तक विद्युत का उत्पादन करते रहते हैं जब तक कि इनमें ईंधन (हाइड्रोजन) की आपूर्ति होती रहती है, तो इनका चार्ज बीच में समाप्त नही होता है।

5. अन्य विभिन्न नए समाधानः लहरों, ज्वार-भाटे एवं समुद्री हवाओं के द्वारा भी टर्बाइन चलाकर विद्युत निर्मित की जा सकती है। इन स्रोतों से विद्युत के उत्पादन के लिए व्यवसायिक दृष्टि से किफायती तकनीकी को विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।

नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन में आने वाली बाधाएँ

नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन में आने वाली समस्त बाधाओं को दूर किया जाना भी आवश्यक है। ऐसी ही कुछ प्रमुख बाधाएँ अग्रलिखित वर्णित है-

1. वर्तमान में अनेक नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन की तकलीकें महंगी है। बड़े पैमाने पर शहरी क्षेत्रों तथा बड़े-बड़े उद्योगों के उपयोग हेतु विद्युत आपूर्ति में परम्परागत विद्युत स्रोतों की तुलना में नवीकरणीय ऊर्जा-उत्पादन के साजो-सामान पर अधिक व्यय होता है।

2. नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन की विभिन्न तकनीकी अपनाने के दौरान आरम्भ में काफी खर्च आता है और इन तकनीकों को लाभदायक स्तर तक लाने के लिए एक लम्बे समय तक आर्थिक सहायता देने की जरूरत होती है।

3. नवीकरणीय ऊर्जा के लाभों तथा इससे जुड़े अवसरों के बारे में लोगों में अब भी पर्याप्त जागरूकता का अभाव है।

4. भारत में नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों को अपनाए जाने और इनके लिए बाजार को तैयार करने से सम्बद्व अनेक वित्तीय, कानूनी, नियामक तथा संगठनात्मक बाधाएँ को अभी दूर किया जाना बाकी है।

निष्कर्षः ब्रॉडबैण्ड तथा मोबाइल उपकरणों की संख्या में तीव्र वृद्वि होने के कारण दूरसंचार टॉवरों तथा इनके बेस-स्टेशनों (टॉवर्स के निचले भागों में स्थित इलेक्ट्रॉनिक उपकरण) की संख्या में भी काफी तेजी के साथ वृद्वि हो रही है। आशा के अनुरूप, भारत में शीघ्र ही 5जी तकनीकी पर आधारित मोबाइल नेटवर्क का तीव्र गति के साथ विस्तार होगा, जिससे टॉवर्स एवं छोटे सैल की संख्या में भी भारी वृद्वि होगी। अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि विद्युत की आवश्यकताओं को कम करने के लिए आधुनिकतम तकनीकी को अपनाना और वैकल्पिक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का विेकास करने का प्रयास करें जिनसे ग्रीन हाउस गैसों तथा कार्बन प्रसार कम हो सके और पर्यावरण संतुलन भी बना रहें।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।