लाल बहादुर शास्त्री      Publish Date : 08/12/2024

                                 लाल बहादुर शास्त्री

                                                                                                                                            प्रोफसर आर. एस. सेंगर

पूरे देश के लोगों ने भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निधन की खबर जैसे ही रेडियो पर सुना चारों तरफ शोक की लहर फैल गई, शास्त्री जी ने उस दिन ताशकंद में शांति वार्ता के बाद एक बयान पर हस्ताक्षर किए थे। रात को सोने तक तो वे ठीक थे, लेकिन आधी रात के बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा, जिससे कुछ ही देर में उनकी मृत्यु हो गई। यह घटना इतनी अचानक और अप्रत्याशित थी कि इस पर विश्वास करना वाकई मुश्किल था।

                                                                   

छोटे कद के इस महान व्यक्ति ने अपने लिए एक अलग ही स्थान बनाया। मतभेदों को सुलझाने की उनकी कला, ईमानदारी, चरित्र और मातृभूमि के गौरव को पुनः प्राप्त करने की प्रबल इच्छा कुछ असाधारण गुण थे। नियति ने उन्हें अपने सभी गुणों का उपयोग करने का अवसर तब दिया जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। वे जनता की नब्ज को पहचान सकते थे और पूरी ताकत से हमारे खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले पाकिस्तान को हराने के लिए दृढ़ निर्णय ले सकते थे।

पाकिस्तान को पूरी तरह से हराने में सफलता प्राप्त करने के बाद, उन्होंने विभिन्न देशों की इच्छाओं का सम्मान करते हुए शांति का मार्ग अपनाया। उन्होंने सम्मानजनक समझौता करने का भी प्रयास किया। वास्तव में, हम अपनी ताकत का प्रदर्शन कर सकते थे, लेकिन उन्होंने उस प्रलोभन को टाल दिया। पूरे देश को विश्व में सम्मान और प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने की बड़ी भावना थी, विशेष रूप से चीनी आक्रमण के बाद, जिसने हमारे गौरव को ठेस पहुंचाई थी। इसलिए, देशवासियों के दिलों में उनके लिए बहुत प्यार और सम्मान था।

                                                        

शास्त्री जी शांति के प्रेमी थे, वे शांति के लिए काम करना चाहते थे। वे हमेशा पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखना चाहते थे। वे शांति और सौहार्द की इच्छा रखते थे और यही इच्छा उन्हें ताशकंद ले गई। वे जानते थे कि शांति लाने के प्रयासों के बावजूद कुछ हासिल नहीं हो सकता। अपने सरसंघचालक श्री गुरु जी ने भी उनसे कहा था कि उन्हें ताशकंद नहीं जाना चाहिए उन्होंने अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। गुरु जी को लगा कि वे ताशकंद के निमंत्रण को टालने का कोई न कोई बहाना ढूंढ लेंगे। लेकिन वे शांति की अपनी प्रबल इच्छा और कुछ पुराने मुद्दों को सुलझाने की उत्सुकता के कारण वहां गए। उनका ताशकंद जाना हमारी परंपरा के अनुरूप था। सत्य और धर्म के प्रतीक ‘युधिष्ठिर’ ने पूरे देश पर अपना वैध दावा होने के बावजूद सिर्फ पांच ग्रामों के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।

                                                              

ताशकंद समझौते के समय भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हुई होगी। इस महापुरुष ने युद्ध के समय असाधारण वीरता का परिचय दिया और न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में शांति और सद्भावना की तीव्र इच्छा व्यक्त की। इस संबंध में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।