पंडित दीनदयाल उपाध्याय      Publish Date : 05/12/2024

                           पंडित दीनदयाल उपाध्याय

                                                                                                                                                   प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

पंडित दीनदयाल उपाध्याय तत्कालीन राजनीति में विरोधी दल के एक प्रमुख नेता थे। जब भी उन्हें कोई बात अवांछनीय लगती थी या कोई कमी दिखाई देती थी, तो वह स्पष्ट रूप से अपनी बात कहने को अपना दायित्व समझते थे, और वह ऐसा करते भी थे। उनके लेख पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनके हृदय और वाणी में कभी कटुता बिलकुल भी नहीं थी। वे बहुत प्रेम और आत्मीयता से बातें किया करते थे। वे कभी किसी से जरा भी नाराज नहीं होते थे। नुकसान होने पर भी वे कभी भी नुकसान के लिए जिम्मेदार लोगों को गाली नहीं देते थे, वे ‘युधिष्ठिर’ जैसे थे। ‘दुर्योधन’ के नाम में वह अक्सर एक बुराई के रूप में देखा करते थे, इसलिए युधिष्ठिर उन्हें दुर्योधन के बजाय ‘सुयोधन’ कहा करते थे। दीनदयाल जी हमेशा कठोरता से  दूर रहते थे। उनके शब्दों, उनके हृदय और उनकी वाणी में कभी भी कटुता नहीं थी।

                                                                 

श्री गुरु जी कहते हैं ‘‘कभी-कभी मुझे लगता है कि संघ के प्रचारक के रूप में उनका होना बहुत अच्छा था।’’ डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक बार श्री गुरु जी के पास आए और कहा, “मैं एक राजनीतिक दल बनाना चाहता हूँ, मुझे कुछ स्वयंसेवक दीजिए।” कुछ लोगों से श्री गुरु जी से कहा, “डॉ. श्यामाप्रसाद से आपके घनिष्ठ संबंध हैं, स्वयंसेवक नियुक्त करना आपके लिए कठिन काम नहीं है। उन्हें एक अच्छा व्यक्ति चाहिए, दीनदयाल अच्छे व्यक्ति हैं।”  जिस प्रकार जनसंघ का विकास हुआ और वह समृद्ध हुआ, उससे यह पता चलता है कि उसे कितने महान स्वयंसेवक मिले। उनके चारों ओर सद्भावना का जो वातावरण उन्होंने बनाया था, उससे हमें उनकी अपार क्षमता का पता चलता है।

वे अत्यंत योग्य, गुणवान और बुद्धिमान थे। संघ के प्रचारक के रूप में उनके संगठन कौशल का प्रत्यक्ष अनुभव लोगों ने किया था। अपनी मधुर वाणी, सौहार्दपूर्ण व्यवहार और उत्तम मानसिक और बौद्धिक संतुलन के कारण वे अपने कार्य क्षेत्र में अद्वितीय स्थान प्राप्त करने वाले थे। हमारे देश में तो वे पहले ही बहुत बड़ा पद प्राप्त कर चुके थे। वे इससे भी बड़ा पद प्राप्त कर सकते थे। यह दुखद रहा है कि इससे पहले कि वे चर्चा में आते और कोई विशेष स्थान प्राप्त करते, वे स्वर्ग सिधार गए।

हर किसी की इच्छा होती है कि उसका बच्चा बुद्धिमान, होशियार और चतुर हो। परीक्षाओं में उसे बहुत अच्छे परिणाम मिलें और उसकी सफलता उसे सबकी नज़रों में ला दे। जब ऐसा बच्चा अचानक हमेशा के लिए चला जाता है, तो यह कितनी बड़ी त्रासदी और विपत्ति होती है। हममें से बहुत से लोग अपने परिवार का ख्याल रखते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि परिवार पर कितना बड़ा दुख आता होगा।

श्री दीनदयाल जी की मृत्यु के उपरांत श्री गुरु जी के उद्गार इस प्रकार थे -मेरा कोई परिवार नहीं है, लेकिन मेरा दुख कई गुना है। इसलिए मैं उसके साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों के बारे में कुछ नहीं कहूँगा। मैं बस इतना कह सकता हूँ कि ईश्वर ने उसे बहुत प्यार किया है। एक पुरानी कहावत है, “भगवान जिसे प्यार करते हैं, वह इस संसार से जल्दी जाता है!” शायद ईश्वर को उससे सबसे अधिक प्यार हो। इसी वजह से उसने हमारे प्यार की परवाह किए बिना उन्हें अपने पास बुला लिया।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।