भूमि की संतानों का कर्तव्य      Publish Date : 08/11/2024

                              भूमि की संतानों का कर्तव्य

                                                                                                                                                        प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना से पहले डॉ. हेडगेवार जी के मन में एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि “विदेशी शासन यहाँ कैसे आया?” इस पर गहन विचार करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह आत्म-विस्मृति का प्रभाव था। दुर्भाग्य से एक राष्ट्र, एक राज्य, एक समाज और एक संप्रभु सत्ता बनने के बजाय हम छोटे-छोटे राज्य बने, छोटे-छोटे राज्य आपस में झगड़ते रहे और सभी कमजोर होते चले गए। अंततः उनमें इतनी ताकत नहीं बची कि वे बाहरी आक्रमणों का सामना कर सकें और विदेशी यहाँ आसानी से स्थापित होते चले गए।

आज हमारे सामने जो भी समस्याएँ और संकट दिखाई दे रहे हैं उसका मूल कारण विदेशी शासन नहीं है, बल्कि हमारी आत्म-विस्मृति और अव्यवस्थित जीवन-शैली रही है। इस प्रकार की हमारी इस जीवन-शैली ने हमें कमज़ोर बना दिया है और इसके कारण हम लंगड़े हो गए हैं।

लेकिन अब जैसे जैसे हमारा राष्ट्रीय जीवन पुनर्जीवित हो रहा है, उसी के अनुसार हम दुनिया में एक पहचान वाली शक्ति बन रहे है, तो हमें इस मूल कारण को भी समझना होगा। हमें एक सुसंगठित समाज के रूप में खड़ा होना होगा और अपनी मातृभूमि की संतान के रूप में हमें अपने प्रमुख कर्तव्य के प्रति जागरूक होना होगा।

राष्ट्रीय विचारधारा में इस लुप्त कड़ी पर गहन विचार करने के पश्चात् संघ संस्थापक ने प्रत्येक हृदय में देश के प्रति अनुराग उत्पन्न करने का महत्वपूर्ण एवं अनूठा प्रयास आरम्भ किया। उनका यही कार्य आज हमारे हम सब के यमक्ष है। अतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह प्रयास अपने समाज को सुसंगठित एवं सर्वांगीण ऊर्जा से युक्त बना रहा है।

अगर हम इतिहास के विवरण में थोड़ा गहराई से जाएं, तो हम पाएंगे कि धीरे-धीरे हमारे दुश्मनों ने हमारे दूर-दराज के देश के हिस्सों को हमसे छीन लिया है और हमने दुश्मनों को अपने पूर्व और पश्चिम में अपनी संप्रभु भूमि पर कब्ज़ा आसानी से करने दिया है। कुछ लोग इस स्थिति पर प्रतिक्रिया दिया करते थे कि “जाने दो! अगर दुश्मन हमारी थोड़ी सी ज़मीन ले भी लेता है तो हमें इतना परेशान क्यों होना चाहिए। वैसे भी वह ज़मीन ऐसी थी जहाँ घास के छोटे-छोटे दाने भी उगने की संभावना नहीं थी! कुछ लोग कहते थे “वह सिर्फ़ बंजर ज़मीन थी, अगर ऐसी ज़मीन दुश्मन के पास चली गई तो इसमें हमारा क्या नुकसान होगा।”

क्या हम ऐसी मानसिकता को देशभक्ति मान सकते हैं ? क्या किसी संतान का माता के प्रति यह कर्तव्य का निर्वहन माना जा सकता है? कोई भी संतान या किसी देश का नागरिक अपने ही देश के एक भाग के प्रति ऐसी विकृत मानसिकता कैसे दिखा सकते हैं?

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।