विविधता के माध्यम से विकास      Publish Date : 07/11/2024

                     विविधता के माध्यम से विकास

                                                                                                                                                          प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

विश्व में एक विचार यह भी है कि पूरी पृथ्वी पर एक ही शक्ति का शासन होना चाहिए। हालाँकि, ऐसा शासन होना वांछनीय नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रत्येक राष्ट्र का अपना संविधान और उसकी अपनी विशेषताएँ होती हैं। यहाँ तक कि हिंदू समाज में भी, अपने बीच व्यवहार के लिए कोई विशेष नियम नहीं बनाए गए हैं। विविधता का अर्थ है कि परिस्थितियों से निपटने के लिए अलग-अलग नियम होने चाहिए। हमने सभी पर शासन करने के लिए एक समान नियम पर विचार नहीं किया है।

यदि हम समान नियम लागू करने और सभी को समान आधार पर भोजन देने का प्रयास करते हैं; तो कुछ लोग भूखे रह जाएँगे और कुछ अपच से पीड़ित रह जाएँगे। इसलिए हमारे समाज में व्यवस्थित विकास की अवधारणा जड़ जमाए हुए है। यह उचित है कि हम व्यक्तियों के स्वभाव के आधार पर अनिवार्य रूप से मानवीय व्यवहार की पुरज़ोर वकालत करते हैं।

यदि राष्ट्र सभी अवस्थाओं में सभी तत्वों की विशेषताओं को बनाए रखते हुए विकास करता है, तो भारत को अपनी सम्पूर्ण संवैधानिक विविधताओं पर ध्यान केन्द्रित करते हुए विकसित करना अत्यन्त आवश्यक है, जिससे मानवता का विकास और कल्याण हो सके। जो नेता, चिंतक और पत्रकार राष्ट्रीयता की भावना को विभाजक शक्ति मानते हैं, उन्होंने कभी मानवता के सार को नहीं समझा और न ही उसको पहचाना।

इसलिए राम की भक्ति ही राष्ट्र की भक्ति है को आलोचना और घृणा की दृष्टि से देखते हैं, वास्तव में वे सत्य को अनदेखा करते हैं और भटकते रहते हैं। संक्षेप में, हम मानवता के पोषण के लिए अपनी राष्ट्रीयता को विकसित करने के लिए कृतसंकल्प हैं। हम मानवता के सभी रंगों को संरक्षित रखना चाहते हैं।

अगर हम पूरी दुनिया में मानवता की एकता को प्रदर्शित करना चाहते हैं, तो हमें यह सोचना ज़रूरी है कि हम अपनी उत्कृष्ट विशेषताओं का सर्वाेत्तम उपयोग कैसे कर सकते हैं। सिर्फ़ उत्कृष्ट दर्शनशास्त्र का अनुसरण करने से ज्ञान प्राप्त होने की कोई गारंटी नहीं है। गौतम बुद्ध के समय में, और लोगों ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्य स्रोतों तक पहुँचने की कोशिश की, लेकिन वे शाश्वत ज्ञान को प्रसारित करने में सफल नहीं हो पाए।

संक्षेप में, जो लोग निरंतर ज्ञान का संचार करना चाहते हैं, उनके पास शक्ति होनी चाहिए। आत्म-साक्षात्कार और कभी-कभी वैचारिक विरोध के माध्यम से लंबे समय तक गर्मजोशी और सौहार्दपूर्ण पारस्परिक व्यवहार बनाए रखा जा सके। इसके लिए हमारे राष्ट्र को मजबूत और समृद्ध बनाना होगा।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।