गुरू-शिष्य परंपरा      Publish Date : 23/10/2024

                                   गुरू-शिष्य परंपरा

                                                                                                                                          प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

भारत में गुरू-शिष्य परंपरा का प्रतीक राष्ट्रीय शिक्षक दिवस छात्रों एवं शिक्षकों के लिए एक संकल्प और प्रेरणा लेने का समय है। चरित्र के माध्यम से संपूर्ण गुणात्मक शक्ति को गहण करने वाला समय है। क्योंकि शिक्षा से ही ज्ञान और उद्वारा के मार्ग प्रशस्त होते हैं और ज्ञान से ही मोक्ष का द्वार मिलता है। अतः क्रमिक विकास की यह गति केवल और केवल शिक्षा से ही संभव हो सकती है। शिक्षा को ही मानव के विकास का शीर्ष साधन माना जाना चाहिए।

शिक्षा व्यक्ति के घर से आरम्भ होकर पाठशाला, विद्यालय और विश्वविद्यालय तक पल्लवित होती है। एक शिक्षक, विद्या का अधिष्ठाता और नियामक होता है। शिक्षक अपने शिष्य को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में एक अनन्य सहायक हो सकता है। गुरू का महत्व अनादि काल से ही सनातन धर्म का आधार रहा है जिसे युगों तक बुद्विमानों ने अभिसंचित किया है। अतः शिक्षक की गुरूता को स्वीकार करना समग्र समाल के लिए हितकारी होगा। प्रारम्भिक गुरू के रूप में माता-पिता का अनौपचारिक योगदान भी किसी प्रकार से विस्मृत नही किया जा सकता है।

                                                               

विश्व में विद्या का प्रसार करने के लिए शिक्षा को ही माध्यम बनाया गया। विद्या मानव जीवन की सबसे अधिक कठिन साधना होती है, जो ज्ञान के लक्ष्य को साधती है। अज्ञान में भटकने वाला मनुष्य एक पशु के समान ही होता है। ज्ञान को प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य होता है। ईश मिलन के अतिरिक्त कोई भी अन्य उद्देश्य हमारे इस शरीर का नही है। हमारा जन्म किस कारण हुआ और हमारी मृत्यु क्यों होगी, यह रहस्य भी ज्ञान के अधीन ही होता है। अतः शिक्षा ही ज्ञान के इस वृक्ष का बीज है। शिक्षा देश का बल, संसार का संबल और विद्या जीवन का सम्पूर्ण सार होता है।

त्रेता यग में भगवान श्री राम ने मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ के गुरूकुल में विद्या ग्रहण की तो द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने गुरू संेदीपनी के गुरूकुल में वि़ाध्यन किया। गुरूओं के सानिध्य में इन दोनों ने ही अद्भुत शक्तियां अर्जित की।

शिक्षा का तात्पर्य विद्या ग्रहण करने के लिए मानव को सुपात्र बनाना है और विद्या ग्रहण करने का उद्देश्य ज्ञानार्जन करना है। ज्ञान ही ईश्वर है, सत्य है, शिव है और सुन्दर है। यही अमृतपाप है तो यही मानवता का अमरत्तव भी है।   

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।