सश्क्त शिक्षक संस्था Publish Date : 22/10/2024
सश्क्त शिक्षक संस्था
प्रो0 आर. एस. सेंगर
एक सार्वभौमिक सत्य है कि अध्यापन का कार्य अब रूचि और योग्यता का प्श्न ही नही रहा है, अब तो कोई भी अध्यापक हो सकता है, बशर्ते की उसकी व्यवस्था के अंदर अच्छी पैठ हो।
यह अपने आप में एक पूर्ण सत्य है कि समस्त समाजों में शिक्षा का विशेष महत्व सदैव से ही रहा है। शिक्षित होकर मानव में जीने का ढंग आता है और इसीके साथ मानवीय संवेदना का भाव का विकास होता है। पशुता से मुक्ति हेतु शिक्षा की आवश्यकता को महसूस किया गया जैसा कि कहा भी गया है कि विद्या से विहीन व्यक्ति पशु के समान ही होता है। यदि किसी मानव में विद्या रूपी संस्कार नही हो तो उसके आचरण एवं व्यवहार में पशुता आने लगती है।
ठसीलिए कहा भी गया है कि अज्ञान अपने आप में दुखदाई होता है और एक अज्ञानी व्यक्ति को अपने जीवन में तमाम प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है। पृथ्वी पर मौजूद सभी प्रकार की वस्तुओं में ज्ञान सबसे अधिक पवित्र होता है और ज्ञान को पाकर जीवन के दुखों से छुटकारा पाना संभव है। उपषिद में भी कहा गया है कि ज्ञान के माध्यम से ही मानव को मुक्ति प्राप्त होती है- ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः। ज्ञान न केवल सही मार्ग दिखाता है अपितु गलत राह पर जाने से रोकता भी है। ज्ञान से प्राप्त उचित और अनुचित विचार की शक्ति ही सही निर्णय लेने में सहायता करती है। ऐसी दशा में यह स्वाभावितक ही है कि किसी भी सभ्यता की प्रगति, उसके ज्ञान की पूँजी (नॉलेज कैपिटल) के आधार से ही आंकी जानी चहिए।
ज्ञान, विद्या और मानुष भाव की स्थापना, रक्षा एवं संवर्धन के लिए अति आवश्यक माना जाता है। एक सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था के लिए उसको एक संस्थागत रूप प्रदान करना इस दिशा में उठाया गया अगला कदम था। इसके अंतर्गत वाचिक आदान प्रदान के साथ ही पुस्तके भी तैयार की जाने लगी, विद्यालयों का निर्माण किया गया और विद्यलयों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाना मानव सभ्य जीवन का एक अभिनन भाग बन गया। यह व्यवस्था अपने आप में बहुत कारगर सिक्ष् हुई। शिक्षा जग की प्रमुख धुरी के रूप में गुरू अथवा शिक्षक की भूमिका का निर्धारण किया गया। शिक्षक अथार्त गुरू को शिक्षा की प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु बना दिया गया, जो शिक्षा के उद्देश्य, उसकी विषय-वस्तु और उसके उपादान आदि को निर्धारित करता था।
प्राचीन भारत में गुरूकुल और गुरूओं की एक समृद्व एवं लम्बी परम्परा रही है। श्री राम के गुरू वशिष्ठ, कृष्ण के गुरू संदीपनी और पांड़वों के गुरू द्रोणाचार्य कुछ प्रसिद्व पौराणिक चरित्र हैं। वहीं देश के निर्माण में चाणक्य जैसे गुरूओं की भूमिका का अतयंत प्राचीन इतिहास है। इस प्रकार भारत के अंदर गुरूओं की इस अटूट परंपरा में अगणित नाम उपलब्ध हैं। ज्ञान के विभिनन क्षेत्रों कुछ प्रमुख नाम याज्ञवक्य, यास्क, कपिल, कणाद, व्यास, पाणिनी, उदयन, चरक, सुश्रुत, पतंजलि, शंकराचार्य, अभिनव गुप्त, नागार्जुन, वसुबंधु, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट तथा हेमचन्द्र आदि प्रमुख हैं। इन लोगों ने ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में गुरू परंपरा की अमिट छाप छोड़ी, जो कि अनेक ग्रन्थों के माध्यम से अच्छी तरह से प्रमाणित है। किसी व्यक्ति विशेष के स्थान पर परंपरा ही प्रमुख रही है। सिख गुरू परंपरा भी स्वयं में एक अद्भुत उपलब्धि रही है। गुरूओं की यह परंपरा काल के थपेड़ों के बीच कुछ उतार-चढ़ाव के साथ सदैव ही प्रवाह से युक्त रही है। हालांकि, देश-काल में परिवर्तन के साथ ही उसके रूप भी परिवर्तित होते रहें हैं। गुरू गोरखनाथ, कबीर, गोस्वामी तुलसी दास और रहीम आदि की कविताओं में भी यही चिरंतन गूँज प्राप्त होती है, जिसके उत्स वेदों में परिलक्षित होते हैं।
लोक एवं आध्यात्मिक सभी प्रकार के ज्ञान को साधने में गुरू ही सहायक होता है। जीवन उपयोगी ज्ञान के लिए गुरू के निकट प्रशिक्षण काफी महत्वपूर्ण था। हमारे गाँवों और शहरों में भी विद्यालयों की अच्छी व्यवस्था के संबंध में अंग्रेजों की आरंभिक रिपोर्ट भी विस्मयजनक रही है और कदाचित इसकी शक्ति को समझकर ही अंगेजों ने भारतीय शिक्षा की कमर तोड़ने का षड़यंत्र रचा, जिसमें उन्हें आशातीत सफलता भी प्राप्त हुई। भारतीय शिक्षा की यह पाश्चात्य व्यवस्था भारतीय जनों को औपनिवेशिक परिस्थितियों में नई, आकर्षक और धनोपार्जन में सहायक दिखाई दी। भारतीय जनमानस ने एक बार उसे जो अपनाया तो फिर उसके बाद हम आज तक उसके चंगुल से बाहर निकल पाने में असमर्थ हैं।
इसके बाद धीरे-धीरे अध्यापन की स्थिति भी अन्य प्रकार की नौकरियों के जैसी होती चली गई और उसकी गरिमा का ह्रास हुआ। इसी प्रकार से गुरू जनों की भी जाति और वर्ग आदि बनते चले गए और गुरूओं के आचरण में भी कमजोरियां आने लगी। आज शिक्षण संस्थाओं के भी विभिन्न स्तर हैं और कई अध्यापकों के वेतन तथा अन्य दूसरी सुविधाओं में भी एक बड़ा अंतर व्याप्त है। कार्य की संस्कृति भी अब रूचि और योग्यता का प्रश्न नही रह गया है, बल्कि अब तो कोई भी अध्यापक हो सकता है, बस केवल व्यवस्था के अंदर उसकी पैठ अच्छी होनी चाहिए।
शिक्षा की गुणवत्ता के साथ नीतिगत स्तर पर भी निरंतर समाझौते कए जा रहे हैं। वर्तमान समय में सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक स्तर की शिक्षा में बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि का निरंतर गिरता हुआ स्तर चिंता का विषय है। हालांकि इस सबके मूल में शिक्षकों की समुचित भागीदारी में कमी है, फिर चाहे वह उनकी योग्यता और कौशल की कमी के कारण हो अथवा उनके मन में पल रहे असंतोष के कारण। देश के नौनिहाल अर्थात समाज के भविष्य को गढ़ते-तराशते अध्यापकों के शोषण की बात सर्वविदित है।
अध्यापकों की स्थिति को सुधारने के लिए सरकार को वरीयता से विचार करना चाहिए। शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता करना देश की आत्मा के साथ धोख करने के जैसा ही है। वर्तमान में शिक्षा का परिदृश्य भी अन्य चीजों की भांति तेजी के साथ बदल रहा है। इंटरनेट के माध्यम स ेअब ऑन लाईन सीखने की प्रक्रिया गति पकड़ रही है। आजकल मोबाइल और लेपटॉप संचार, संवाद, लेखन और परक्षा आदि को नित नए आयाम प्रदान कर रहें हैं और यह सब एकतरफा ही नही है, अब कक्षाओं में स्मार्टबोर्ड लगाए जा रहे हैं। मानव की पकड़ बढने के साथ ही गुरू शब्द के जो भी अर्थ लिए जाते हैं वे हमारा ध्यान गुरूता, गांभीर्य और श्रेयठता के जैसे उदात्त भावों के स्रोतों की ओर ले कर जाते हैं। गुरू वह होता है जो ज्ञान के अंजन से शिष्य के चक्षु खोल देता है। गुरू आान के अंधकार को दूर कर ज्ञान के प्रकाश की ओर लेकर जाने वाला एक माध्यम होता है। गुरू अर्थात शिक्षक अपने आप में ही एक पूर्ण संस्था होता है। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए आज इस संस्था को पुनर्जीवित कर फिर से सशक्त बनाने की आवश्ता पहले की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ गई है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।