हमारी मातृभाषा - हिंदी Publish Date : 03/10/2024
हमारी मातृभाषा - हिंदी
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के बीच टकराव की कोई वजह नहीं है। पूरा देश अनादि काल से हमारा है। यहाँ बोली जाने वाली सभी भाषाएँ भी हमारी और हमारे राष्ट्र की हैं। सुदूर अतीत में, औपनिवेशिक काल से पहले, संस्कृत ही संचार की भाषा हुआ करती थी। परन्तु धीरे-धीरे इसकी जगह प्राकृत भाषाओं ने ले ली, जो आगे चलकर विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में बदलती चली गईं।
भारत की सभी वर्तमान भाषाएँ संस्कृत से ही उत्पन्न हुई हैं और उनमें बहुत सी समानताएँ भी विद्यमान हैं। सभी समान हैं और इन भाषाओं में पदानुक्रम का कोई प्रश्न ही नहीं है। क्षेत्रीय भाषाओं के उदय के बाद भी शासन की भाषा संस्कृत ही बनी रही। नागरिक संवाद के लिए अपनी मातृभाषा का उपयोग करते थे, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में संस्कृत को ही आधिकारिक भाषा के रूप में प्रयोग किया जाता था।
विदेशी शासन के दौरान संस्कृत को पूरी तरह से मिटाने का सुनियोजित कुप्रयास किया गया और मुगलों तथा अंग्रेजों ने फारसी और अंग्रेजी को सार्वजनिक संचार का माध्यम बनाया। लेकिन स्वाधीनता मिलने के बाद भी इस दिशा में कोई विशेष प्रयत्न नही हुए। अलग अलग क्षेत्रीय भाषाओं का प्रचलन तो बढ़ा लेकिन काम काज की एक भाषा हो और ऐसी स्थिति में संस्कृत की पुत्री हिंदी ही एकमात्र उपयुक्त भाषा है। यह भाषा सर्वविदित और प्रयोग में आसान होनी चाहिए। हिंदी में ये सभी विशेषताएँ मौजूद हैं, इसलिए इसे राजभाषा बनाना उचित ही है।
हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने से क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व खत्म होने की भी कोई संभावना नहीं है। देश में हिंदी को जो स्थान प्राप्त है, वही स्थान क्षेत्रीय भाषाओं को भी प्राप्त है। सभी क्षेत्रीय भाषाएँ हमारी हैं, इसलिए प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चाहिए और उच्च शिक्षा का पाठ्यक्रम हिंदी में भी सहज उपलब्ध होना चाहिए ।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।