राष्ट्रीय चरित्र का विकास Publish Date : 25/09/2024
राष्ट्रीय चरित्र का विकास
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
हम सभी लोग यह बात जानते हैं कि व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में कोई बदलाव संभव नहीं है। इसलिए हमें चरित्र के आधार पर सोचना होगा। हम बहुत कुछ सीखते हैं, लेकिन जब तक हम प्रेरणा के मूल स्रोतों को नहीं खोज पाते, तब तक हम अपने चरित्र का निर्माण कैसे कर पा सकते हैं। हमारे सामने ऐसे मानक स्थापित किए गए हैं, जिनकी प्रेरणा हमें राष्ट्र भक्ति के बजाय स्वार्थ की तरफ जाने के लिए प्रेरित करती है। व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र वाले अनेकों महापुरुषों हमारे इतिहास में रहे हैं, लेकिन आज हम जब अपने समाज में प्रचलित आदर्शों को देखते हैं और उनके चरित्र पर विचार करते हैं तो दोनो एक दूसरे से एकदम विपरीत प्रतीत होते हैं।
सुभाष चंद्र बोस ने देशभक्ति के कारण प्रशासनिक सेवा को स्वीकार करने से मना कर दिया था। लेकिन यह आदर्श आज हमे अपने आस पास कहीं दिखाई देता है क्या? एक बार हम यह समझ लें, तो चरित्र का पुनरुद्धार आसान हो जाएगा।
हम कहते हैं कि राष्ट्र के बारे में स्पष्ट विचार से राष्ट्र के साथ हमारे संबंधों के बारे में भी स्पष्टता आती है और हम सोचते हैं कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा और भलाई ही हमारी प्रतिष्ठा और भलाई है। राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण तभी संभव है, जब हम अखंडता, एकता, प्रेम, आस्था और विश्वास की भावना को बनाए रखेंगे। कोई भी व्यक्ति स्वार्थी रूप से अपने व्यक्तिगत सुख और महानता में लिप्त रहता है, उसे देशभक्त नहीं कहा जा सकता।
चरित्र का आदर्श सबसे ऊँचा है और उसे शुद्ध होना ही चाहिए। लोग इस ऊँचाई तक पहुँच सकते हैं या नहीं पहुँच सकते हैं, लेकिन चरित्र को तो सबसे ऊँचे स्थान पर होना ही चाहिए। इस बारे में कोई समझौता स्वीकार नहीं किया जा सकता। कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें चरित्र की चिंता नहीं करनी चाहिए, यह भारत के बाहर से आया हुआ एक विचार है। वे कहते हैं, ‘घर पर हम जैसे रहना चाहते हैं, वैसे ही रहेंगे लेकिन हम बाहर से अच्छे हैं।’ लेकिन ये लोग भारत में हमें संतुष्ट नहीं कर सकते क्योंकि हमने हमेशा आंतरिक, बाहरी और आध्यात्मिक शुद्धता को महत्व दिया है।
भारतीय परंपरा में शिक्षित या फिर एक अनपढ़ व्यापारी भी झूठ बोलकर ग्राहक को ठगने का अभ्यास करने से सहमत नहीं होगा। हालांकि किसी अच्छे उद्देश्य और राष्ट्र के हित के लिए बोला गया असत्य भी देशभक्ति की श्रेणी में ही आता है।
राष्ट्र को जीवित रहना चाहिए
यदि हम अपने दर्शन की तुलना विदेशियों से करें, तो अपना दर्शन बहुत विशेष है, हमारी विचारधारा भी उनसे भिन्न है। उनकी नैतिकता और व्यवहार हमसे बहुत भिन्न हैं। लेकिन आज हम अपने को कम आंकते हैं। ‘घरका जोगी जोगड़ा और आन गांव का सिद्ध’ वाली स्थिति हमारी वर्तमान में है। हम दूसरों की नकल करते हैं और कहते हैं ‘हमारे आचरण को मत देखो। अपने घर में अगर हम शराब का आनंद लेते हैं तो इसमें क्या बुराई है?’ हम अपने घरों के बाहर इसकी निंदा करते हैं।
लेकिन अगर हम वास्तविकता देखते हैं, तो हम समझते हैं कि अगर हम खुद अशुद्ध हैं, अपवित्र हैं तो हम दूसरों को क्या दे सकते हैं और जो हमारे पास नहीं है, वह तो किसी और को नहीं दिया जा सकता है। इसलिए इन लोगों के उपदेश अप्रभावी साबित होते हैं। इसका मतलब है कि हमें शुद्ध चरित्र की जड़ों को खोजना होगा और उसके अनुसार अपनी जीवन शैली का चयन करना होगा।
स्वार्थी लोग यदि गलती करते हैं तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह मेरा देश है, मैं इसका एक अंग हूं और मेरे देश की भलाई में ही मेरा कल्याण है, मैं मर सकता हूं, मेरा परिवार मर सकता है, लेकिन देश हमेशा जीवित रहना चाहिए और अच्छा बना रहना चाहिए। इस भावना से ही राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है।
राष्ट्रीय चरित्र की एक और अभिव्यक्ति है ‘मेरे द्वारा मेरे राष्ट्रीय मिशन का भले ही कोई लाभ न हो, लेकिन कम से कम मैं अपने देश के किसी विनाश का कारण भी तो न ही बनूं।’ इस भाव का जागरण और राष्ट्र के बारे में विचार करना एक सतत प्रक्रिया है, यह चलती रहे तभी प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र की उन्नति, प्रसन्नता और अपने कर्तव्य की पूर्ति के बारे में सोच सकता है। यह व्यक्ति केवल अपने बारे में नहीं बल्कि राष्ट्र की खुशी के बारे में सोचता है। मेरे जीने और मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन राष्ट्र हमेशा जीवित रहना चाहिए। इस तरह के विचार से शुद्ध चरित्र का निर्माण होता है।
स्वयं से बड़ा राष्ट्र
वर्तमान स्थिति में, आमतौर पर राष्ट्रीय चरित्र का अभाव देखा जाता है, इसका कारण यह है कि लोगों का दृष्टिकोण राजनीतिक या धन-केंद्रित है। ये लोग राष्ट्र की तुलना में स्वयं के बढ़ते महत्व के माध्यम से राष्ट्र के कल्याण की कामना करते हैं। इसलिए, लोग केवल स्वयं और अपने परिवार पर ध्यान केंद्रित करते हैं तथा अपने राष्ट्र के बारे में वांछनीय या ‘अवांछनीय’ के बारे में नहीं सोचते हैं।
अपने देश के कल्याण के लिए नहीं, बल्कि अपने स्वार्थ के लिए चुनाव लड़ने की एक परंपरा सी बन गई। अपने राष्ट्र के संतुलित विचार को नहीं समझते हैं, जो हमारे जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करता है। इसलिए, सेवा करने की प्रवृत्ति भी उनके स्वार्थी दलीय हितों के कारण काली हो जाती है। दलीय हितों को साधने के लिए राष्ट्र की उपेक्षा की जाती है। राष्ट्र प्रथम की महान भावना के कारण किसी दल या समूह की आवश्यकता ही नहीं रह जाती लेकिन इस भावना को आत्मसात करना कठिन होता है। दल या समूह के लिए स्वार्थी चिंताओं पर विजय पाना असंभव है।
यदि किसी ऋषि को कहा जाए कि जंगल में तपस्या करने के बजाय सभी प्रलोभनों के बीच तपस्या करो, तो वह ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि उसकी इच्छा तो ईश्वर से एकाकार होने की है। इसी प्रकार जब समूह में प्रतिस्पर्धा होती है, तो स्वार्थ को अवसर मिल जाता है। राष्ट्र के विचार को हमेशा स्वीकार करना चाहिए। हम चाहते हैं कि हमारे अच्छे चरित्र के कारण हमें दुनिया में एक महान स्थान मिले।
यह आवश्यक है कि हम प्रत्येक व्यक्ति की उन्नति के लिए काम करें, ताकि उसे देशभक्ति से जोड़ा जा सके और उसके दिल में देशभक्ति का संचार हो सके। जो लोग एक शक्तिशाली राष्ट्र चाहते हैं, उन्हें परिवार या समूह तक सीमित न होकर, देश की एकता को बनाए रखने वाली दृष्टि विकसित करनी चाहिए। इसलिए हमने अपने कार्य की प्रकृति को किसी संप्रदाय तक सीमित नहीं रखा है। राष्ट्र के पवित्र विचार से प्रत्येक व्यक्ति को मंत्रमुग्ध करके उसे देशभक्त बनाने का हमारा विचार है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।