देश के अन्नदाता के हितों की रक्षा ही हमारी मुख्य चिंता      Publish Date : 27/07/2024

               देश के अन्नदाता के हितों की रक्षा ही हमारी मुख्य चिंता

                                                                                                                                                                                  प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

चुनाव बाद जारी किए गए पहले बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कृषि क्षेत्र में कई उत्साहवर्धक घोषणाएं की हैं, जिनका स्वागत किया जाना चाहिए। मगर जब वित्त मंत्री एक करोड़ किसानों तक प्राकृतिक खेती की तकनीक को पहुंचाने की घोषणा करती हैं, तब एक महत्वपूर्ण सवाल पैदा होता है कि आखिर कौन सी प्राकृतिक खेती?

                                                                              

वास्तविकता तो यह है कि प्राकृतिक खेती नाम की कोई कृषि तकनीक पूरी दुनिया में ही उपलब्ध नहीं है। यह एक भ्रामक नामकरण है। दरअसल, जिस कृषि पद्धति को सरकार प्राकृतिक खेती कहती है, उसका नाम प्राकृतिक खेती है ही नहीं, क्योंकि इसमें बीजामृत, जीवामृत, घन जीवामृत, वाफ्सा, आच्छादन और अंतरवर्ती कृषि पद्धति शामिल हैं, जिनकी खोज जिसने की है और इसको उन्हीं पालेकर कृषि तकनीक के नाम से ही जाना जाता है।

प्राकृतिक का सीधा सा अर्थ होता है- प्रकृति के अन्तर्गंत जो भी अस्तित्व में है, लेकिन पालेकर कृषि तकनीक के समेत दुनिया में जितनी भी कृषि तकनीकें उपलब्ध हैं, उन सभी में भूमि की जुताई की जाती है। इनमें बीज की बुआई, एवं रोपाई, निराई-गुड़ाई, सिंचाई, छिड़काव और फसल कटाई जैसे उपक्रम किए जाते हैं। जबकि प्राकृतिक कृषि के अन्तर्गंत इनमें से कोई भी कृषि कार्य नहीं किया जाता है।

अतः सैद्धांतिक रूप से इस कृषि क्रिया को प्राकृतिक कृषि कहना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। सरकार यदि देश के एक करोड़ किसानों तक पहुंचने का संकल्प ले रही है, तो यह सचमुच एक सराहनीय पहल है, परन्तु पारंपरिक वेतनभोगी नौकरशाही और देशी-विदेशी वित्तीय मदद पर निर्भर गैर-सरकारी संगठनों के जरिये इस संकल्प का पूरा होना असंभव है। सरकार को इस संकल्प को साकार करने के लिए रचनात्मक जन आंदोलन का सहयोग लेना चाहिए।

‘‘एक करोड़ किसानों तक पहुंचने का सरकारी संकल्प निःसन्देह सराहनीय है। इसे पूरा करने के लिए जन-आंदोलनों का सहयोग लेना चाहिए।’’

                                                                

इस साल के बजट में कृषि एवं इससे जुड़े क्षेत्रों के लिए 1.52 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। यह धनराशि कम नहीं है, पर इस बजटीय प्रावधान की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि किसानों की स्थिति इससे कितनी सुधरती है। ऐसी अनेक योजनाएं हैं, जिनमें अंतिम लाभार्थी यानी किसानों तक पहुंचने के लिए अतिरिक्त पैसे की आवश्यकता नहीं होगी। लेकिन इसके लिए सरकार को कृषि क्षेत्र में जमीनी स्तर पर सक्रिय विशेषज्ञों से निरंतर संवाद कायम करना होगा।

वित्त मंत्री ने ग्रामीण विकास के मद में जितना वित्तीय प्रावधान किया है, उससे पांच गुना ज्यादा आवंटन शहरी विकास के लिए किया गया है। मेरी राय में इसे उल्टा होना चाहिए था। आत्मनिर्भर भारत का सीधा अर्थ है देश के साढ़े छह लाख से अधिक गांवों का आत्मनिर्भर होना। ग्रामीण क्षेत्रों में निर्मिति होती है, शहरों में नहीं; शहरी इलाकों में वस्तु-रूपांतरण होता है और वस्तु व पैसे का परस्पर आदान-प्रदान होता है। अतः शहरी विकास का अर्थं भारत की आत्मनिर्भरता कभी नहीं हो सकता।

कृषि उपज आपूर्ति प्रक्रिया को इस बजट में प्रधानता दी गई है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए। लेकिन जहां अनाज पैदा होता है अथवा कोई भी फसल उगाई जाती है, यदि वहीं पर, यानी गांवों में खरीद प्रक्रिया होगी, तभी किसान लूट से बचाए जा सकेंगे। बजट से परे भी सरकार को कृषि परिदृश्य को बदलने के लिए प्रयास करने होंगे। जलवायु परिवर्तन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के रूप में दो पर्यावरण विरोधी परिघटनाएं तेजी से आकार ले रही हैं, जो किसानों को बुरी तरह प्रभावित करेंगी। सरकार को इसका जवाब तलाशना चाहिए।

                                                               

इसी तरह, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत हर गांव में एक बड़ा तालाब खोदने का कार्य सरकारी खर्च पर और गांव वालों के श्रमदान से होना चाहिए।

एक आशंका यह भी है कि किसानों को बायो-फर्टिलाइजर जैसे साधनों को बाजार से खरीदने के लिए बाध्य किया जाएगा, तो फिर बजट का पावित्र्य स्वयं ही खत्म हो जाएगा। शहरी उपभोक्ताओं को बिना किसी बिचौलिए के अपनी कृषि उपज या खाद्य पदार्थों को बेचने की व्यवस्था अगर सरकार किसानों को उपलब्ध कराती है और कृषि उपज का व खाद्य पदार्थों का मूल्य उत्पादक किसान एवं उपभोक्ता, दोनों मिलकर निश्चित करते हैं, तब किसानों को न्याय देने वाला बजट सिद्ध होगा।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।