मृदा के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी हरित खाद

                       मृदा के स्वास्थ्य के लिए उपयोगी हरित खाद

                                                                                                                                                                                         डॉ0 आर. एस. सेंगर

मृदा उर्वरता एवं उत्पादकता बढ़ाने में हरी खाद का प्रयोग अति प्राचीन काल से ही होता आ रहा है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नकदी फसलों के अन्तर्गत इनका क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चय ही कमी आई, लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद जैसे अन्य कार्बनिक स्त्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है।

दलहनी एवं गैर दलहनी फसलों को उनके वानस्पतिक वृद्धि काल में उपयुक्त समय पर मृदा उर्वरता एवं उतपादकता बढ़ाने के लिए जुताई करके मिट्टी में अपघटन के लिए खेत में खड़ी फसलों को दबाना ही हरी खाद देना कहलाता है। भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का महत्व सदैव से ही रहा है। ये फसलें अपनी जड़ ग्रन्थियों में उपस्थित सहजीवी जीवाणुओं के द्वारा वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन का दोहन कर उसे मिट्टी में स्थिर करती है।

                                                                  

आश्रित पौधे के उपयोग के बाद जो नाइट्रोजन मिट्टी में शेष रह जाती है और वह आगामी फसल द्वारा उपयोग में लायी जाती है। इसके अतिरिक्त दलहनी फसलें अपने विशेष गुणों जैसे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने, प्रोटीन की प्रचुर मात्रा के कारण पोषकीय चारा उपलब्ध कराने तथा मृदा क्षरण के अवरोधक के रूप में भी अपना एक विशेष स्थान रखती है।

हरी खाद में प्रयुक्त दलहनी फसलों का मिट्टी से सह संबंध

दलहनी फसलों की जड़ें गहरी तथा मजबूत होने के कारण कम उपजाऊ भूमि में भी अच्छी तरह से उगती है। यह फसले भूमि को अपनी पत्तियों एवं तनों से ढक लेती है, जिससे मृदा का क्षरण कम होता है।

दलहनी फसलों से मिट्टी में जैविक पदार्थों की अच्छी मात्रा एकत्रित हो जाती है।

राइजोबियम जीवाणु की मौजूदगी में दलहनी फसलों की 60-150 किग्रा. नाइट्रोजन/हे. स्थिर करने की क्षमता होती है। दलहनी फसलों से मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक गुणों में प्रभावी परिवर्तन होता है जिससे सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता एवं आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि होती है।

हरी खाद के लिए उपयुक्त फसल का चुनाव

                                                               

हरी खाद के लिए उगाई जाने वाली सही फसल का चुनाव, भूमि जलवायु तथा उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए। हरी खाद के लिए फसलों में निम्न गुणों का उपलब्ध होना अति आवश्यक है।

यह फसल शीघ्र वृद्धि करने वाली होनी चाहिए

हरी खाद के लिए ऐसी फसल का चयन करना चाहिए जिसके तना, शाखाएं और पत्तियॉ कोमल एवं अधिक हों ताकि यह मिट्टी में शीघ्र अपघटित होकर अधिक से अधिक जीवांश तथा नाइट्रोजन ण्कत्र कर सके।

फसलें मूसला जड़ों वाली हों ताकि गहराई से पोषक तत्वों का अवशोषण हो सके। क्षारीय एवं लवणीय मृदाओं में गहरी जड़ों वाली फसल अंतः जल निकास बढ़ाने में सहायक होती है।

दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित सहजीवी जीवाणु ग्रंथियों वातावरण में मुक्त नाइट्रोजन को योगिकीकरण के द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती है।

फसल सूखा अवरोधी के साथ जल मग्नता को भी सहन करने वाली होनी चाहिए।

फसल में रोग एवं कीट कम लगते हो तथा बीज उत्पादन को क्षमता अधिक हो।

हरी खाद के साथ-2 फसलों को अन्य उपयोग में भी लाया जा सके।

हरी खाद के लिए दलहनी फसलों में सनई, ढैंचा, उर्द, मॅूग, अरहर, चना, मसूर, मटर, लोबिया, मोठ, खेसारी तथा कुल्थी आदि मुख्य है। जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में जायद में हरी खाद के रूप में अधिकतर सनई, ढैंचा, उर्द एवं मॅूग का प्रयोग ही प्रायः प्रचलित है।

सनई एवं ढैंचा हेतु हरी खाद के लिए उन्नतशील प्रजातियॉ

                                                                       

नरेन्द्र सनई-1

कार्बनिक पदार्थ से भरपूर भूमि में 45 दिन के बाद पलटने से 60-80 किग्रा./हे. नाइट्रोजन प्रदान करने वाली शीघ्र जैव अपघटन पारिस्थितकीय मित्रवत 25-30 टन/हे. हरित जैव पदार्थ बीज उत्पादन क्षमता 16.0 कु./हे. प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रंथियॉ अम्लीय, एवं सामान्य क्षारीय भूमि के लिए सहनशील तथा हरी खाद के अतिरिक्त रेशे एवं बीज उत्पादन के लिए भी उपयुक्त रहती है।

पंत ढैंचा-1

कार्बनिक पदार्थों से भरपूर 60 दिन में हरित एवं सूखा जैव पदार्थ, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ तथा अधिक बीज उत्पादन प्राप्त होता है।

हिसार ढैंचा-1

कार्बनिक पदार्थों से भरपूर, 45 दिन में अधिक हरित एवं सूखा जैव पदार्थ उत्पादन, मध्यम बीज उत्पादन, प्रति पौध अधिक एवं प्रभावी जड़ ग्रन्थियॉ विद्यमान होती हैं।

उपरोक्त प्रजातियॉ वर्ष 2003 में राष्ट्रीय स्तर पर विमोचित की गयी है। इन प्रजातियों के बीज की उपलब्धता सुनिश्चित न होने पर सनई एवं ढैंचा की अन्य स्थानीय प्रजातियों का प्रयोग भी हरी खाद के रूप में किया जा सकता है।

उर्वरक प्रबन्धन

हरी खाद के लिए प्रयोग की जाने वाली दलहनी फसलों में भूमि में सूक्ष्म जीवों की क्रियाशीलता बढ़ाने के लिए विशिष्ट राइजोबियम कल्चर का टीका लगाना उपयोगी सिद्व होता है। कम एवं सामान्य उर्वरता वाली मिट्टी में 10-15 किग्रा. नाइट्रोजन तथा 40-50 किग्रा. फास्फोरस प्रति हे. उर्वरक के रूप में देने से यह फसलें पारिस्थिकीय संतुलन बनाये रखने में अत्यन्त सहायक होती है।

हरी खाद के लिए प्रयुक्त होने वाली प्रमुख फसलें

सनई

के-12 प्रजाति अच्छे जल निकास वाली बलुई अथवा दोमट मृदाओं के लिए यह उत्तम दलहनी हरी खाद की फसल है। इसकी बुवाई मई से जुलाई तक वर्षा प्रारम्भ होने पर अथवा सिंचाई करके की जा सकती है। एक हेक्टेयर खेत में 80-90 किग्रा. बीज बोया जाता है। मिश्रण फसल में 30-40 किग्रा. बीज प्रति हे. पर्याप्त होता है। यह तेज वृद्धि तथा मूसल जड़ वाली फसल है जो खरपतवार को दबाने में समर्थ है।

बुवाई के 40-50 दिन बाद इसको खेत में पलट देते है। सनई की फसल से 20-30 टन हरा पदार्थ एवं 85-125 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हे. मृदा को प्राप्त होता है। अंकुर स्वास्तिक एवं शैलेष सनई की अन्य उपयुक्त प्रजातियां है।

ढैंचा

यह एक दलहनी फसल है। यह सभी प्रकार की जलवायु तथा मृदा दशाओं में सफलतापूर्वक उग जाती है। जलमग्न दशाओं में भी यह 1.5 से 1.8 मीटर की ऊॅचाई कम समय में ही पा लेती है। यह फसल एक सप्ताह तक 60 सेमी. तक पानी भरा रहना भी सहन कर लेती है। इन दशाओं में ढैंचा के तने से पार्श्व जड़ें निकल आती है जो उसे तेज हवा चलने पर भी गिरने नहीं देती हैं।

अंकुरित होने के बाद यह सूखे को सहने करने की क्षमता भी रखती है। इसे क्षारीय तथा लवणीय मृदाओं में भी उगाया जा सकता है। हरी खाद के लिए प्रति हे० 60 किग्रा़० ढैंचे के बीज की आवश्यकता होती है। ऊसर में ढैंचे से 45 दिन में 20-25 टन हरा पदार्थ तथा 85-105 किग्रा० नाइट्रोजन मृदा को प्राप्त होता है। धान की रोपाई के पूर्व ढ़ैचा की पलटाई से खरपतवार नष्ट हो जाते है। नरेन्द्र ढ़ैचा-1 इसकी उपयुक्त प्रजाति है।

ग्वार

यह खरीफ में बोयी जाने वाली दलहनी तथा मूसला जड़ वाली फसल है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों तथा बलुई भूमि में यह सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। इसका 25 किग्रा० बीज/हे० बोकर 20-25 टन हरा पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है।

उर्द एवं मूंग

                                                                

इन फसलों को अच्छी जल निकास वाली हल्की बलुई या दोमट मृदाओं में जायद एवं खरीफ में बोया जा सकता है। इन फलियों को तोड़ने के बाद खेत में हरी खाद के रूप में पलट कर उपयोग में लाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में हरी खाद के लिए इनका आंशिक रूप में प्रयोग किया जा सकता है। बुवाई के लिए प्रति हे० 15-20 किग्रा० मॅूग/उर्द बीज की आवश्यकता होती है। मूंग एवं उर्द से 10-12 टन प्रति हैक्टेयर हरा पदार्थ प्राप्त होता है।

लोबिया

इस दलहनी फसल को सिंचित क्षेत्रों में आंशिक रूप से हरी खाद के रूप में उगाया जा सकता है। यह बहुत मुलायम होती है जिसे अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मृदाओं में उगाया जाता है। जल भराव को यह फसल सहन नहीं कर पाती है। एक हेक्टेयर में 25-35 किग्रा० बीज की बुवाई करके 15-18 टन हरा पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है।

इन फसलों के अतिरिक्त मोठ, कुल्थी, जंगली, नील, सेंजी, खेसारी, बरसीम को भी हरी खाद के लिए उगाया जा सकता है।

उत्पादन क्षमता

हरी खाद की फसलों की उत्पादन क्षमता

                                                                    

हरी खाद की विभिन्न फसलों की उत्पादन क्षमता जलवायु, फसल वृद्धि तथा कृषि क्रियाओं आदि के ऊपर निर्भर करती है। विभिन्न हरी खाद वाली फसलों की उत्पादन क्षमता निम्न सारणी में दर्शाया गया है।

हरी खाद की स्थानिक विधि

इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है जिसमें हरी खाद का प्रयोग करना होता है। यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। इस विधि में फूल आने के पूर्व वानस्पतिक वृद्धि काल (40-50 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है। मिश्रित रूप से बोई गयी हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दबा दिया जाता है।

हरी पत्तियों की हरी खाद

इस विधि में हरी पत्तियों एवं कोमल शाखाओं को तोडकर खेत में फैलाकर जुताई द्वारा मृदा में दबाया जाता है। जो मिट्टी मे थोड़ी नमी उपलब्ध होने पर भी सड जाती है। यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से उपयोगी होंती है।

हरी खाद की गुणवत्ता बढ़ाने के उपाय

उपयुक्त फसल का चुनाव

जलवायु एवं मृदा दशाओं के आधार पर उपयुक्त फसल का चुनाव करना आवश्यक होता है। जलमग्न तथा क्षारीय एवं लवणीय मृदा में ढैंचा तथा सामान्य मृदाओं में सनई एवं ढैंचा दोनों फसलों से अच्छी गुणवत्ता वाली हरी खाद प्राप्त होती है। मॅूग, उर्द, लोबिया आदि अन्य फसलों से अपेक्षित हरा पदार्थ नहीं प्राप्त होता है।

हरी खाद की खेत में पलटायी का समय

अधिकतम हरा पदार्थ प्राप्त करने के लिए फसलों की पलटायी या जुताई बुवाई के 6-8 सप्ताह बाद प्राप्त होती है। आयु बढ़ने से पौधों की शाखाओं में रेशे की मात्रा बढ़ जाती है जिससे जैव पदार्थ के अपघटन में अधिक समय लगता है।

हरी खाद के प्रयोग के बाद अगली फसल की बुवाई या रोपाई का समय

जिन क्षेत्रों में धान की खेती होती है वहॉ जलवायु नम तथा तापमान अधिक होने से अपघटन क्रिया तेज होती है। अतः खेत में हरी खाद की फसल के पलटायी के तुरन्त बाद धान की रोपाई की जा सकती है। लेकिन इसके लिए फसल की आयु 40-45 दिन से अधिक की नहीं होनी चाहिए। लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं में ढैंचे की 45 दिन की अवस्था में पलटायी करने के बाद धान की रोपाई तुरन्त करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है।

समुचित उर्वरक प्रबन्ध

कम उर्वरता वाली मृदाओं में नाइट्रोजनधारी उर्वरकों का 15-20 किग्रा./हे. का प्रयोग उपयोगी होता है। राईजोबियम कल्चर का प्रयोग करने से नाइट्रोजन स्थिरीकरण सहजीवी जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।