रूकने के स्थान पर बढ़ती जा रही है जंगलों की आग      Publish Date : 10/05/2024

                   रूकने के स्थान पर बढ़ती जा रही है जंगलों की आग

                                                                                                                                                                                          डॉ0 आर. एस. सेंगर

‘‘ अब यह चिंता भी बढ़ गई है कि ग्रीनहाउस गैसों को अवशोषित करने वाले जंगलों में आग की घटनाएं कहीं देश के वार्षिक कार्बन पदचिह्न को भी बढ़ा न दें।’’

                                                                          

उत्तराखंड अधिकांश भाग को कवर करने वाले देवदार जैसे शंकुधारी (कोनिफर) वृक्षों के प्रभुत्व के साथ स्प्रूस वन, पाइन, रोहडेनड्रोन के साथ यहां पाए जाने वाले पर्णपाती वनों में साल, सागौन और ओक जैसे चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों का ही प्रभुत्व है। पीढ़ियों से जंगलों के ये विशाल क्षेत्र बेशकीमती रहे हैं, जो न केवल सैकड़ों प्रजातियों को शरण प्रदान करते हैं (जिनमें सर्वाधिक खतरे में पड़ी कुछ प्रजातियां भी शामिल हैं), बल्कि वे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से ज्यादा उसे अवशोषित करते हैं, जो एक विशाल कार्बन सिंक के रूप में कार्य करती हैं।

विशाल हिमालय के बीच स्थित उत्तराखंड, जिसे ‘‘देव भूमि’’ भी कहा जाता है, अपने में विविध वनस्पतियों और जीवों से भरपूर एक हरा-भरा स्वर्ग समेटे हुए है। बर्फ से ढकी चोटियां, घने जंगल और घाटियां, जिनमें उष्णकटिबंधीय वर्षा वन, शीतोष्ण वन और अल्पाइन घास के मैदान शामिल हैं, यहां की एक अनूठी विशेषता है। यहां ब्राह्मी, अश्वगंधा और कुश सहित 1,748 से अधिक वनस्पतियों की प्रजातियां हैं। यह पक्षियों की 600 से अधिक प्रजातियों का आश्रय स्थल है। उत्तराखंड जिम कॉर्बेट, राजाजी, नंदा देवी, फूलों की घाटी और गंगोत्री को अपने आप में समेटे हुए है।

                                                                      

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से बढ़ रही गर्मी में उत्तराखंड के जंगल की आग असाधारण रूप से भयावह रही है, और यह साल दर साल बढ़ती ही जा रही है। अभी तक उत्तराखंड में 1,145 हेक्टेयर से अधिक जंगलों को आग अपने आगोश में ले चुकी है। चिलचिलाती गर्मी के कारण जंगलों की आग बेकाबू हो रही है। जंगलों में लगी आग के कारण घाटी में धुआं फैलने से लोग खासे परेशान हैं। हर साल फरवरी मार्च से जंगलों में आग की खबरें आना एक सामान्य घटना है। लेकिन उत्तराखंड के जंगलों के धधकने का सिलसिला थमने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। शुष्क मौसम के चलते जंगल की आग और भी विकराल होती जा रही है।

टिहरी बांध प्रथम वन प्रभाग, नैनीताल वन प्रभाग, भूमि संरक्षण रानीखेत वन प्रभाग, अल्मोड़ा वन प्रभाग, सिविल सोयम अल्मोड़ा वन प्रभाग, तराई पूर्वी वन प्रभाग, रामनगर वन प्रभाग, मसूरी वन प्रभाग, लैंसडौन भूमि संरक्षण वन प्रभाग, सिविल सोयम पौड़ी वन प्रभाग, केदारनाथ वन्य जीव प्रभाग आदि सब के जंगल धधक रहे हैं। उत्तरकाशी जिले की बाड़ाहाट रेंज से लेकर धरांसू रेंज के जंगल अधिक जल रहे हैं।

दरअसल वर्तमान समय में जंगलों की आग धरती के गर्म होने के कारण से लंबे समय तक खिंचने लगी है। जंगलों में आग लगना असामान्य नहीं है, लेकिन हैरान करने वाली बात यह भी है कि अब जंगलों में आग लगने की घटनाएं तब हो रही हैं, जब पहले नहीं हुआ करती थीं। जाहिर है कि इसका सीधा नाता बदलते मौसम, यानी जलवायु परिवर्तन से ही है। इस साल की शुरुआत में उत्तराखंड में सर्दियों में वारिश बहुत कम मात्रा में हुई। हर साल की तरह 50 मिली मीटर के बजाय इस वर्ष वर्षा का स्तर केवल 10 मिमी के आस पास ही रहा, जो कि सामान्य से बहुत ज्यादा कम है।

                                                                              

हिमालय में वैसे भी ग्लोबल वार्मिंग की दर सबसे अधिक है। मानसून की बारिश का अभाव वहां मौजूद वनस्पति को सूखा कर ज्वलनशील ईंधन में तब्दील करने के लिए पर्याप्त है। जाहिर है कि गर्मी बढ़ने से पेड़-पौधे ज्यादा सूख रहे हैं, धरती का पानी भी सूख रहा है, टूटे पत्ते जल्दी सूख रहे हैं और सूखे पत्ते भी आग लगने का कारण बनते हैं। तेज गर्मी के चलते पहाड़ों पर उगने वाले झाड़-झंखाड़ के सूख जाने से शुष्क ईंधन की उपलब्धता भी इन दिनों काफी बढ़ गई है और यह आसानी से ही जल उठती है।

एक वैज्ञानिक अनुमान के हिसाब से, इस गर्मी में जब आग की लपटों ने दुनिया के जंगलों के सबसे बड़े हिस्सों में से एक को निगल लिया, और बदले में 2.2- अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल में छोड़ दिया। उत्तराखंड के जंगलों की आग कार्बन उत्सर्जन बढ़ाकर संभवतः देश के वार्षिक कार्बन पदचिह्न को भी बढ़ा देगी, क्योंकि जलवायु प्रणाली ‘‘टिपिंग पॉइंट’’ पर पहुंच गई है। दुनिया भर में जंगलों में आग लगने की बढ़ती घटनाएं यह सवाल उठा रही हैं कि कहीं कार्बन सिंक से कार्बन उत्सर्जन के स्रोत न बन जाएं हमारे जंगल। अब यह मुद्दा एक वैश्विक समस्या बन चुका है। वैज्ञानिकों ने इस बात के लिए भी चेताया कि आने वाले समय में स्थितियां और भी गंभीर हो सकती हैं।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।