चुनावी मुद्दा हो गरीबों पर गर्मी की मार      Publish Date : 21/04/2024

                         चुनावी मुद्दा हो गरीबों पर गर्मी की मार

                                                                                                                                                                डॉ0 आर. एस. सेंगर

‘‘चुनाव के मद्देनजर बेशक सियासी तापमान बढ़ गया हो, लेकिन जलवायु परिवर्तन के चलते गर्मी के बढ़ते कहर पर राजनेता चर्चा नहीं करते, जिससे देश का प्रत्येक हिस्सा व क्षेत्र प्रभावित है। प्रचंड लू की मार सबसे ज्यादा उन गरीबों पर ही पड़ती है, जो घर से बाहर काम करते हैं और सुविधाओं के अभाव में जीते हैं।’’

                                                                          

जैसे-जैसे ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव नजदीक आ रहे है, सियासी तापमान बढ़ रहा है. साथ ही भारत के एक बड़े हिस्से को प्रचंड गर्मी भी अपनी चपेट में ले रही है। लेकिन हैरानी की बात है कि राजनेताओं द्वारा जिन मुद्दों पर बहस हो रही है, उनमें जलवायु परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे का जिक्र तक नहीं है जो कि अपने आप में शर्मनाक है।

जलवायु परिवर्तन के कारण भीषण गर्मी के साथ अनियमित एवं चरम मौसमी घटनाएं देश के प्रत्येक हिस्से और क्षेत्र को प्रभावित कर रही है। प्रचंड गर्मी सभी वर्गों के लोगों, खासकर महिलाओं, बच्चों और बुजुगों के स्वास्थ्य और खुशहाली को भी प्रभावित करती है। सक्षम कामकाजी वयस्क- यथा किसान, निर्माण श्रमिक, मोची, रेहड़ी-पटरी वाले, डिलीवरी बॉय आदि सभी प्रभावित होते हैं और इसका अर्थव्यवस्था, कृषि, भोजन, पोषण आदि पर व्यापक प्रभाव भी पड़ता है।

हालांकि प्रत्येक राजनीतिक दल चुनावी मौसम में गरीबों की बात तो करता है, लेकिन कितने राजनेता सार्वजनिक रूप से यह मानते हैं कि गर्मी बेशक हर किसी को प्रभावित करती है, लेकिन यह सबको समान रूप से प्रभावित नहीं करती। देश के लाखों गरीब, जो हमारी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का एक जरूरी हिस्सा है, वह वातानुकूलित घरों या पर्याप्त हरियाली वाले हरे-भरे इलाकों में नहीं रहते हैं। वे घरों के अंदर भी नहीं रह सकते, जैसे कि गर्मी बढ़ने पर सलाह दी जाती है या बर्फ वाला शीतल पानी नहीं पी सकते या लंबे समय तक छाया में भी नहीं रह सकते। इन्हें तो काम के लिए घरों से बाहर निकलना ही पड़ता हैं।

                                                              

गहरी असमानताओं वाले इस देश में अत्यधिक गर्मी का लोगों पर अलग- अलग प्रभाव पड़ता है। लेकिन जिन्हें चिलचिलाती गर्मी में बाहर रहकर काम करना पड़ता है, उन गरीबों के लिए क्या किया जाएगा, इस पर राजनेताओं के बीच कोई चर्चा कभी नहीं की जाती है।

पिछले दिनों, क्लाइमेट कॅपेनर अविनाश चंचल ने एक्स (पहले ट्विटर) पर कुछ कटु सच्चाइयों को उजागर किया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2020 में गर्मी के कारण 530 मौतें हुई, वर्ष 2021 में 374 मौतें हुई और वर्ष 2022 में 730 मौतें हुई। जैसा कि चंचल ने आगे बताया, इस सबके बावजूद भी, लू राष्ट्रीय आपदा नहीं है। हालांकि हमारे देश में हीट ऐक्शन प्लान हैं, लेकिन इससे जुड़ी सेवाओं के लिए केंद्र सरकार की ओर से कोई विशेष फंड उपलब्ध ही नहीं है। माना जाता है कि देश में लू के कारण मरने वालों की संख्या इससे बहुत ज्यादा हो सकती है, क्योंकि बहुत-सी ऐसी मौतों की सूचना विभिन्न कारणवश दर्ज ही नहीं हो पाती है।

एनसीआरबी ने ‘प्राकृतिक कारणों से दुर्घटनाएं’ शीर्षक के तहत 8,060 मौतों की सूचना प्रकाशित की है, जिनमें से 35.8 फीसदी मौतें आकाशीय बिजली गिरने से, 9.1 फीसदी मौतें लू या भीषण गर्मी से और 8.9 फीसदी मौतें ठंड के कारण बताई गई हैं। क्या ये दुर्घटनाओं के कारण होने वाली आकस्मिक मौतें हैं या ये टाली जा सकने वाली मौतें हैं? क्या इन लोगों को बचाया जा सकता था? अत्यधिक गर्मी या लू से होने वाली मौतें महज आंकड़ा भर ही नहीं हैं। वे वास्तविक लोग थे, जिनका अपना एक परिवार था। यही नहीं, गर्मी से संबंधित मौतें पूरी कहानी नहीं बतातीं, क्योंकि अत्यधिक गर्मी अन्य स्वास्थ्य समस्याओं को जटिल बना देती है, भले ही उससे मौत न हो।

स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस साल भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने एक अप्रैल को ही चेतावनी जारी कर दी थी। आईएमडी द्वारा जारी चेतावनी से इस बार गर्मी में बढ़ते तापमान का पता चलता है, जिससे कई इलाकों में घातक लू की स्थिति भी हो सकती है। हाल ही में आईएमडी ने हीट इंडेक्स लॉन्च किया है, जो उच्च तापमान पर आर्द्रता के प्रभाव के बारे में सूचना देता है और इस तरह से मनुष्यों को ऐसे तापमान का अहसास कराता है, जिसे मानव के लिए असुविधा के संकेत के रूप में देखा जाता है। यह असुविधा कम करने के लिए अतिरिक्त देखभाल की जरूरत को रेखांकित है। लेकिन यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि एक ही शहर के भीतर सभी क्षेत्रों में समान रूप से गर्मी महसूस नहीं होती है।

                                                                              

जिन इलाकों में बहुत से पेड़ और हरियाली होती है, वहां का वातावरण अपेक्षाकृत कुछ ठंडा महसूस होता है, बनिस्पत उन इलाकों के, जहां पेड़ कम होते हैं और इमारतें ज्यादा होती हैं।

    कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे बुजुर्ग और छोटे बच्चों के सीधे धूप में न जाने के बावजूद गर्मी बढ़ने पर बीमार पड़ने की आशंका ज्यादा होती है। यदि घरों में वेंटिलेशन नहीं है, घर की संरचना कमजोर है और स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता ठीक नहीं है, तो घरों के अंदर रहना भी हमेशा सुरक्षित नहीं होता है।

जिन लोगों को लू लग जाती है, उनके लिए यह जानना जरूरी है कि कौन-सी चीज उन्हें असुरक्षित बनाती है और क्या होता है, जब गर्मी की प्रतिक्रिया में शरीर को ठंडा रखने के लिए हृदय ज्यादा से ज्यादा पंप करने लगता है। लू लगने पर लोगों को पसीना आने लगता है और शरीर में तेजी से पानी की कमी होने लगती है और ऐसी स्थिति में हृदय, फेफड़ा और किडनी (गुर्दे) खराब होने लग सकते हैं।

ऐसे में, सोचिए कि उन लोगों के साथ क्या होता होगा, जो वैसी जगहों पर रहते हैं, जहां लंबे समय तक बिजली नहीं रहती, जिनके पास बैकअप इनवर्टर नहीं होता और जो एयरकंडीशनर का खर्च वहन नहीं कर सकते। आर्द्रता वाले इलाकों में एयर कूलर भी काम नहीं करता। भले ही किसी क्षेत्र में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से कम हो, लेकिन स्वास्थ्य के लिए खतरा वहां की आर्द्रता पर निर्भर करेगा। उच्च आर्द्रता पसीने को निकलने नहीं देती और शरीर को ठंडा होने से रोकती है। इससे कम आर्द्रता वाले स्थानों की तुलना में लू का खतरा ज्यादा हो सकता है।

                                                                       

कई भारतीय शहरों और राज्यों के पास हीट ऐक्शन प्लान हैं। सबसे पहले 2013 में अहमदाबाद नगर निगम और उसके साझेदारों ने वर्ष 2010 की विनाशकारी गर्मी के बाद इसकी पहल की थी, जिसमें 1,344 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। तबसे कई भारतीय शहरों ने अपना हीट ऐक्शन प्लान तैयार किया है, जो एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के रूप में कार्य करता है। लेकिन अत्यधिक लू का सामना करने के लिए गरीबों को जरूरत पड़ने पर समर्थन एवं चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता है, सिर्फ चेतावनी प्रणाली से काम नहीं चलने वाला है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।