स्वच्छ आबोहवा के सपने देखते हुए हमारे शहर Publish Date : 27/03/2024
स्वच्छ आबोहवा के सपने देखते हुए हमारे शहर
डॉ0 आर. एस. सेंगर
पर्यावरण वह जूं है, जो कि राजनीति के कान पर कभी रेंग ही नहीं पाती है। पिछले तीन दशक से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो चुकी है कि अब हमारे शहरों की हवा सांस लेने योग्य ही नहीं है। परन्तु इस विकट समय में भी हमारी राजनीति इस समस्या को नजरंदाज करने के नित नए तरीके ढूंढ़ती रहती है। इसलिए यह माना जा सकता है कि हालिया रिपोर्टों का भी इस पर शायद ही कोई असर हो सकेगा।
इसके सम्बन्ध में सबसे पहले चर्चा करते हैं विश्व मौसम विज्ञान संस्थान की रिपोर्ट की, जिसके अनुसार, पिछले साल मार्च से लेकर इस वर्ष फरवरी तक वैश्विक तापमान सामान्य से 1.5 डिग्री की सीमा से ऊपर ही बना रहा। यह रिपोर्ट बताती है कि न केवल बीता वर्ष, बल्कि पूरा दशक धरती का सबसे गरम दशक रहा है। इसी तरह स्विस संगठन ’आईक्यू एयर’ की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे प्रदूषित देश है और पूरी दुनिया के दस सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में नौ भारत के शहर हैं, जबकि शीर्ष 100 प्रदूषित शहरों में से 83 शरों के सामने भारतीय झंडा ही लगा हुआ है।
चूंकि, इस स्विस कंपनी का व्यापार घरेलू हवा को साफ रखने के यंत्र बेचना है, तो यह भी हो सकता है कि कुछ लोगों को इसमें भारत की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र दिखाई दे जबकि ऐसा सोचना अपने आप में आत्मघाती होगा। क्योंकि इस कंपनी ने तो सरकारों द्वारा जारी किए गए आंकड़ों को संजोया भर ही है। यह रिपोर्ट कार्ड हमारा अपना तैयार किया हुआ है, कंपनी ने तो केवल इसे केवल वैश्विक संदर्भ में हमारे सामने रखा ही है। इससे बचने का एक तरीका यह हो सकता है कि हमारे यहां वायु प्रदूषण को जांचा ही न जाए, या फिर उसके आंकड़े सार्वजनिक न किए जाएं। इससे हो सकता है कि ऐसा करने से देश की छवि थोड़ी-बहुत सुधर जाए। मगर उसके लिए हमें अपने लोगों के स्वास्थ्य की बलि तो चढ़ानी ही होगी। यह कठिन नहीं है।
स्वास्थ्य और चिकित्सा का हमारा तंत्र धन पर आधारित है। धनवान लोग अपने घर में पानी और हवा को स्वच्छ रखने वाले यंत्र लगा सकते हैं। उनका भोजन और रहन-सहन ऐसा होता है, जिसमें कई खतरे कम हो जाते हैं। जब वे बीमार पड़ते हैं, तब चिकित्सा सुविधाएं भी उन्हें मिल ही जाती हैं। परन्तु इतना धन तो हमारी आबादी के एक छोटे से हिस्से के पास ही उपलब्ध है।
‘‘पिछले दो सौ सालों में औद्योगिक क्रांति के औजारों ने प्रदूषण के स्तर को इतना बढ़ा दिया है कि उसका जहर हर सांस के साथ हमारे भीतर जाता है, भोजन के हर निवाले में उसका विष है।’’
बाकी लोगों की चिंताएं रोजगार और दैनिक संघर्ष पर ही जाकर रुक जाती हैं। हमें बरसों से यह सुनने में आ रहा है कि एक बार देश गरीबी के चक्रव्यूह से निकल जाए, औद्योगिक और आर्थिक विकास की सीढ़ी चढ़ ले, तो उसके बाद पर्यावरण भी साफ कर लेंगे। जलवायु बिगड़ने का सबसे बड़ा कारण भी यही मानसिकता रही है। हवा, पानी और मिट्टी-जंगल के सवाल राजनीति में गौण होते गए हैं। इनको उन लोगों की चिंता मान लिया जाता है, जो कि अपने आप में अव्यावहारिक हैं, और देश के विकास में बाधाएं डाल रहा हैं।
वर्तमान समय का सबसे बड़ा धर्म विकास बन चुका है। चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, उसकी चुनावी राजनीति किसी भी नारे पर चलती हो, विकास पर सर्वसम्मति है और इस विकास का मतलब भी एक ही है। असल में विकसित तो वही है, जो दूसरों से अधिक साधनों का उपयोग अथवा उपभोग कर सकने मे सक्षम है। जबकि इन साधनों का मूल्य तो अर्थशास्त्री ही तय करते हैं, उन मूल्यों को रोकड़े के गणित में तब्दील करते हैं। इसका असर सर्वव्यापी हो गया है। हमारे सारे मूल्य अर्थशास्त्र से ही आने लगे हैं। हर चीज का मूल्य मुद्रा के रूप में बिकाऊ होता है। जिन लोगों के सभी मूल्य बिकाऊ होते हैं, वे लोग भी बिकाऊ हो जाते हैं और यही है इस तथाकथित विकास की सच्चाई।
चूंकि यह एक सच्चाई कड़वी है, इसलिए इसकी चर्चा करना बड़ी असुविधाजनक होता है। अगर किसी मजबूरी में इसकी बात करनी ही पड़े, तो इसे एक आदर्शवादी जामा पहना दिया जाता है। और नैतिकता से अटे संदेश बांटे जाते हैं। एक बेहतर भविष्य का सपना बेचा जाता है। इस सपने में विकास के विकराल रूप को आकर्षक विशेषणों के साबुन से साफ किया जाता है। सतत विकास, हरित विकास, टिकाऊ विकास इन विशेषणों का उपयोग विकास के बिकाऊ मूल्यों को छिपाने के लिए किया जाता रहा है। किंतु नैतिकता की फटी चादर, विकास की हर अवधारणा का बाजारूपन हमेशा के लिए छिपा नहीं सकती। कोई-न-कोई रिपोर्ट इसके झूठ को उजागर कर ही देती है और करती भी रही है।
औद्योगिक क्रांति और आर्थिक विकास के इतिहास का सच नकारे बिना राजनीति की दाल तो गल ही नहीं सकती। असल में इस विकास की असलियत काफी डरावनी है। वनों को काटकर खनिज निकालना, पवित्र नदियों पर बांध बनाकर उनका पानी निचोड़ना, उनमें अपना अपशिष्ट पदार्थ डालना, खेतिहर जमीन को बंजर बनाना, वन्य प्राणियों को समूल मिटा देना, प्रकृति के साधनों को डकारकर विषैला कचरा पैदा करना इस विकास का स्वभाव शुरू से ही रहा है। ऐसे में जो देश इस विध्वंसक अमीरी को साध लेते हैं, वे तो खुद को साफ कर लेते हैं।
पिछले दो सौ सालों में इस औद्योगिक क्रांति के औजारों ने इसे इतना बढ़ा दिया है कि अब पर्यावरण का विनाश चारों और व्याप्त हो चुका है। उसका जहर हर सांस के साथ हमारे भीतर जाता है, भोजन के हर निवाले में भी उसी का विष समाया है। इसे ठीक करने में राजनीति को अपना कोई लाभ नहीं दिखाई देता। वह सिर्फ अगले चुनाव तक देख पाती है। सत्य और दूरदृष्टि की तो उसे कोई जरूरत नहीं लगती।
इसी कारण राजनीति में मोहनदास करमचंद गांधी को नैतिकता का प्रतीक बनाकर किनारे रखा जाता है। गांधी उन विरल लोगों में से थे, जिन्होंने यह खतरा बहुत पहले देख लिया था औद्योगिक विकास, साम्राज्यवाद और गुलामी का संबंध उन्होंने चालीस की उम्र तक ही समझ लिया था। उन्होंने वर्ष 1928 में कहा था, ईश्वर न करे कि भारत कभी पश्चिमी देशों के ढंग का औद्योगिक देश बने। एक अकेले इतने छोटे-से द्वीप (इंग्लैंड) का आर्थिक साम्राज्यवाद ही आज संसार को गुलाम बनाए हुए है। उस समय 30 करोड़ की आबादी वाला हमारा समूचा राष्ट्र भी अगर इसी प्रकार के आर्थिक शोषण में जुट गया, तो वह सारे संसार पर एक टिड्डी दल की भांति छा जाएगा और उसे तबाह कर देगा।
तीस करोड़ की जनसंख्या वाला देश आज 140 करोड़ की जनसंख्या का हो चुका है, जगकि इसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश की आबादी अलग है। ऐसे में, कोई अचरज नहीं कि आज दुनिया के 100 सबसे प्रदूषित हवा वाले नगरों में 83 भारत के हैं। यह भारत की छवि बिगाड़ने का षड्यंत्र मात्र ही नहीं है। यह भारत को बिगाड़ने का भी एक षड्यंत्र है और इसका नाम है विकास। जब तक इस विकराल राक्षस की असली सच्चाई नहीं स्वीकार की जाएगी, तब तक हम अपने आधार का विनाश करते ही रहेंगे। अतः कहा जा सकता है कि विकास ही आज का सबसे बड़ा अंधविश्वास है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।