अब सारा देश होली के रंग में रंगने के लिए तैयार है      Publish Date : 21/03/2024

                     अब सारा देश होली के रंग में रंगने के लिए तैयार है

                                                                                                                                                                                             डॉ0 आर. एस. सेंगर

अग्नि देवता को प्रणाम : रंगों का उल्लास

वैदिक संस्कृति में होली पर्व में सर्वप्रथम देवता ’अग्निदेव’ का नमन किया जाता है। धरती पर उपजे नए धान्य को ऐसे ही नहीं खाया जा सकता। जौ और गेहूं की बालियों को पहले अग्नि देवता को समर्पित किया जाता है। यजुर्वेद ने नव सस्य से पैदा हुए धान्य को ’वाज’ कहा है। होली पर अग्नि ज्वाला में वाज की आहुति देकर उन पकी हुई बालियों को प्रसाद रूप में ग्रहण करने की प्रथा है। वैदिक काल में जो होलिका हुआ करती थी, वह अब होली है। काठक-गृह्यसूत्र ने भी होली को स्त्रियों के सौभाग्य वृद्धि का एक अनुष्ठान माना है, जिसके अधिष्ठाता देवता चंद्रमा हैं।

                                                                          

वैदिक काल से लेकर आज तक होली ऋषियों और कृषकों द्वारा मनाई जाती रही है। गुरुकुल में वटुक फाल्गुनी पूर्णिमा को साम-गान, यानी सामवेद के मंत्रों का राग और ताल में गान करते थे। एक ओर गुरुकुलों में होली पर ’हुताशनी’ अनुष्ठान किया जाता है, तो वहीं दूसरी ओर नई फसल के आने पर किसान और आम नागरिक चटकीली होली खेलते हैं।

                                                                      

होली का साहित्यिक वर्णन सातवीं सदी के नाटककार और कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन ने अपने संस्कृत नाटक ’रत्नावली’ में किया है। वहां हो रही होली वसंतोत्सव है। एक सुंदर नगर है कौशांबी। वहां के राजा उदयन अपने किले की प्राचीर पर खड़े होकर प्रजा को होली खेलते हुए देख रहे हैं। राजमहल के भीतर होली यूं जमी है कि लोग पिचकारियों से एक-दूसरे पर सुगंधित जल डाल रहे हैं। हर्षवर्धन ने पिचकारी का संस्कृत नाम दिया है- ’श्रृंगक’।

प्राकृत में पहली शताब्दी में शालिवाहन द्वारा लिखी ’गाहा सतसई’ ने होली को वसंतोत्सव न कहकर फाल्गुनोत्सव का नाम दिया है। यहां फाल्गुनोत्सव में नदी किनारे इकट्ठे युवक-युवतियां एक-दूसरे पर बिना किसी भेदभाव के कीचड़ उछाल रहे हैं। गाहा सतसई की होली गांव की है, इसलिए गांवों के सारे संसाधन होली खेलने के काम आते हैं। डॉ. पांडुरंग वामन काणे ने धर्मशास्त्र के इतिहास में होली को बड़े उल्लास और आनंद का उत्सव माना है। होली को मनाने में पूरे देश में भिन्न-भिन्न मान्यताएं प्रचलित हैं। बंगाल को छोड़कर होलिका दहन प्रायः सर्वत्र होता है, जबकि बंगाल में फाल्गुन पूर्णिमा पर श्रीकृष्ण का झूला प्रसिद्ध है।

                                                                          

रंग खेलने की अवधि भी पूरे देश में अलग-अलग ही है। कहीं रंगीली बौछारें होली के अगले दिन बरसती हैं, तो कहीं पांचवें दिन, कहीं आठवें दिन और कहीं-कहीं तो यह पूरे पखवाड़े तक चलती है। इन सबके पीछे जो धार्मिक तत्व छिपा है, वह है पुरोहितों द्वारा होलिका पूजा और श्रीकृष्ण का गोपियों के साथ होली खेलना। संत मीरा की होली शील और संतोष का केसर घोलकर प्रेम की पिचकारी से भीगी है। मीरा होली के चार दिनों को असाधारण रूप से प्रकट करती हैं- ’फागुन के दिन चार रे, होली खेल मना रे।’ भले ही बदलता परिवेश इन रंगों को बदरंग करने पर तुला हुआ है, परंतु यह रंग तो ऐसा है, जिसको बिना आंखों वाले सूर भी आसानी से पहचानते हैं।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।