ग्रामीण भारत की स्कूली शिक्षा की चुनौतियाँ तथा उपलब्धियाँ      Publish Date : 05/05/2023

                                                             ग्रामीण भारत की स्कूली शिक्षा की चुनौतियाँ तथा उपलब्धियाँ

                                                                                                                                      डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

‘‘आधुनिक युग में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रभाव दुनिया के समस्त क्षेत्रों बढ़ता जा रहा है। हमारा शिक्षा जगत भी इससे अछूता नहीं हैं। अतः वर्तमान परिवेश में इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है, वरन हम इस क्षेत्र में दुनिया से पिछड़ सकते हैं। इसके लिए हमें शिक्षा-व्यवस्था में सुधार कर अध्यापक एवं शिक्षा को अपने विद्यार्थियों के लिए तैयार करना होगा। प्रस्तुत लेख में भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार से संबद्व विभिन्न आयोगों, समितियों, योजनाओं एवं कार्यक्रमों आदि की चर्चा की गई हैं। यदि इन सब में दिए गए सुझावों को दृढ़तापूर्वक लागू किया जाए तो अध्यापक, शिक्षा चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना किया जा सकेगा तथा यांग्य शिक्षकों को तैयार किया जा सकेगा, जो कि ग्रामीण भारत के शिक्षा क्षेत्र की शिक्षा में गुणवत्ता और इसके अनुकूल सुधार कार्य करने में सफल होगा’’।

                                                               

जैसा कि हम सभी इस तथ्य से भली प्रकार से परिचित हैं कि वर्तमान समय भी भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में ही निवास करती है। देश का विकास तभी है, जब हमारे ग्रामीण क्षेत्रों का समुचित विकास होगा। ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए हमें शिक्षा, विशेष रूप स्कूली शिक्षा को बढ़ावा देना होगा हालांकि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से ही भारत सरकार ने शिक्षा को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रयास किए हैं। वर्तमान समय में लबभब 15 लाख से अधिक विद्यालय देशभर में हैं जिनमें से लगभग 75 प्रतिशत विद्यालय, ग्रामीण क्षेत्रों में ही उपलब्ध हैं।

इन सभी विद्यालयों में 8,84,254 अध्यापक कार्यरत हैं, जिनमें से 64,65.920 अध्यापक ग्रामीण क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनकी गुणवत्ता एवं उपलब्धता को बढ़ाने के लिए भारत सरकार ने समय-समय पर आयोग व कमेटियां बैठाई हैं। बहुत से कार्यक्रम, नीतियां एवं योजनाएं बनाई गइ हैं जिनका विवरण प्रस्तुत लेख में किया जा रहा है।

विद्यालयी शिक्षा संबंधित नीतियां

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968, 1986) के अनुसार शिक्षकों के स्तर और शिक्षण प्रशिक्षण आदि में सुधार किया जाना चाहिए। शिक्षकों के वेतनमान बढ़ाए जाएं तथा उनकी सेवा शर्तों को भी आकर्षक बनाया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1983-1985) के अनुसार शिक्षकों की प्रतिष्ठा, कार्यदशा सुधारने एवं कल्याण हेतु शैक्षिक प्रशासकों और शिक्षकों को संगठित कर राष्ट्रीय वेतनमान दिया जाना चाहिए। शिक्षकों की भर्ती को संस्था-आधारित करते हुए स्थानांतरण की वर्तमान प्रणाली से भी बाहर निकालने की अरवश्यकता है। शिक्षक संगठनों की सहमति से शिक्षकों के लिए आचार-संहिता तैयार की जा सकती है। शिक्षण व्यवस्था की उच्चतर प्रतिष्ठा तथा मान्यता प्राप्त करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाना चाहिए।

                                                               

      यशपाल समिति की रिपोर्ट 1993 ‘‘शिक्षा बिना बोझ के’’ में अवगत कराया गया है कि शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों की कमी के कारण स्कूलों में शिक्षण की गुणवत्ता संतोषजनक नहीं है। इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों का पाठ्यक्रम स्कूल की बदलती परिस्थितियों के अनुकूल होना चाहिए। इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत इस बात पर बल देना चाहिए कि परीक्षार्थियों में स्वयं-अधिगम और स्वतंत्र-चिंतन की योग्यता का विकास किया जा सके।

       राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (2005-08) के अनुसार अध्यापक स्कूली प्रणाली के सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटक होते हैं। एक व्यवसाय के रूप में स्कूली शिक्षकों की प्रतिष्ठा बहाल किए जाने और योग्य तथा प्रतिबद्ध अध्यापकों को और अधिक प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है। शिक्षा के इतर सरकारी कार्य जैसे कि चुनाव संबंधी क्रिया-कलाप इस प्रकार सम्पन्न किए जाने चाहिए जिससे कि वह शिक्षण प्रक्रिया में कोई बाधा न बनें। स्कूली अध्यापकों की जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए पारदर्शी प्रणालियां होनी चाहिए। इसके साथ ही यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि योग्य अध्यापकों की सेवाएं प्राप्त की जाए और उन्हें प्रोत्साहित किया जाए जिससे कि वह और बेहतर ढंग से काम कर सकें।

      एनसीईआरटी के द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) के अनुसार बच्चा, सीखते हुए ज्ञान का सृजन करता है। इसका अर्थ है कि पाठ्यचर्या पाठ्यक्रम और पाठ्य पुस्तकें शिक्षक को इस बात के लिए सक्षम बनाएं कि वह बच्चों की प्रकृति और वातावरण के अनुरूप कक्षाएं अनुभव आयोजित करें ताकि सारे बच्चों को सीखने का अवसर प्राप्त हो पाए। योग्य एवं उत्साही शिक्षकों की उपलब्धता, जो अध्यापन को कैरियर के विकल्प के रूप में देखते हैं, स्कूलों के सभी वर्गों में गुणवत्ता की एक आवश्यक शर्त है। शिक्षा की कोई व्यवस्था अपने अध्यापकों की श्रेष्ठता से ऊपर नहीं उठ सकती और अध्यापकों की श्रेष्ठता उन्हें चुनने वाले अध्यापकों की श्रेष्ठता, उन्हें चुनने के साधन, प्रशिक्षण प्रक्रिया और  उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करने के लिए प्रयुक्त नीतियों पर निर्भर करती है।

ऐसे योग्य शिक्षक, अध्यापक शिक्षा के माध्यम से ही तैयार किए जा सकते हैं जो देश में विभिन्न विद्यालयों में प्राइमरी, मिडिल एवं सेकेंडरी-स्तर पर कार्यरत हैं, परंतु फिर भी सरकार के द्वारा इसकी गुणवत्ता बढ़ानें के लिए को समय-समय पर विभिन्न कदम उठाए गए हैं जैसे कि वर्ष 1993 में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (रा.अ.शि.प.) संवैधानिक रूप से पार्लियामेंट के एक्ट के द्वारा स्थापित की गई ताकि देश में अध्यापक शिक्षा के मापदंडों में मानकों के निर्धारण व रखरखाव द्वारा विभिन्न स्तर पर अच्छे और योग्य शिक्षक तैयार किए जा सकें। वर्ष 1998 में रा.अ.शि.प. ने अध्यापक शिक्षा पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार कीजिए शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रमों की चर्चा की गई है।

                                                           

शिक्षक शिक्षा के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या प्रारूप, 2009 के अनुसार हमें ऐसे शिक्षक चाहिए जो बच्चों का ख्याल रख सकें और उनकी देखरेख कर सकें। बच्चे भी उनके साथ रहना पसंद करें और शिक्षक बच्चों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील हों। शिक्षकों की भूमिका, ज्ञान प्रसारक के बजाए सूचना तथा ज्ञान सृजक के रूप में स्थापित किए जाने की अत्यन्त आवश्यकता है।

वर्मा कमीशन 2012 में शिक्षकों व अध्यापकों-शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार के लिए विभिन्न सुझाव दिए गए हैं। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा वर्ष 2014 में वर्मा कमीशन के मद्देनजर अध्यापक शिक्षा में बड़े बदलाव किए गए। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने ऐसे कुशल व योग्य अध्यापक बनाने के लिए 15 कोर्स बनाए, इनकी अवधि बढ़ाई और नवीन पाठ्यक्रम सुझाया। इन पाठ्यक्रमों के द्वारा प्राइमरी स्तर के अध्यापक विभिन्न संस्थानों द्वारा तैयार किए जा रहे हैं।

प्रमुख योजनाएं एवं कार्यक्रम

          भारत सरकार ने समय-समय पर स्कूली शिक्षा सुधारने हेतु शिक्षकों के लिए नई नई योजना बनाई ताकि शिक्षकों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा का सुधार हो सके। कुछ योजनाओं की चर्चा यहां पर की गई है-

- वर्ष 2017 में एन.सी.ई.आर.टी., नई दिल्ली में प्राथमिक-स्तर के विभिन्न विषयों में लर्निंग आउटकम तैयार कर उसे लगभग 40 लाख शिक्षकों तक पहुंचाया और उन्हें प्रशिक्षित किया ताकि वे अपनी भाषा में हर कक्षा में हर विषय में छात्रों को कितना और क्या ज्ञान होना चाहिए इसके बारे में सुनिश्चित कर सकें। अब सेकेंडरी स्तर के लर्निंग आउटकम तैयार किए जा रहे हैं।

- शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 में प्रशिक्षित अध्यापक को ही कार्य करने का अधिकार दिया गया। 14 लाख अध्यापक, जो प्रशिक्षित नहीं थे और देश के विभिन्न राज्यों के विद्यालयों में ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत थे, उनको वर्ष 2019 तक प्रशिक्षित किया जा रहा है। इस प्रयास में सभी विद्यालयों में प्रशिक्षित अध्यापक ही पढ़ा पाएंगे। यह कदम अंततः स्कूल शिक्षा की उपयोगिता एवं उसकी गुणवत्ता को ही बढ़ाएगा।

- मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने प्री-स्कूल से 12वीं कक्षा तक पूरी शिक्षा पर एक समग्र शिक्षा परियोजना को वर्ष 2018 में लागू किया। यह परियोजना स्कूलों में, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत अध्यापकों की उपलब्धता एवं गुणवत्ता को बढ़ाएगी। इस योजना को तीन योजनाओं से मिलाकर बनाया गया है। प्राइमरी-स्तर पर सर्व शिक्षा अभियान, सेकेंडरी-स्तर पर राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और अध्यापक शिक्षा को मिलाकर एक समग्र शिक्षा योजना बनाई गई है। यह योजना ग्रामीण क्षेत्र के अध्यापकों की गुणवत्ता को बढ़ाने के साथ-साथ स्कूली शिक्षा में भी सुधार लाएगी।

- मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा ‘‘स्वयं’’ प्लेटफार्म की शुरुआत की गई जिसमें 1000 से अधिक पाठ्यक्रम शुरू किए जा चुके हैं और 23 लाख से अधिक छात्र इसका लाभ उठा रहे हैं।

- मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने एन.सी.ई.आर.टी., नई दिल्ली के माध्यम से अगस्त, 2019 से अध्यापक प्रशिक्षण के लिए निष्ठा कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है जिसके अंतर्गत 42 लाख अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इस कार्यक्रम से अध्यापक को विभिन्न विषयों को पढ़ाने की नई नई विधियां, कला शिक्षा, जीवन के मूल्य, प्रौद्योगिकी का प्रयोग और मूल्यांकन की विधियां इत्यादि के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है।

‘‘राष्ट्रीय स्तर पर एन.सी.ई.आर.टी., रा.अ.शि.प. एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग- इन तीनों ही संस्थाओं का आपस में मेल नहीं है। इन तीनों संस्थानों का आपस में तालमेल स्थापित किए जाने की आवश्यकता है ताकि अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम की रूपरेखा सही दिशा में बने और अध्यापक शिक्षा के मुख्य बिंदुओं को सभी पाठ्यक्रमों प्रारूपों में दर्शाया जा सके।’’

स्कूली शिक्षा में उपलब्धियां

                                                         

ऊपर दी गई योजनाओं के अंतर्गत स्कूली शिक्षा में तुलनात्मक काफी सुधार आया है। ऐसी ही कुछ उपलब्धियों का वर्णन अग्रलिखित है-

- सभी विद्यार्थियों को विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत सुविधाएं प्रदान की गई है। छात्रवृत्तियां, पाठ्य-पुस्तकें, ड्रेस, मध्यान भोजन एवं अन्य सामग्री निशुल्क दी जा रही हैं। छात्रों को उनकी रुचि अनुसार शिक्षण एवं अन्य गतिविधियों में भागीदारी की सुविधा दी जा रही है ताकि आर्थिक कारणों से पढ़ाई में कोई बाधा न आए। शिक्षण व अन्य गतिविधियों में भागीदारी की सुविधा दी जा रही है। अब मूल्यांकन के लिए ग्रेडिंग पद्धति लागू की गई है। शिक्षा में अब नए-नए तरीकों का प्रयोग किया जा रहा है। इन सभी प्रयोगों से विभिन्न-स्तरों में पढ़ रहे स्कूलों के विद्यार्थियों के परीक्षा फल के प्रतिशत में काफी सुधार हुआ।

- वर्ष 1951 में देश में पहली कक्षा से 12वीं कक्षा तक के केवल 2,30,700 स्कूल थे, जो वर्ष 2019 में बढ़कर 15 लाख हो गए। इस प्रकार इन सत्तर वर्षों में स्कूलों की संख्या में सात गुना वृद्धि हुई है। इनमें से अधिकतर विद्यालय ग्रामीण क्षेत्र में ही खोले गए हैं।

- वर्ष 2016-17 मैं बच्चों के ग्रोस एनरोलमेंट त्ंजपव प्राइमरी में 95 प्रतिशत, मिडिल में 90.7 प्रतिशत, सेकेंडरी में 79.3 प्रतिशत और हायर सेकेंडरी में 51.5 प्रतिशत है, जो कि पहले के वर्षों की तुलना में कई गुना अधिक है।

- इन विद्यालयों में आज 25 करोड़ बच्चे प्राइमरी, मिडिल व सेकेंडरी स्तर की शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं जो कि वर्ष 1951 की तुलना में 10 गुना अधिक है। वर्ष 1951 में लगभग 2.40 करोड बच्चे ही पढ़ते थे।

- वर्ष 1951 में प्राइमरी-स्तर पर 83.5 प्रतिशत, मिडिल-स्तर पर 51.6 प्रतिशत एवं सेकेंडरी स्तर पर 73.33 प्रतिशत बच्चे शिक्षा पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ जाते थे, जो कि अब घटकर प्राइमरी-स्तर पर 4.13 प्रतिशत, मिडिल-स्तर पर 4.03 प्रतिशत और सेकेंडरी-स्तर पर 17.06 प्रतिशत रह गया है।

स्कूल में अध्यापक शिक्षा की चुनिंदा समस्याएं एवं चुनौतियां

इन सभी प्रयासों के बावजूद स्कूली शिक्षा में उपेक्षित गुणात्मक विकास नहीं हो पाया है क्योंकि स्कूली शिक्षा और अध्यापक शिक्षा में तालमेल की कमी रही है। इस तालमेल से संबंधित कुछ चुनौतियां एवं समस्याओं का विवरण इस प्रकार से है-

- वर्तमान में शिक्षकों से गैर-शैक्षिक कार्य जैसे कि दोपहर का भोजन तैयार कराना, चुनाव के कार्य करना, बच्चों को पोलियो की दवा पिलाना, जनगणना की जिम्मेदारी देना, प्रशासनिक कार्य कराना इत्यादि कार्य कराए जाते हैं, जो कि अंततः शैक्षिक कार्य में बाधा ही उत्पन्न करते हैं। शिक्षकों से केवल शैक्षिक कार्य ही कराएं जाने चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के मसौदे में शिक्षकों को शैक्षिक कार्य ही करने दिए जाने की सिफारिश की गई है। अध्यापक शिक्षा के सभी कोर्सो में उनके पाठ्यक्रम में इन मुद्दों को शामिल किया जाना चाहिए।

- वर्तमान में विद्यालयों में 10 लाख अध्यापकों के पद खाली पड़े हैं, यह ज्यादातर ग्रामीण विद्यालय के ही हैं। इन विद्यालयों में कई जगह अध्यापकों और बच्चों का अनुपात 60.1 है। ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां अध्यापकों की कमी है वहां पर हिंदी के अध्यापक ही गणित पढ़ा रहे हैं। यहां पर अनिवार्य सुविधाओं की भी भारी कमी है। इसके अतिरिक्त एक लाख बीस हजार ऐसे विद्यालय हैं जहां केवल एक ही अध्यापक कार्य कर रहा है। यह विद्यालय अधिकांशतः प्राथमिक-स्तर के हैं और ग्रामीण क्षेत्र से आते है।ं इस प्रकार सभी राज्य में सरकार द्वारा अध्यापकों की नियुक्ति की जाए ताकि ग्रामीण क्षेत्र में भी बच्चे को गुणवत्तापूर्वक शिक्षा प्रदान की जा सकें।

- प्रयोगात्मक और प्रदर्शनात्मक विद्यालय भी नहीं है। प्रयोगशाला भी नहीं है, और विद्यालयों में पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध नहीं है। साथ ही, बालको में जागरूकता का अभाव है। शिक्षा के अधिकार कानून 2009 लागू होते हुए भी सभी गरीब बच्चों को शिक्षा का अधिकार नहीं मिल पा रहा है। इसके लिए शिक्षा का अधिकार कानून को सही रूप में क्रियान्वित किया जाना चाहिए और इसमें पाई जाने वाली कमियों को दूर किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त, इसको अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए ताकि भावी शिक्षकों को शुरू से ही इस अधिनियम के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।

- शिक्षा को बाल- केंद्रित रूप प्रदान करने की सकारात्मक पहल की जा रही है। बावजूद इसके हमारे इस प्रयास के अनुरूप हमें अधिक सफलता प्राप्त नही हुई है। इसके लिए हमें अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रमों में व्यापक बदलाव करना होगा और उसे अधिक व्यवहारिक एवं कौशलपूर्ण बनाना होगा। विद्याार्थियों को छोटे-छोटे क्रियाकलापों एवं प्रयोगों की स्वतंत्रता तथा सुविधा प्राप्त होनी चाहिए ताकि वे अपने स्वयं के अनुभवों के माध्यम से सीख सकें और रचनात्मक, क्रियाशील एवं सृजनशील अध्यापक बन सकें।

- भारत सरकार ने केंद्र की सहायता से अध्यापक शिक्षा योजना के अंतर्गत सभी राज्य में लगभग 650 जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान, 104 शिक्षा महाविद्यालय तथा 31 उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान स्थापित किए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अनुसार यह संस्थान अध्यापक शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने में सहायक सिद्ध होंगे और अध्यापकों को सेवा पूर्व में सेवाकालीन प्रशिक्षण निरंतर रूप से प्रदान करेंगे। परंतु यह संस्थान जिन उद्देश्यों के लिए बने थे, वे उन्हें पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इनमें से अधिकतर संस्थान तो केवल सेवापूर्व अध्यापक प्रशिक्षण ही प्रदान कर रहे हैं और उन्होंने केवल अपने संस्थानों का नाम ही बदला है। इन संस्थानों में शोध का कार्य न के बराबर है। इन योजनाओं को वित्तीय सहायता देने के बावजूद कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। इस योजना की समीक्षा वह पुनर्विचार की आवश्यकता है ताकि सभी संस्थान निर्धारित उद्देश्य के अंतर्गत कार्य कर सकें और अध्यापक शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण सुधार ला सकें।

- रा.अ.शि.प. ने वर्ष 2014 में अध्यापक तैयार करने के लिए 15 कोर्स बनाए हैं जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के द्वारा चलाए जा रहे हैं और विभिन्न-स्तर के अध्यापक तैयार किए जा रहे हैं। परंतु इन सभी प्रारूपों में सिद्धांत और अभ्यास एकीकृत नही हैं।ं इसके साथ विषय-वस्तु व शिक्षा शास्त्र का भी एकीकरण नहीं हैं। पाठ्यक्रम में सूचना तथा संचार प्रौद्योगिकी (आई.सी.टी.) का प्रयोग भी नहीं के बराबर है। इन सभी मुद्दों का अनुसंधान व शोध के माध्यम से हल ढूंढना चाहिए ताकि इन कार्यक्रमों से मनन-शील शिक्षक तैयार हो सके।

- अध्यापक शिक्षा का विद्यालय शिक्षा का आपस में तालमेल नहीं है। सेवा पूर्व अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों व अध्यापकों की आवश्यकताओं के बारे में बहुत कम चर्चा की गई है। सेवा-पूर्व अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम को राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार बदला जाना चाहिए ताकि दोनों कार्यक्रमों में सामंजस्य स्थापित हो सके और विद्यार्थियों की आवश्यकता अनुसार अध्यापक शिक्षा को एक नया दृष्टिकोण दिया जा सके।

- अध्यापक शिक्षा के आंकड़ों के लिए कोई समुचित प्रबन्ध व्यवस्था नहीं है। इसके बिना अध्यापकों की संख्या, पाठ्यक्रम की स्थिति पठन-पाठन की विभिन्न विधियां, मूल्यांकन विधियां एवं अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में जानकारी कहीं एक जगह उपलब्ध नहीं है। बिना आंकड़ों के, आवश्यकता अनुसार अध्यापक शिक्षा में कार्यक्रम तैयार करने में कठिनाई महसूस की जाती है। आधुनिक तकनीकी के प्रयोग द्वारा सूचनार्थ व्यवस्था तैयार की जानी चाहिए जिससे सभी स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों आदि का आपस में तालमेल हो और ऐसी सुविधा हो कि अध्यापक शिक्षा से संबंधित सभी आंकड़े एक जगह उपलब्ध हो सके और नेटवर्क तथा संपर्क व्यवस्था बनाई जाए। अध्यापक शिक्षा में इन व्यवस्थाओं के आधार पर समय-समय पर नए कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए।

- अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम की रूपरेखाः राष्ट्रीय स्तर पर एन.सी.ई.आर.टी., रा.अ.शि.प. एवं  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग- इन तीनों संस्थाओं का आपस में तालमेल नहीं है। इन तीनों संस्थानों का आपस में तालमेल बनाए जाने की आवश्यकता है ताकि अध्यापक शिक्षा के पाठ्यक्रम की रूपरेखा सही दिशा में बने और अध्यापक शिक्षा के मुख्य बिंदुओं को सभी पाठ्यक्रमों प्रारूपों में दर्शाया जा सके।

- सेवाकालीन शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए कोई स्थाई योजना नहीं है जिससे कि अध्यापकों को प्रशिक्षण लगातार सुचारू रूप से दिया जा सके। हालांकि, इसके लिए भारत सरकार के द्वारा कई योजनाएं बनाई गई हैं और इनमें से कुछ योजनाओं की प्रस्तुत लेख में चर्चा भी की गई है। परंतु अधिकतर प्रशिक्षण कार्यक्रम तदर्थ रूप से आयोजित किए जाते हैं। इससे सभी अध्यापकों को आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। सेवारत अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए एक योजना बनाई जानी चाहिए जिसके तहत सभी प्राध्यापकों को सुचारू संगठित रूप से समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जा सके ताकि वह व्यवसायिक रूप से योग्य बन सके।

- अधिकतर प्रशिक्षण कार्यक्रमों में प्रायः हैं आमने-सामने (Face to Face) प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है जिसमें एक समय में बहुत कम अध्यापकों को प्रशिक्षण मिल पाता है। साथ ही, इस प्रकार के प्रशिक्षण कई स्तरों पर आयोजित किए जाते हैं। परंतु कई स्तरों पर प्रशिक्षणों में सूचनाएं एवं ज्ञान कई बार गलत ढंग से प्रस्तुत हो जाते हैं। इसलिए अध्यापक प्रशिक्षण में दूरस्थ विधि का भी प्रयोग करना चाहिए ताकि इस विधि के द्वारा अधिक संख्या में अध्यापकों एवं प्राध्यापकों को प्रशिक्षण प्रदान किया जा सके। साथ ही, विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण की आवश्यकता भी नहीं होगी और सभी केंद्रों पर एक जैसा प्रशिक्षण ही दिया जा सकेगा। इस माध्यम के लिए टेली कॉन्फ्रेंसिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का भी सफल प्रयोग किया जा सकता है। एन.सी.ई.आर.टी., के द्वारा विभिन्न राज्यों के अध्यापकों व प्राध्यापकों के लिए वर्ष 1996 से अब तक इसके माध्यम से प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया जा रहे हैं। इस प्रणाली का प्रयोग व्यापक रूप से देश के सभी प्रदेशों एवं संस्थानों द्वारा किया जाना चाहिए।

- राष्ट्रीय व राज्य स्तर के संस्थानों में विभिन्न प्रकार की प्रशिक्षण सामग्री उपलब्ध है, परंतु यह सामग्री इन संस्थानों तक ही रह जाती हैं और यह उन स्कूलों में संस्थानों तक नहीं पहुंच पाती जो देश के दुर्गम ग्रामीण क्षेत्र में स्थित हैं। इस प्रकार की सामग्री को देश के दूर-दूर तक बसे सभी संस्थानों में भेजा जाना चाहिए और एक ऐसी योजना बनाई जानी चाहिए जो सुचारू रूप से कार्य करें जिससे कि सभी संस्थानों को शिक्षण व प्रशिक्षण सामग्री उपलब्ध हो सके। इससे अध्यापकों व विद्यार्थियों को आशातीत लाभ प्राप्त होगा।

- प्रायः अध्यापक शिक्षा के अनुसंधान में नए प्रयोगों का योजनाबद्ध तरीके से प्रचलन नहीं है और उन्हें इसके लिए उचित प्रोत्साहन भी नहीं दिया जा रहा है। अध्यापक शिक्षा में नए नए प्रयोग किए जाने चाहिए ताकि शिक्षा जगत से जुड़ी समस्याओं का समाधान किया जा सके और समय-समय पर शैक्षिक प्रक्रिया में सुधार भी लाया लाया जा सके। साथ ही, अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों के सतत मूल्यांकन की भी आवश्यकता है जिससे कि सेवा-पूर्व एवं सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रक्रिया में निरंतर सुधार प्रक्रिया जारी रहे।

सेवाकालीन प्रशिक्षण के बाद प्रशिक्षण के प्रभाव का अध्ययन भी किया जाना आवश्यक है और देखा जाना चाहिए कि प्रशिक्षण से स्कूली प्रक्रिया में कुछ सुधार हुआ या नहीं। शिक्षक शिक्षा कार्यक्रम को इस प्रकार से बनाए जाने की आवश्यकता है कि वह स्कूल पाठ्यचर्या नवीकरण की प्रक्रिया और अपने क्षेत्र विशेष के संदर्भ में प्रासंगिक हो सके।

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि समय-समय पर विभिन्न आयोगों, समितियों, योजनाओं एवं कार्यक्रमों की चर्चा प्रस्तुत लेख में की गई है। इनमें दिए गए सुझावों को दृढ़ता पूर्वक लागू किया जाए तो अध्यापक शिक्षा की चुनौतियों का सामना किया जा सकेगा और योग्य शिक्षक तैयार होंगे जो ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा में सुधार में गुणवत्ता लाएंगे। साथ ही, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का प्रभाव दुनिया में सभी क्षेत्रों में बढ़ता जा रहा है, शिक्षा जगत इससे अछूता नहीं रह सकता।

अतः इसकी और ध्यान देने की आवश्यकता है, नहीं तो हम दुनिया से पिछड़ जाएंगे इसके लिए हमें अपनी व्यवस्था में सुधार कर अध्यापक शिक्षा और शिक्षा को हेतु तैयार करना होगा। साथ ही, उपर्युक्त विभिन्न सुझावों के क्रियान्वयन के लिए एक योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाया जाना चाहिए जिससे कि अध्यापक शिक्षा व स्कूली शिक्षा की समस्याओं व चुनौतियों का हल निकाला जा सके। इन प्रयोगों से विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य व कुशल अध्यापकों की उपलब्धता होगी और शिक्षा का भी इन क्षेत्रों में सुधार होगा।

लेखकः प्रोफेसर आर एस सेंगरविभागाध्यक्ष एवं निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेर