लो हेड अर्थात ड्रिप सिंचाई और प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग कैसे करें Publish Date : 01/05/2024
लो हेड अर्थात ड्रिप सिंचाई और प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग कैसे करें
डॉ0 आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 वर्षा रानी
ड्रिप सिंचाई अर्थात कम दबाव (लो हेड) के साथ प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग-
ड्रिप सिंचाई प्रणाली एक प्रकार की सिंचाई प्रणाली होती है जिसके अन्तर्गतं पानी को छोटी-छोटी ट्यूबों एवं विभिन्न उत्सर्जकों के माध्यम से सीधे पौधों की जड़ों तक पहुंचाया जाता है, जिससे पानी का सटीक और कुशल उपयोग सुनिश्चित होता है, बर्बादी कम होती है और पौधों के इष्टतम विकास को बढ़ावा भी मिलता है। जैसा कि हम जानते हैं कि विश्व की लगभग 17 प्रतिशत जनसंख्या भारत में निवास करती है।
इस बड़ी आबादी को केवल 2.4 प्रतिशत उपलब्ध भूमि से भोजन प्रदान करना एक चुनौति है, और अपने पास उपलब्ध इस भूमि में से केवल 21 प्रतिशत भूमि ही सिंचित है और 43 प्रतिशत भूमि पर खेती की जाती है। इसके अलावा, भारत के पास दुनिया का केवल 4 प्रतिशत पानी उपलब्ध है। भारत की वर्षा अनियमित है, भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है। सिंचाई एक प्रमुख इनपुट है, जो कृषि में पानी और ऊर्जा के बड़े हिस्से की खपत करता है।
अपनी उपलब्धता में से लगभग 60 से 70 प्रतिशत पानी और ऊर्जा का उपयोग सिंचाई करने में ही करते है। उक्त दोनों ही संसाधन दिन-प्रति-दिन कम होते जा रहे हैं। अल्प विकसित और विकासशील देशों में कृषि के विकास में यह एक बड़ी बाधा बन गई है। कृषि को टिकाऊ बनाने और जल-खाद्य-ऊर्जा सुरक्षा संबंधों पर निर्भरता कम करने के लिए सिंचाई की नवीनतम तकनीकी प्रदान करना वर्तमान समय की मांग है।
ड्रिप सिंचाई के साथ प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग करने का महत्व
उर्वरकों का प्रयोग –
उर्वरकों को यंत्रवत् तथा सीधे ही हाथ से भी दिया जा सकता हैं। कुछ प्लास्टिक बिछाने वाले उपकरण, बेड बनाते समय प्लास्टिक बिछाने से पहले, मिट्टी की तैयारी के दौरान उर्वरक दिया जा सकता है। मल्च स्थापित होने के बाद पानी में घुलनशील उर्वरकों को ड्रिप सिंचाई प्रणाली के माध्यम से दिया जा सकता है।
खरपतवार का प्रभावी प्रबंधन –
प्लास्टिक मल्चिंग सूरज की रोशनी को मिट्टी तक पहुंचने से रोकता है जो अधिकांश वार्षिक और बारहमासी खरपतवारों को रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। प्लास्टिक, खरपतवार की वृद्धि को रोकता है। पौधों के लिए प्लास्टिक में बनाए गए छेद ही खरपतवारों के पनपने का एकमात्र रास्ता होता है। ड्रिप सिंचाई के उपयोग से खरपतवारों की वृद्धि को भी काफी हद तक कम किया जा सकता है क्योंकि यह सीधे पौधों के जड़ क्षेत्र तक ही पानी को पहुंचाता है।
मृदा की नमी का प्रबन्धन –
प्लास्टिक का मल्च वाष्पीकरण के कारण मिट्टी से नष्ट होने वाले पानी की मात्रा को कम करता है। इसका मतलब है कि सिंचाई के लिए कम पानी की आवश्यकता होगी और इसीलिए ड्रिप सिंचाई को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। प्लास्टिक मल्चिंग से मिट्टी में उपलब्ध नमी को समान रूप से वितरित करने में भी सहायता मिलती है जिससे पौधों पर से तनाव कम हो जाता है। प्लास्टिक मल्चिंग प्रकाश संश्लेषण में बाधा उत्पन्न करती है और अन्य पौधों के विकास को भी बाधित करती है।
मिट्टी के तापमान का नियमन –
प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग करने से मिट्टी के तापमान में परिवर्तन होता है। मिट्टी पर लगाए गए गहरे रंग के मल्च और साफ मल्च सूरज की रोशनी को रोकते हैं, जिससे मिट्टी गर्म हो जाती है, जिससे रोपण जल्दी हो जाता है और साथ ही बदलते मौसम की शुरुआत में तेजी से विकास को बढ़ावा मिलता है। सफेद रंग का मल्च सूर्य की गर्मी को परावर्तित करके मिट्टी के तापमान को प्रभावी ढंग से कम कर देता है। मिट्टी के तापमान में आई यह कमी गर्मियों में पौधों को स्थापित होने में काफी सहायता करती है।
फसल की गुणवत्ता में इजाफा –
गुणवत्तापूर्ण फसलों के उत्पादन में ड्रिप सिंचाई बहुत विश्वसनीय पाई गई है। दूसरी ओर प्लास्टिक मल्चिंग फलों को मिट्टी से दूर पकाते हैं और इससे फलों के खराब होने की सम्भावनाएं कम होती हैं। इससे मिट्टी के साथ संपर्क कम होने से फलों का सडऩा भी कम हो जाता है और इसके साथ ही फल और सब्जियां अधिक साफ रहते हैं।
मिट्टी को हवादार बनाना –
मिट्टी को ढंकने वाली प्लास्टिक बारिश और सूरज की रोशनी के प्रभाव को अपेक्षित रूप से कम कर देती है। खरपतवार की मात्रा में कमी का मतलब है कि यांत्रिक खेती की आवश्यकता में कमी होना। प्लास्टिक मल्चिंग की गई की क्यारियों के बीच खरपतवार नियंत्रण सीधे शाकनाशियों का उपयोग करके और यांत्रिक तरीकों से किया जा सकता है। प्लास्टिक मल्च के नीचे की मिट्टी ढीली और अच्छी तरह हवादार रहती है। इससे मिट्टी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है और सूक्ष्मजीवी गतिविधि को बढ़ावा देने में सहायता मिलती है।
जड़ में होने वाली क्षति में उल्लेखनीय कमी –
प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग करने से पौधे के चारों ओर व्यावहारिक रूप से एक खरपतवार मुक्त क्षेत्र बन जाता है, जिससे प्लास्टिक मल्च की पंक्तियों को छोड़कर खेत की जुताई करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। इसलिए खेती से जुड़ी जड़ों की क्षति की समस्या भी समाप्त हो जाती है। इन कारकों के कारण, प्लास्टिक मल्च के उपयोग से पौधे की समग्र वृद्धि में सुधार होता है। इसके अलावा ड्रिप सिंचाई का उपयोग बहुत फायदेमंद है क्योंकि यह जड़ों को स्वस्थ बनाकर वहां की मिट्टी के कटाव को भी रोकता है।
लो हेड ड्रिप सिंचाई से प्राप्त लाभ
- किसानों को प्राप्त लाभ, कम पूंजी की आवश्यकता और निवेश करने पर उसका त्वरित रिटर्न।
- सिस्टम बहुत कम दबाव (0.1 किग्रा/सेमी2) के आधार पर संचालित होता है।
- पारंपरिक और अनियमित ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता कम होने लगती है।
- पानी को 1 मीटर ऊंचे और एक साधारण होल्डिंग टैंक में संग्रहित किया जा सकता है।
- उर्वरकों को सीधे टैंक में घोला जा सकता है जिससे अलग-अलग उर्वरक एवं इंजेक्टरों पर आने वाली लागत में भी बचत हो जाती है।
- होल्डिंग टैंक में उर्वरक डालने से पहले पानी को पहले से फ़िल्टर किया जाना चाहिए। यह उच्च दबाव वाले निस्पंदन को बचाता है और निस्पंदन प्रक्रिया के दौरान होने वाले नुकसान को भी कम करता है।
रखरखाव करना बहुत आसान –
- एसिड/क्लोरीन को सीधे होल्डिंग टैंक में मिलाकर रखरखाव कार्यक्रम के अनुसार इंजेक्ट किया जाना बहुत आवश्यक है।
- कम डिस्चार्ज वाले ड्रिपर्स बेहतर वायु-जल का संतुलन बनाए रखते हैं जिसके परिणामस्वरूप पौधों का एक समान विकास सुनिश्चित् होता है।
- लंबे समय तक पानी का धीमा प्रयोग करने से भी मिट्टी में बेहतर नमी देता है जिससे उच्च विकास दर और उपज होती है।
- बड़े टैंक लम्बे समय तक काम करते हैं, और कम जनशक्ति की आवश्यकता होती है इससे श्रमिकों पर आने वाले व्यय में कमी आती है।
- किसान, जो संसाधनों से वंचित हैं, तकनीकी हस्तक्षेप का लाभ पाने में असमर्थ हैं, अब वह भी ड्रिप सिंचाई तकनीक का लाभ उठा सकते हैं।
- नहर कमांड क्षेत्रों के किसान भी इसका लाभ उठा सकते हैं।
- ड्रिप सिस्टम को सौर ऊर्जा संचालित पंपों का उपयोग करके कुशलतापूर्वक संचालित किया जा सकता है।
पानी की टंकी को किसी अन्य साधन जैसे पैडल पंप, नहर से साइफन आदि का उपयोग करके भी भरा जा सकता है। चूंकि टैंक की ऊंचाई कम है, इसलिए होल्डिंग टैंक में पानी पहुंचाना भी आसान होता है।
ड्रिप सिंचाई प्रणाली की आवश्यकता क्यों?
ड्रिप सिंचाई प्रौद्योगिकी में इस ज्वलंत समस्या से निपटने की क्षमता है। यह सिद्ध है कि ड्रिप सिंचाई से पानी बचाने और फसल की पैदावार में वृद्धि करने में मदद मिलती है। ड्रिप सिंचाई को संचालित करने के लिए कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है, फिर भी कुछ हिस्सों/खंड में इसे (ड्रिप सिंचाई) नहीं अपना पा रहे हैं। ड्रिप सिंचाई प्रणाली को दबावयुक्त सिंचाई प्रणाली माना जाता है। पाइप वितरण नेटवर्क के माध्यम से खेत के प्रत्येक कोने तक पानी पहुंचाने के लिए दबाव की आवश्यकता होती है जिसमें ड्रिप ट्यूबिंग/इनलाइन, उप-मुख्य लाइन और मेनलाइन आदि शामिल होती है।
ड्रिप सिंचाई में उपयोग किए जाने वाले सहायक उपकरण जैसे फिल्टर, उर्वरक इंजेक्टर, मेनलाइन, सब-मेन और ड्रिप ट्यूबिंग या तो घर्षण के कारण या फिल्टर और फिटिंग में रुकावट के कारण दबाव में कमी का कारण बनते हैं। इसलिए पंप को इन नुकसानों से उबरने के लिए अतिरिक्त दबाव उत्पन्न करना पड़ता है। इसलिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली को कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए एक दबावयुक्त पंपिंग प्रणाली की आवश्यकता होती है। यदि ड्रिप सिंचाई को संचालित करने के लिए आवश्यक दबाव कम कर दिया जाए तो ऊर्जा की बचत संभव है।
क्या कम दबाव पर ड्रिप सिंचाई प्रणाली संचालित करना संभव है?
पारंपरिक ड्रिप प्रणाली के लिए उच्च परिचालन दबाव की आवश्यकता होती है, ताकि उच्च दबाव में पानी ड्रिपर के जिग-ज़ैग भूलभुलैया के अंदर कणों/मलबे/नमक के जमाव आदि से बचा जा सके। किसी भी कंपनी के ड्रिप पाइप, सिस्टम को कम दबाव पर संचालित करने में मदद करते हैं।
ड्रिपर्स (इनलाइन या ऑनलाइन) को इस तरह से डिज़ाइन किया जाता है कि ड्रिप सिस्टम में प्रवेश करने वाले छोटे गंदें कण प्रवाह को अवरुद्ध नहीं कर पाते हैं और चिपचिपे शैवालों का रेशा भी आसानी से निकल ज़ाता हैं। ड्रिप सिंचाई प्रणाली को 0.1 किग्रा/सेमी2 के कम दबाव पर आसानी से संचालित किया जा सकता हैं। कम दबाव पर ड्रिप सिंचाई प्रणाली संचालित करने के लिए सबसे पहले पानी की टंकी जिसकी औसत ऊंचाई 1 मीटर होनी चाहिए।
महत्वपूर्ण बिंदु
हाल के वर्षों में कृषि में प्लास्टिक मल्चिंग का उपयोग काफी बढ़ चुका है। यह मिट्टी के तापमान में वृद्धि, नमी संरक्षण, मिट्टी के पोषक तत्वों का अधिक कुशल उपयोग, कुछ कीटों में कमी, खरपतवार के दबाव में कमी और बेहतर गुणवत्ता के साथ उच्च फसल पैदावार जैसे अनेक लाभों का कारण भी बनता है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।