गन्ने की वैज्ञानिक विधि से Publish Date : 07/04/2023
गन्ने की वैज्ञानिक विधि से
डॉ आर ऐस सेंगर 1 एवं कृशानु 2
1 प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष 2 शोध छात्र
सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रोद्योगिक विश्विद्यालय मेरठ २५०११०
विश्व में गन्ना उत्पादन करने वाले देशों में भारत प्रथम स्थान पर हैं विश्व के कुल गन्ना उत्पादन में भारत का योगदान 13.3 प्रतिशत है, जबकि एशियाई देशों में 41.1 प्रतिशत है। वर्तमान में हमारे देश में 300 मिलियन टन गन्ना उगाकर 18.9 मिलियन टन चीनी का उत्पादन किया जा रहा है। देश में गन्ने की औसत उत्पादकता लगभग 65 टन प्रति हैक्टेयर है जबकि दक्षिण भारत में गन्ने की उत्पादकता 80.100 टन प्रति हैक्टेयर रहती है। गन्ने का प्रयोग गुड़ए शक्कर व चीनी के अलावा इथेनाल, औषधियों, कागज, शराब एवं अन्य पेय पदार्थो, कार्बनिक खादोंए पेंट एवं सह.विद्युत उत्पादन में भी किया जाता है। गन्ने का अंगोला पषुओं के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है।
गन्ना एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है। भारत में शर्करा वाली फसलों में गन्ने की खेती प्रमुख रूप से की जाती है। हमारे देश में गन्ने की खेती लगभग 41.8 लाख हैक्टेयर भूमि में होती है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, हरियाणा, उत्तराखण्ड़ और बिहार प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य है। देश के कई राज्यों में गन्ना किसानों की आय के लिए एक महत्वपूर्ण नकदी फसल बन चुकी है। भविष्य में घरेलू आवश्कताओं को पूरा करने और चीनी की कीमतों को बढ़ने से रोकने के लिए चीनी का उत्पादन बढ़ाना नितान्त आवष्यक है अन्यथा जो भारत देश अब तक चीनी के मामले में आत्मनिर्भरता के साथ ही निर्यातक भी था। वह भविष्य में दूसरे देशों के आयात पर निर्भर रहने वाला देश बन कर रह जाएगा। अतः सुनियोजित ढंग से गन्ने की फसल में खाद, उर्वरक, सिंचाई व नवीनतम तकनीकी का प्रयोग किया जाये तो गन्ने का अधिक से अधिक उत्पादन लेकर भरपूर लाभ कमाया जा सकता है।
जलवायु: हमारे देश में गन्ने की खेती विभिन्न जलवायु क्षेत्रों एवं परिस्थितियों के साथ.साथ विभिन्न ऋतुओं में की जाती है। गन्ना एक उष्ण कटिबंधीय पौधा है। गन्ने की अच्छी वृद्धि व विकास के लिए साधारणतया अधिक आर्द्रता, अधिक तापमान एवं चमकीली धूप आवश्यक है। गन्ने में अधिक शर्करा निर्माण के लिए ठंडी एवं शुष्क जलवायु भी आवश्यक है। गन्ना उपोष्ण जलवायु परिस्थितियों में कारण शरदकालीन, बसन्तकालीन एवं ग्रीष्मकालीन मौसमों में ज्यादा प्रचलित है। गन्ने के अच्छे विकास के लिए आमतौर पर 25.35 सेन्टीग्रेड तापमान उत्तम होता है।
खेत की तैयारीरू गन्ने की फसल खेत में वर्ष भर रहती है। अतः खेत की तैयारी ऐसी करनी चाहिए कि काफी गहराई तक मिट्टी भुरभुरी हो जाये। इसके लिए पलेवा करने के बाद जैसे ही खेत जुताई की दशा में आये तो प्रथम जुताई 9 इंच की गहराई पर मिट्टी पलटने वाले हल या हैरो से करनी चाहिए। इसके बाद तीन.चार जुताईयां कल्टीवेटर से करें। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगायें जिससे खेत को भुरभुरा एवं समतल करने में मदद मिलती है।
बुवाई का समय: हमारे देश में गन्ने की बुवाई सामान्यत: वर्ष में चार बार की जाती है।
बसन्तकालीन बुवाई: बसन्तकालीन गन्ने की बुवाई 15 फरवरी से मार्च के अन्त तक ही की जाती है। जबकि पूर्वी भारत में बुवाई 15 जनवरी से फरवरी के अन्त तक करते है।
ग्रीष्मकालीन बुवाई: ग्रीष्मकालीन गन्ने की बुवाई सामान्यत: उत्तर.पश्चिम भारत में गेहूं की कटाई उपरान्त 1 अप्रैल से 15 मई तक की जाती है। वैसे इस समय बोये गये गन्ने का अंकुरण शीघ्र व बढ़वार अच्छी होती है।
वर्षाकालीन बुवाई: वर्षा.कालीन गन्ने की बुवाई जून से अगस्त माह के मध्य तक की जाती है, यह गन्ना महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश एवं कर्नाटक आदि राज्यों में बोया जाता है। इस फसल की अवधि 18 महीने की होती है। कटाई दूसरे वर्ष दिसम्बर से जनवरी माह तक की जाती है।
शरदकालीन बुवाई: अक्टूबर माह में बोये गन्ने को शरदकालीन गन्ना कहते है। वर्षा ऋतु के बाद उचित नमी व तापमान ;25 से 30 डिग्री सेन्टीग्रेडए मिलने से इस समय बोये गन्ने का अंकुरण अच्छा होता है। शरदकालीन बुवाई बिहार में ज्यादा प्रचलित है।
उन्नतशील प्रजातियां: गन्ने की प्रजातियों को उनकी आयु, रस में शर्करा की मात्रा तथा परिपक्वता के अनुसार दो भागों में विभक्त किया जा सकता है।
गन्ने की नयी प्रजातियां: 14201, 13235, 15023, 13231, 118, 8272, 12029, तथा 95, 85 आदि हैं।
जल्दी पकने वाली प्रजातियां: ये प्रजातियां सामान्यतरू 10 महीने में पककर तैयार हो जाती है। इनके रस में कम से कम 16 प्रतिशत तक शर्करा होती है। इनमें प्रमुख रूप से को.से. 95435, 95436, 98231 करन.1;को. 98014, को.शा. 8436, 95255, 96268, 687. 96436, 96237, 98231, सी.ओ.जे. 64, को. पन्त 84211 आदि सम्मिलित है।
मध्यम एवं देर से पकने वाली प्रजातियांर: गन्ने की ये प्रजातियां 12 से 14 महीने में पककर तैयार होती है। इस श्रेणी में को.शा, 8432, 88216, 90269, 21230, 92263, 91248, 86218, 94257, को. पन्त 84212, को. से. 92423, 93232, 93234, 95422, यू.पी. 9529, 9530, को.शा. 94270, 97264, 95222, एवं को.जे. 84 आदि प्रजातियां प्रमुख है। इसके अलावा जिन क्षेत्रों में वर्षा ऋतु में पानी भर जाता है उन क्षेत्रों के लिए को.से. 96436, यू.पी. 9529 तथा यू.पी. 9530 प्रजातियां लाभकारी पाई गई है।
बीज गन्ना चुनाव: लगभग 8-10 माह की शुद्ध रोग रहितए कीट मुक्त व स्वस्थ फसल जिसमें पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व दिए गए हों। जिसका गन्ना बहुत पतला न हो, फसल जमीन पर गिरी हुई न हो, को बीज के लिए चुने। बुवाई हेतु ऊपरी 2/3 भाग ही प्रयोग करना चाहिए। इससे जमाव अच्छा व शीघ्र होता है। प्रत्येक कलम में कम से कम दो आंखे होनी चाहिए।
बीज की मात्रार: बीज की मात्रा बुवाई के समय व प्रजातियों के आधार पर निर्धारित की जाती है। गन्ने की शीघ्र पकनें वाली प्रजातियों के लिए 70-75 क्विंटल तथा देर से पकने वाली प्रजातियों के लिए 60-65 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है। इसके लिए औसतन दो से तीन आंखों वाली 40,000 बीज टुकड़ों की प्रति हैक्टेयर आवश्यकता होती है। नाली में दो आंखों वाले 10 कलमों को प्रति मीटर की दर से डालें।
बीजोपचार: कार्बेण्डाजिम के 0.1 प्रतिशत घोल ;112 ग्राम दवा को 112 लीटर पानी, में 4.5 मिनट तक कलमों को डुबाना चाहिए या बीज को रोगों के प्रकोप से बचाने के लिए घुलनशील पारायुक्त रसायन या मेन्कोजेब के 0.25 प्रतिशत के घोल में बुवाई से पूर्व 4.5 मिनट तक डुबोएं। घोल के लिए 250-300 लीटर पानी प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है। इससे गन्ने का जमाव भी अच्छा होगा।
बुवाई की विधि: गन्ने की बुवाई की विधि का चुनाव मुख्य रूप से भूमि की किस्मए जल निकास व सिंचाई साधनों की उपलब्धताा आदि के आधार पर किया जाता है। इसके लिए आमतौर पर निम्न विधियां प्रचलित है.
समतल विधि: यह गन्ने की बुवाई का सबसे आसान तरीका है। यह विधि साधारणतया उन क्षेत्रों में अपनाई जाती है जहां वर्षा कम होती है तथा जल स्तर काफी ऊंचा होता है। इस विधि में 90 से.मी. के अन्तराल पर 7 से 10 से.मी. गहरे कूड ट्रैक्टर अथवा हल से बनाकर गन्ने की बुवाई की जाती है। बुवाई के बाद पाटा लगा दिया जाता है। जिससे गन्ने के बीज मिट्टी से ढक जाएं तथा भूमि में नमी बनी रहे। इस विधि में कलम से कलम व आंख से आंख के मध्य सर्वाधिक प्रतिस्पर्धा व कम जमाव होता है।
नाली विधि: यह विधि भरपूर खादए पानी एवं श्रम की उपलब्धता वाली परिस्थिति के लिए उपयुक्त है। इस विधि में लागत अधिक आती है परन्तु उपज भी अच्छी प्राप्त होती है। इस विधि में बुवाई के एक माह पूर्व 90 से.मी. के अन्तराल पर 25 सेण्मीण् गहरी एवं 25.30 से.मी. चैड़ी नालियां बना ली जाती है। इन नालियों में खादए उर्वरक डालकर एवं गुड़ाई करके तैयार कर लिया जाता है। बाद में इन नालियों में गन्ने की बुवाई कर दी जाती है। फसल वृद्धि के साथ मेड़ों की मिट्टी नाली में गिराते रहते है। जिससे अन्ततः मेड़ों के स्थान पर नाली एवं नाली के स्थान पर मेड़ बन जाती है। इसमें 80-90 प्रतिशत तक जमाव होता है।
रिज एवं फरो विधि: यह उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहां वर्षा सामान्य होती है परन्तु जल निकास की समस्या होती है। इसमें 90 सेण्मीण् की दूरी पर 15 से 20 सेण्मीण् गहरी नालियां बनाई जाती है। इसके बाद निश्चित खाद एवं उर्वरक मिलाकर गन्ने की बुवाई की जाती है। इसके बाद गन्ने के बीजों को मिट्टी से ढक दिया जाता है। इससे खेत पुनः समतल नजर आता है।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन: गन्ने की फसल वर्ष भर खेत में खड़ी रहती है। अतः खाद एवं उर्वरक प्रबंध पर विशेष ध्यान देना चाहिए। सामान्यतः 100 टन गन्ना पैदा करने हेतु मृदा से 208 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 53 कि.ग्रा. फास्फोरस, 280 कि.ग्रा. पोटेशियम, 34 कि.ग्रा. लोहा, 1.2 कि.ग्रा. मैंगनीज, 0.6 कि.ग्रा. जिंक तथा 0.2 कि.ग्रा. तांबा का दोहन होता है। लम्बे समय तक पोषक तत्वों की आपूर्ति हेतु जैविक खादों का प्रयोग आवश्यक है। साथ ही मृदा स्वास्थ्य सुधारने, सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या बढ़ाने, मृदा तापमान नियंत्रित करने और मृदा नमी संरक्षित करने में भी जैविक खादों का प्रयोग लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसके लिए गोबर की खाद, हरी खाद, कम्पोस्ट, फसल अवशेषों व प्रैसमड का प्रयोग किया जा सकता है। उपयुक्त खादों का प्रयोग गन्ने की बुवाई से लगभग एक माह पूर्व खेत में अच्छी तरह बिखेर कर किया जाना चाहिए। इसके अलावा गन्ने की अच्छी पैदावार के लिए 150 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर आवश्यक है। नाइट्रोजन की 1/3 मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा को बुवाई के समय देना चाहिए।
नाइट्रोजन की शेष 2/3 मात्रा दो बराबर भागों में बांटकर क्रमश कल्ले फूटने के समय व जुलाई के पूर्व टाप ड्रेसिंग के रूप में डालकर गुड़ाई कर देनी चाहिए। इसके बाद किसी प्रकार के नाइट्रोजन उर्वरकों का प्रयोग फसल में नही करना चाहिए क्योंकि इसके बाद दिए गए नाइट्रोजन उर्वरकों का फसल की उपज एवं गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जुलाई के बाद नाइट्रोजन उर्वरक देने से पौधों में पानी का अवषोषण बढ़ जाता है। साथ ही गन्ने के रस में पानी की मात्रा बढ़ जाती है।
अधिक नाइट्रोजन देने से गन्ने में रेशें की मात्रा भी कम हो जाती है। जिससे फसल के गिरने की संभावना बढ़ जाती है। मृदा परीक्षण के आधार पर यदि मृदा में जिंक की कमी हो तो बुवाई के समय 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट का प्रयोग करना चाहिए। यदि फास्फोरस की मात्रा DPA से दे रहे है तो तीन वर्ष में एक बार गन्धक चूर्ण 250 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में मिलाना चाहिए।
सिंचाई प्रबंधन एवं जल निकास: गन्ने की फसल को पानी की अधिक आवश्यकता होती है अतः गन्ने की खेती उन्ही क्षेत्रों में करनी चाहिए जहां सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था हो। गन्ने के अंकुरण अवस्थाए कल्ले फूटने और बढ़वार के समय मृदा में पर्याप्त नमी होना अत्यंत आवश्यक है। गर्मी के दिनों में 15-20 दिनों के अन्तराल पर एवं वर्षा ऋतु में लगातार बारिश न होने पर 20 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। वर्षा ऋतु में गन्ने के खेत से आवश्यकता से अधिक पानी का निकालना भी उतना ही जरूरी है जितना सिंचाई देना।
अधिक समय तक खेत में पानी भरा रहने से उसमें वायु संचार एवं लाभदायक जीवाणुओं की क्रियाशीलता घट जाती है। साथ ही पौधों की जड़ों का विकास नही हो पाता है और फसल सड़कर सूख जाती है।
खरपतवार नियंत्रण: बुवाई के 15 से 20 दिन बाद गन्ने के खेतों में एक बीज पत्री व द्विबीज पत्री खरपतवार पनपने लगते है। इनका प्रकोप जुन-जुलाई तक बना रहता है। जिससे गन्ने की वृद्धि, विकास और पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे गन्ने की पैदावार में लगभग 10-40 प्रतिशत तक की कमी आ जाती है। यह फसल में खरपतवारों की सघनता और उनके प्रकार पर निर्भर करती है। इन खरपतवारों में बथुआ, खरबथुआ, कृष्णनील, गजरी, दूबघास व हिरणखुरी आदि प्रमुख है।
वर्षा ऋतु में घासकुल के खरपतवार पनपने लगते है। इनमें दूबघास, मकरा, जंगली चैलाई एवं कांटेदार चौलाई मुख्य है। इन खरपतवारों को नष्ट करने के लिए समय.समय पर फसल की गुड़ाई प्रत्येक सिंचाई के बाद बरसात शुरू होने तक की जा सकती है। आजकल मजदूरों की कम उपलब्धता और उनकी मजदूरी अधिक होने के कारण खरपतवारों को नियंत्रण करने के लिए बहुत से शाकनाशी बाजार में उपलब्ध है। शाकनाशी द्वारा खरपतवारों को नियंत्रण करने हेतु गन्ने की बुवाई के 50-60 दिन बाद 1 कि.ग्रा. 2,4-.डी. प्रति हैक्टेयर कर दर से खेत में छिड़काव करना चाहिए। इससे सम्पूर्ण चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट हो जायेगे।
इसके अलावा एट्राजिन सक्रिय तत्व 1 कि.ग्रा./क्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर गन्ना जमाव से पहले छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित किए जा सकते है। छिड़काव के समय मृदा में पर्याप्त नमी हो तथा तेज हवा न चल रही है।
सहफसली खेती: गन्ने की फसल की बुवाई के लगभग एक वर्ष बाद ही आय देती है। ऐसी स्थिति में गन्ने की फसल के साथ अन्य फसलों की सहफसली खेती अपनाना आवष्यक है। ऐसा करने से किसान भाईयों को फसल के मध्य में अतिरिक्त आय मिलेगी जो न केवल पारिवारिक आवष्यकताओं जैसे खाद्यए दलहनए तिलहन और चारा की आवश्यकता की पूर्ति करेगी बल्कि गन्ने की फसल में आने वाले खर्चो की भी आपूर्ति करेगी।
इसके साथ ही गन्ने की एकल फसल से उत्पन्न दुष्प्रभावों को भी कम करेगी। बसंतकालीन गन्ने की दो लाईनों के बीज में उर्दए मूंगए या लोबिया की एक.एक पंक्ति बोना चाहिए। इससे किसान भाई प्रति इकाई क्षेत्र से अतिरिक्त लाभ अर्जित कर सकते है। किसान भाई सह फसलों का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखें कि फसल शीघ्र पकने वाली, कम फैलने वालीए सीधी बढ़ने वाली तथा गन्ने का अंकुरण व फुटाव धीमा होने के कारण इसकी बढ़वार शुरू के तीन-चार महीने तक न के बराबर होती है अर्थात गन्ने का पौधा इस अवधि में सुषुप्तावस्था में रहता है।
इन दिनों में रबी की कई अन्य फसलें जैसे गेहूं, चना, सरसों, आलू, लहसुन, मटर, राजमा, फूलगोभी, प्याज या अन्य कोई सब्जी की शीघ्र पकने वाली फसल गन्ने की दो पंक्तियों के बीच बोई जा सकती है। इसके अलावा गेंदा व गन्ना की सहफसली खेती भी की जा सकती है। इस प्रकार गन्ने की अकेली फसल की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्रफल और प्रति इकाई समय में अधिक उपज व अधिक लाभ कमाया जा सकता है। सहफसली खेती में उचित प्रजाति का चुनावए समय पर बुवाई, उचित खाद व सिंचाई प्रबंधन अति आवश्यक है।
मिट्टी चढ़ाना एवं बुवाई: जड़ों की पूर्ण वृद्धि व विकास के लिए तथा बरसात के दिनों में फसल को गिरने से बचाने के लिए पौधों के दोनों ओर मिट्टी चढ़ाना अत्यंत आवश्यक है। जून-जुलाई के महीनों में अंतिम निराई-गुड़ाई के समय पर्याप्त मिट्टी चढ़ाकर गन्ने को गिरने से बचाकर अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है। गन्ना अधिक ऊंचाई तक बढ़ता है इसलिए इसका गिरना स्वाभाविक है।
गन्ने की फसल के गिरने से इसकी उपज व गुणवत्ता में कमी आ जाती है। साथ ही गन्ने के गिरने से पोषक तत्वों का अवषोषण कम हो जाता है जिससे इसकी बढ़वार रूक जाती है। अगस्त-सितम्बर में तेज हवा चलने के कारण कभी-कभी मिट्टी चढ़ा गन्ना भी गिर जाता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए 8-10 गन्नों को एक साथ जमीन से एक मीटर की ऊंचाई पर सूखी पत्तियों से बांध देते है जिससे गन्ना गिरता नही है।
कीट प्रबंधन: गन्ने की फसल में लगने वाले कीटों में दीमक, सफेद लट, तना भेदक, जड़भेदक, चोटी भेदक, पायरिला तथा काला चिटका प्रमुख है।
दीमक: दीमक बहुभक्षी कीट होने के कारण गन्ने की फसल का सबसे बड़ा शत्रु है। यह वर्ष भर पौधों को हानि पहुंचाती रहती है। दीमक पौधों की जड़ों को काट देती है जिससे पौधों की बढ़वार रूक जाती है और अन्ततः पौधे सूख जाते है। दीमक से बचाव हेतु.खेतों में गोबर की कच्ची खाद का प्रयोग नही करना चाहिए।
फसल में पानी की कमी नही होनी चाहिए। गर्मियों में खेतों की गहरी जुताई करना चाहिए जिससे दीमक के प्राकृतिक शत्रु चिड़िया इत्यादि इन्हें खाकर नष्ट कर देती है। क्लोरपाइरीफास 20 ई.ण् के 0.5 प्रतिशत घोल में गन्ने की कलमों को डुबोकर बोयें।
सफेद लट: यह सफेद रंग के छोटे कीट होते है। इनका रंग मटमैला होता है। यह कीट पौध की जड़ों को हानि पहुंचाते है जिसके परिणामस्वरूप पौधा सूख जाता है। इससे बचाव हेतु ग्रीष्मकालीन जुताई करनी चाहिए। फोरेट .10 प्रतिशत दाने, 10 कि.ग्रा./क्टेयर की दर से खेत में अन्तिम जुताई के समय मिलाना चाहिए।
तना बेधक: इसे गन्ने की सूंडी कहते है। इसका प्रकोप ग्रीष्म ऋतु में होता है। इसके प्रकोप से पौधे के ऊपर वाली पत्तियां सूख जाती है। यह सूंडी जमीन के पास छेद करके पौधों को खाती हुइ्र्र ऊपर की तरफ बढ़ती है। इस कीट से बचाव हेतु उचित फसल चक्र अपनाएं। ग्रीष्मकालीन जुताई करें और सूखी व प्रभावित पत्तियों को खेत में जला दें।
पायरिला: इस कीट प्रकोप अप्रैल से नवम्बर के मध्य होता है। यह पत्तियों का रस चूसता है जिससे पौधों की बढ़वार रूक जाती है तथा शर्करा की कमी हो जाती है। फसल पर अधिक प्रकोप होने पर 400 से 600 मिण्लीण् एण्डोसल्फान 35 ईण्सीण् का छिड़काव करें या क्विनालफास 800 मिण्लीण्ध्हैक्टेयर को 625 लीटर पानी में मिलाकर ग्रीष्मकाल में छिड़काव करें।
सफेद मक्खी: इस कीट का वयस्क सफेद रंग का होता है जबकि निम्फ कीट काले रंग के होते है। दोनों ही गन्ने का रस चूसते है जिससे गन्ने की पत्तियां पीली पड़ जाती है और अन्ततः पौधों की बढ़वार रूक जाती है। यह प्रकोप अगस्त से नवम्बर के बीच होता है इससे बचाव हेतु सूखी पत्तियों को खेत में जलाएं व उचित फसल चक्र अपनाएं। अधिक प्रकोप होने पर 800 मिण्लीण् डाइमेथोएट को 400 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें या मोनोक्रोटोफास 35 ईण्सीण् 1 लीटर दवा का छिड़काव करें।
प्रमुख बीमारियां: वैसे तो गन्ने की फसल में अनेक बीमारियां लगती है परन्तु कवक जनित चार प्रमुख बीमारियां ही गन्ने की फसल को ज्यादा नुकसान पहुंचाती है। इनमें लाल सड़न रोगए म्लानि या उकठा रोगए कण्डुआ व गन्ने का पर्ण चित्ती रोग है ये सभी बीमारियो बड़ी घातक है। भारत में ये बीमारियां सभी गन्ना उत्पादक क्षेत्रों में पाई जाती है। कभी.कभी इन बीमारियों की वजह से हजारों हैक्टेयर गन्ने की फसल बरबाद हो जाती है। इन बीमारियों के कारण गन्ने के उत्पादन में लगभग 10-12 प्रतिशत तक की हानि आंकी गई है। इन रोगों से सामान्यतः बरसात के बाद गन्ने की बढ़वार रूक जाती है जिसका शर्करा संश्लंषण की क्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उपयुक्त रोगों से बचाव हेतु रोगरोधी संस्तुत प्रजातियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। गन्ने का बीज स्वस्थ एवं निरोग होना चाहिए। जिस खेत में इन बीमारियों का संक्रमण हो उस खेत में गन्ने की फसल नही लेनी चाहिए तथा कम से कम 3 वर्ष का फसल चक्र अपनाएं। खाद एवं उर्वरकों का संतुलित प्रयोग करें जिससे फसल स्वस्थ एवं रोग को सहन करने की क्षमता पैदा हो सके। संक्रमित खेत का पानी दूसरे खेतों में नही जाना चाहिए। गन्ने की बीज को उपचारित करके ही बोना चाहिए। जिसके लिए घुलनशील पारायुक्त रसायन 6 प्रतिशत की 250 ग्राम दवा को 100 लीटर पानी में कार्बेण्डाजिम की 100 ग्राम दवा को 100 लीटर पानी में घोलकर कम से कम 10 मिनट तक कलमों को उपचारित करके बोना चाहिए। इससे गन्ने की कलमों में उपस्थित रोगजनक के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
कटाईरू उत्तर भारत में गन्ने की कटाई नवम्बर से लेकर मार्च तक की जाती है। इस समय गन्ने में चीनी की मात्रा सर्वाधिक होती है। चीनी की मात्रा हैण्डरिफ्रेक्टोमीटर द्वारा ज्ञात की जा सकती है। यदि इस यंत्र का अंक 20 या इससे अधिक हो तो समझ लेना चाहिए कि फसल पककर तैयार है। कटाई जमीन से मिलाकर करें। अच्छी पेड़ी की फसल लेने हेतु गन्ने की कटाई फरवरी.मार्च में करनी चाहिए। कटाई के बाद सिंचाई अवश्य करें इससे फुटाव अच्छा होता है। फसल की समय पर कटाई करना स्वयं किसान के चीनी मिलों के एवं राष्ट्रहित में लाभकारी होगा।
उपजरू फसल की उचित देखभाल व उपयुक्त उत्पादन प्रौद्योगिकी अपनाने पर किसान उत्तर भारत में गन्ने की उपज लगभग 800-1000 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तथा दक्षिण भारत में 1000-1200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक प्राप्त कर सकते है।