कृषि तकनीकों को अपनाकर बढाएं सरसों की उपज      Publish Date : 18/01/2024

                     कृषि तकनीकों को अपनाकर बढाएं सरसों की उपज

                                                                                                                                 डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं डॉ0 वर्षा सिंह

                                                                   

     ‘‘विश्व में तिलहन वाली फसलों में प्रमुख रूप से मूँगफली, सरसों, सोयाबीन तथा सूरजमुखी आदि हैं। अमेरिका, ब्राजील, अर्जेण्टीना, चीन तथा भारत विश्व के प्रमुख तिलहन उत्पादक देश हैं। भारत में तिलहनी फसलों के रूप में मुख्य रूप से मूँगफली, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी, कुसुम, अरण्ड़ी, तिल तथा अलसी आदि को उगाया जाता है। सरसों के उत्पादन एवं क्षेत्रफल की दृटि से से विश्व में चीन एवं कनाडा के बाद भारत का तीसरा स्थान है। भारत में सरसें मुख्य रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेशमें उगाई जाती है। खाद्य तेलों के आयात हेतु भारत सरकार को बहुत बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा का व्यय करना पड़ता है। अतः खाद्य तेलों के आयात की निर्भरता को कम करने के लिए तिलहनी फसलों का उत्पादन बढ़ाने पर अधिक बल दिया जा रहा है।’’

     भारत में सरसों की फसल किसानों के बीच बेहद लोकप्रिय है, क्योंकि यह फसल कम लागत एवं कम सिंचाई के साथ अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ सरसों के तेल में न्यूनतम संतृप्त वसा अम्ल तथा लिनोलेनिक तथा लिनोलिक अम्ल की मौजूदगी इसके लाभकारी गुणों को प्रदर्शित करती है। परन्तु सरसों के तेल में इरूसिक अम्ल की अधिक मात्रा (35-50 प्रतिशत) जो कि अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप नही हैं।

इसलिए इरूसिक अम्ल की 2 प्रतिशत कम वाली मात्रा वाली किस्मों का विकास किया जा रहा है, जिन्हे 0 ‘जीरो’ किस्म कहा जाता है। सरसों की खली, जिसमें प्रोटीन की मात्रा 38-40 प्रतिशत तक होती है, एक उत्तम पशु-आहार होता है। सरसों की खली में पाया जाने वाला ‘ग्लुकोसिनोलेट’ यौगिक की अधिक मात्रा उपलब्ध होने पर यह कुक्कुट एवं सुअर के लिए हानिकारक माना जाता है। दस कारण सरसों की ऐसी किस्मों को विकसित किया गया है जिनके तेल में इरूसिक अम्ल तथा उनकी खली में ग्लुकोसिनोलेट की मात्रा कम होती है।

                                                                                   

इस प्रकार की किस्मों को काउन्सिल ऑफ कनाडा ने एक ट्रेडमार्क नाम ‘कनोला’ दिया है। वैज्ञानिक तौर पर कनोला ‘00’ (डबल जीरो क्वालिटी) ब्रेसिका नेपस या ब्रेसिका रापा का बीज हैं सरसों की फसल के कम उत्पादन के कारणों का पता करने पर ज्ञात हुआ कि अधिक बीज की दर, उपयुक्त किस्मों का चयन नही करना, असंतुलित उर्वरकों का उपयोग, पादप रोग एवं कीटों की रोकथाम हेतु प्रभावी उपाय नही करना, नमी की मात्रा का अधिक होना एवं खरपतवारों का प्रकोप अधिक होना आदि को मुख्य रूप से पाया गया है।

     सरसों की अच्छी पैदावार किसाी आर्थिक स्थिति को बहुत हद तक प्रभावित करती है। अतः सरसों की खेती में नवीनतम तकनीकों को अपना कर इसका भरपूर लाभ उठाया जाना चाहिए। इसके लिए किसान बन्धु निम्न तथ्यों अथवा तकनीकों को अपनाकर अपने सरसों के उत्पादन को पर्याप्त मात्रा में बढ़ा सकते हैंः

                                                                          

                                                         चित्रः सरसों की बम्पर पैदावार

भूमि की तैयारी

     सरसों की अच्छी पैदावार के लिए अच्छे जल निकास सुविधा सम्पन्न बलुई दोमट मिट्टी, जो अधिक क्षारीय अथवा अम्लीय न हो, को उपयुक्त माना जाता है, हालांकि क्षारीय भमियों में भी सरसों की उपयुक्त किस्मों के चयन के द्वारा सरसों की अच्छी पैदावार ली जा सकती हैं ऐसी भूमियों में प्रति तीसरे वर्ष जिप्सम 50 क्विंटल प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम को मई या जून में जमीन में मिला देना चाहिए।

सिंचित क्षेत्रों में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से कर उसके बाद तीन-चार जुताईयाँ हेरो से कर पाटा लगा देना चाहिए जिससे कि खेत में ढेले आदि न रहें। असिंचित या बारानी क्षेत्रों में प्रत्येक वर्षा के बाद हैरो से जुताई कर खेत की नमी को संरक्षित करने का प्रयास करे और प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं जिससे कि भूमि की नमी संरक्षित रहे।

बुआई का समय

     सरसों की बुआई का समय भिन्न-भिन्न कारणों जैसे- क्षेत्र विशेष का तापमान, मानसून की स्थिति या उसके समाप्त होने की तिथि और पहले से खेत में बोई गई फसल आदि पर निर्भर करता है और इन्हीं के अनुसार भिन्न हो सकता हैं। बुआई करने का उचित समय किस्म के अनुसार सितम्बर माह के मध्य से लेकर अक्टूबर माह के अंत तक का होता हैं सरसों के अच्छे अंकुरण के लिए दिन का अधिकतम तापमान 33 डिग्री सेल्सियस से ऊपर नही होना चाहिए। सरसों की बुआई यदि नवम्बर माह में करनी हो तो देरी से बुआई करने के लिए उपयुक्त किस्म का उपयोग कर अपेक्षाकृत अधिक पैदावार को प्राप्त किया जा सकता है।

सरसों की उन्नत प्रजातियाँ

     सरसों की विभिन्न प्रजातियों को अलग-अलग परिस्थितियों में अच्छी उपज देने की क्षमताओं के अनुसार वर्गीकृत किया गया हैं। कृषक वर्ग अपने खेत की मृदा, सिंचाई की उपलब्धता और बुआई के समय के आधार पर उपयुक्त प्रजाति का चयन कर सकता हैं तेल एवं खली की गुणवत्ता के आधार पर भी प्रजातियों का चुनाव किया जा सकता है। प्रजातियों की औसत उपज, तेल की उपलब्ध मात्रा, परिपक्वता के समय आदि को प्राप्त करने के लिए उन्नत कृषि तकनीकें आपनाने की संस्तुति की जाती है। 

बीज दर

     सरसों के बीज की दर बुआई के समय, मृदा में उपलब्ध नमी की मात्रा एवं बुआई के लिए प्रयुक्त प्रजाति आदि कारकों पर निर्भर करती है। पंक्तियों में बुआई की गई, सिंचित क्षत्रों की फसल के लिए निर्धारित बीज दर 04 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर पर्याप्त होती है।

बीज का उपचार

     सरसों में तना गलन रोग से बचाव के लिए इसके बीज को कार्बेण्डाजिम एक ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। यदि किसी कारणवश उक्त रसायन उपलब्ध न हो तो 2 प्रतिशत लहसुन के सत को बनाने के लिए 20 ग्राम लहसुन को किसी मिक्सी अथवा पत्थर पर बारीक पीस कर इसको कपड़े से अच्छी तरह से छानकर एक लीटर पानी में मिलाकर घोल तैयार करें। इस मिश्रण से 5-7 कि.ग्रा. बीज का उपचार किया जा सकता हैं जिन क्षेत्रों में सफेद रोली नामक रोग की समस्या होती है उन क्षेत्रों में एप्रोन 35 एसडी का 6 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज दर से बीजोपचार करें।

सरसों के प्रमुख रोग तथा उनका प्रबन्धन

                                                                                  

सफेद रोलीः इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के छोटे-छोटे फफोले बन जाते हैं। इन फफोलों के ठीक ऊपर पत्तियों की ऊपरी सतह पर गहरे भूरे/कत्थई रंग के धब्बे से दिखाई देते हैं। अतः फसल में रोग के लक्षणों के दिखाई देते ही मैन्कोजेब अथवा रिडोमिल एसजेड-72 डब्ल्यूपी फँफूद नाशक के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें। आवश्यकता के पड़ने पर 10-15 दिनों के अंतराल पर इस छिड़काव का पुनः दोहराव करें।

मृदा रोमिल आसिताः इस रोग में सबसे पहले नई पत्तियों पर मटमैले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। यह धब्बे फँफूद की वृद्वि के कारण पत्तियों की निचली सतह पर बनते हैं। इस रोग का नियंत्रण करने के लिए बीज का उपचार मेटालेसिक्सल 2.0 ग्राम सक्रिय तत्व (एप्रोन 35 एस.डी. 6.0 ग्राम) प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से कर बुआई करनी चाहिए। खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर रिडोमिल एसजेड 2 ग्राम प्रति लीअर पानी की दर से छिड़काव करें, तथा आवश्यता पड़ने 10-15 दिनों के अंतराल पर इस छिड़काव को दोबारा से करें।

छाछ्याः इस रोग का प्रकोप होने पर सव्रप्रथम पुरानी पत्तियों के दोनों तरॅ फफोले दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण की स्थिति में ये फफोले तेजी से फैल कर पूरी पत्ती को घेर लेते हैं और पत्ती की भोजन बनाने की प्रक्रिया अवरूद्व हो जाती है। इस रोग के नियंत्रण के लिए घुलनशील सल्फर 2.0 ग्राम या डाइनोकेप एक मि.ली. प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करें, तथा आवश्यता पड़ने पर 15 दिन के अंतराल पर इस छिड़काव को दोबारा से करें।

                                                                                     

तना गलनः इस रोग में प्रभावित पौधों के तने के निचले भाग पर फफोलेनुमा संरचना दिखाई देती है। प्रायः यह फफोले रूई जैसे कवक जाल से ढंके रहते हैं। रोग का कुछ समय व्यतीत हो जाने के बाद जब प्रभावित पौधे के तने को चीर कर देखते हैं इसमें काली-काली चूहें के मैंगनी जैसी संरचनाएं पाई जाती हैं।

इस रोग की रोकथाम के लिए कार्बेढडाजिम एक ग्राम प्रति लीटर फँफूदीनाशक का छिड़काव सरसों की बुआई करने के 50 एवं 70 दिनों के बाद करते हैं जिससे इस रोग से प्रभावी बचाव होता हैं जिन क्षेत्रों में यह रोग अक्सर हदखाई देता है, उन क्षेत्रों में ट्राइकोडर्मा जैविक नियंत्रक 2.5 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से गोबर की खाद में मिलाकर 10-15 दिनों तक इसकी बढ़वार कराई जाती है।

बुआई की विधिः

     सरसों की बुआई पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखते हुए 4-5 से.मी. गहराई पर बीज की बुआई करें और पंक्तियों की आपसी दूरी 30 से.मी. रखें, वहीं असिंचित क्षेत्रों में बीज की गहराई नमी के अनुरूप रखी जानी चाहिए।

उर्वरकों का प्रयोग

     उर्वराकों का संतूलित प्रयोग मृदा परीक्षण के बाद ही सम्भव हैं। सिंचित क्षेत्रों की फसल के लिए 60 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 30-40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस यदि डी.ए.पी. से देना हो तो 250 कि.ग्रा. जिप्सम अथवा 40 कि.ग्रा. गन्धक चूर्ण दें। यदि फॉस्फोरस को सिंगल सुपर फॉस्फेट से देना है तो 80 कि.ग्रा. जिप्सम प्रति हैक्टर की दर से बिखेर कर दें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा का छिड़काव पहली सिंचाई के साथ करें। असिंिचत क्षेत्रों में उर्वरकों की आधी मात्रा (30 कि.ग्रा. नाइट्रोजन तथा 15 कि.ग्रा. फॉस्फोरस) बुआई करने के समय ही प्रयोग करें।

सिंचित एवं कम पानी की स्थिति में सरसों की अच्छी उपज लेने के लिए 500 पीपीएम थायोयूरिया (5.0 ग्राम प्रति लीटर पानी) या 100 पीपीएम थायोग्लाइकोलिक एसिड (1.0 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी) में घोल बनाकर इसके दो छिड़काव, जिनमें से पहला 50 प्रतिशत फूल बनने बनने की अवस्था पर (बुआई के लगभग 40 दिनों के बाद) तथा दूसरा छिड़काव उसे 20 दिनों के बाद करना चाहिए।

जिंक की कमी होने पर खेत में बुआई से पहले 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हैक्टर की दर से अकेले अथवा जैविक खाद के साथ उपयोग किया जा सकता है। खड़ी फसल में जिंक की कमी के लक्षण दिखाई देने पर लेब ग्रेड का जिंक सल्फेट 0.5 प्रतिशत (200 लीटर पानी में एक कि.ग्रा. जिंक सल्फेट) का घोल बनाकर सरसों के फूल आने तथा फलियां बनते समय छिड़काव करना चाहिए। बोरॉन की कमी वाली मृदाओं में 10 कि.ग्रा. बोरेक्स प्रति हैक्टर की दर से बुआइ्र पहले ही खेत में मिला दिया जाए तो सरसो की उपज में वृद्वि होती है।

उत्पादन की विभिन्न परिस्थितियाँ प्रजातियाँ

                                                                             

1.   समय पर बुआई की जाने वाली सिंचित क्षेत्र की प्रजातियाँ  एन.आर.सी.डी.आर.-2, बायो-902, पूसा बाल्ड, आर.एच.-30, लक्ष्मी, वसुंधरा, जगन्नाथ, रोहिणी, आर.जी.एन.-73, पूसा मस्टर्ड-21, पूसा मस्टर्ड-22, एन.आर.सी.डी.आर.-601, एन.आर.सी.एच.बी.-101, एन.आर.सी.वाई.एस.-05-02 (पीली सरसों), गिरिराज (आई.जे.-31) तथा आर.एच.-749 इत्यादि।

2.   संकर प्रजातियाँ एन.आर.सी.एच.बी.-506, डी.एम.एच.-1, पी.ए.सी.-432, (कोरल) तथा पी.ए.सी.-437, (कोरल) इत्यादि।

3.   असिंचित क्षेत्र के लिए प्रजातियाँ   अरावली, गीता तथा आर.जी.एन.-48 इत्यादि।

4.   अगेती बुआई के लिए प्रजातियाँ    पूसा अग्रणी (सेग-2)

5.   देरी से बुआई की जाने वाली प्रजातियाँ   एन.आर.सी.एच.बी.-101, स्वर्ण ज्योति, आशीर्वार.आर.एन.-505 तथा आर.जी.एन.-145 इत्यादि।

6.   लवणीय मृदा की प्रजातियाँ   सी.एस.-54, सी.एस.-52 तथा नरेन्द्र राई-1 आदि।

7.   उच्च गुणवत्ता या कनोला प्रजातियाँ     पूसा मस्टर्ड-22, पूसा मस्टर्ड-29 तथा पूसा मस्टर्ड-30 आदि।

खरपतवार नियंत्रणः खरपतवार नियंत्रण एवं खेत में नमी संरक्षण के लिए निराई-गुड़ाई प्रथम सिंचाई से पूर्व ही करना चाहिए। खेत में खरपतवार प्रबन्धन के लिए पेएडीमिथेलीन 30 ई.सी. 750 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हैक्टर (लगभग 3 लीअर दवा) शाकनाशी का बुआई के बाद परन्तु बीज के उगने से पूर्व 500-700 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। प्रथम सिंचाई के बाद ‘दो पहियों वाली स्वचालित हो’ के द्वारा निराई-गुड़ाई करने से सरसों की फसल में खरपतवार का नियंत्रण के साथ ही फसल की वृद्वि भी अच्छी होती है।

सिंचाईः सरसों में पहली सिंचाई बुआई के 28-35 दिनों के बाद फूल आने से पहले करनी चाहिए और दूसरी स्रिचाई आवश्यकता के अनुसार 70-80 दिनों के बाद फलियों के बनने के समय करनी चाहिए। जिन स्थानों पर पानी की कमी अथवा पानी खारा हो उन स्थानों पर केवल दो सिंचाई ही करनी चाहिण्। यदि पानी क्षारीय है तो पानी की जाँच करा कर उचित मात्रा में जिप्सम को गोबर की खाद में मिलाकर प्रयोग करें।

ओरोबैंकी प्रबन्धनः ओरोबैंकी की रोकथाम के लिए उचित फसल चक्र जिनमें विशेषरूप से गेहूँ, जौ तथा चना आदि को अपनाया जाना चाहिए। ओरोबैंकी खरपतवार के बीज बनने से पूर्व ही उसे उखाड़कर नष्ट करें। कृषि उपकरणों का सफाई करने के बाद ही उपयोग करें सदैव स्वस्थ्य एवं प्रमाणित बीज जो परजीवी बीजों से मुक्त हो, का ही प्रयोग करें। सिंचित फसल की अवस्था में अंकुरण के 25 दिनों के बाद 25 ग्राम व 50 दिनों के बाद 50 ग्राम ग्लाइफोसेट का जड़ों की तरफ निर्देशित छिड़काव करने से इस खरपतवार पर नियंत्रण किया जा सकता है।

सरसों के कीट एवं उनका प्रबन्धन

                                                                        

आरा-मक्खी

     इस कीट की लटें पत्तियों को तेजी से खाती हैं, जिससे सरसों की पत्तियों में अनेक छिद्र बन जाते हैं। इस कीट का प्रकोप अधिक होने पर पत्तियों के स्थान पर शिराओं का जाल ही शेष रह जाता हैं। इसकी रोकथाम के लिए मेलाथियान 50 ई.सी. की 500 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव किया जाए।

पेन्टेड बग अथवा चितकबरा कीट

     इस कीट के वयस्क तथा शिशु दोनों ही समूह में एकत्र होकर पौधों का रस चूसकर उन्हें हानि पहुँचाते हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए मेलाथ्यिान 5 प्रतिशत या कार्बेरिल 5 प्रतिशत चूर्ण 25 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से प्रातः अथवा सांयकाल में खड़ी फसल पर भुरकें। 

चेंपा या माहू

     यह कीट झुण्ड़ में रहते है और तीव्र गति के साथ अपने वंश में वृद्वि करते हैं और फूलों की टहनियों से आरम्भ होकर पूरे पौधे पर फैल जाते हैं, जिससे पौधों की बढ़वार थम जाती हैं। जिस समय फसल में कम से कम 10 प्रतिशत पौधों की संख्या चेंपग्रस्त हो अथवा प्रति पौधा 26-28 चेंपा कीट हो तो इसकी रोकथाम करना आवश्यक हो जाता है।

इस कीट की रोकथाम के लिए डाइमेथेऐट 30 ई.सी. या मानोक्रोटोफॉस 36 घुलनशील द्रव्य की एक लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें। यदि यह छिड़काव संध्या के समय किया जाए तो परागण करने वाले कीटों पर कम प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। साथ ही चेंपा के प्राकृतिक शत्रु जैसे लेडीबर्ड बीटिल,, सिरफिड तथा ग्रीन लेसविंग पर्याप्त मात्रा में उपलब्घ हो तो यह छिड़काव करने की आवश्यकता ही नही होगी।

कटाई

जब 75 प्रतिशत फलियाँ पीली पड़ जाए तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए।

गहाई

     सरसों के बीजों में जब नमी की प्रतिशत मात्रा 12-20 प्रतिशत हो तो सरसों की गहाई करनी चाहिए।

     ऊपर दी गई तकनीकों को अपनाकर कृषक बन्धु सरसों की उपज में अपेक्षित बढ़ोत्तरी कर सकते है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।